'आप' का यह कैसा नेता-तंत्र?
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'आप' का यह कैसा नेता-तंत्र?

बेहद अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि आम आदमी पार्टी भी अब यह नहीं कह सकती कि वह अन्य सियासी दलों से अलग है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है। लेकिन बदलते परिवेश में लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करते हुए नेता का, नेता के लिए और नेता द्वारा शासन प्रणाली कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। नेताओं ने अपनी हनक के लिए लोकतंत्र को ‘नेता-तंत्र’ में बदल दिया है।

बेहद अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि आम आदमी पार्टी भी अब यह नहीं कह सकती कि वह अन्य सियासी दलों से अलग है। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद बीते 10 महीनों में पार्टी की अंतरकलह जिस तरह से खुलकर सामने आई है उसने इस बात को पुख्ता तौर पर स्थापित कर दिया है कि आम आदमी पार्टी का डीएनए भी ठीक वैसा ही है जैसा कि कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा का है। दिल्ली के कापसहेड़ा स्थित एक रिसॉर्ट में शनिवार (28 मार्च) को पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जो कुछ हुआ उसे 'लोकतंत्र की हत्या' तो नहीं कह सकते जैसा कि पार्टी के थिंकटैंक रहे योगेंद्र यादव ने कहा, लेकिन हां, पार्टी यह कहने लायक भी नहीं बची कि वो नई राजनीति के जरिये देश की सियासी गंदगी को साफ कर देंगे।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है। लेकिन बदलते परिवेश में लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करते हुए नेता का, नेता के लिए और नेता द्वारा शासन प्रणाली कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। नेताओं ने अपनी हनक के लिए लोकतंत्र को ‘नेता-तंत्र’ में बदल दिया है। कोई भी राजनीतिक दल हो, सामान्य से सामान्य कार्यकर्ता हो, पदाधिकारी हो या फिर उसके विधायक व सांसद। जब चुनाव जीतकर सत्ता में आते हैं तो आमतौर पर उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं रह जाता कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, जनता को पीने का पानी और काम भर की बिजली मिल रही है कि नहीं, सिर छिपाने के लिए एक अदद छत है कि नहीं, दिनभर मजदूरी करने के बाद रात में वह पेट भर खाना खाया या फिर भूखे पेट सो गया।

पार्टी की सरकार और उनके मातहत प्रशासन तंत्र इसी आम आदमी के लिए तो होती है, लेकिन नहीं। सत्ता मिलने के बाद इनमें से हर कोई अपने-अपने स्वार्थ में अन्धा हो जाता है और जब उसे लगता है कि उसका स्वार्थ नहीं सध रहा है तो फिर उठते हैं बगावत के सुर। इस पूरे परिदृश्य में निश्चित रूप से जिस गुट के हाथ में सत्ता होती है 'तथाकथित लोकतंत्र' के रक्षा की जिम्मेदारी भी उसी की होती है और जाहिर सी बात है वह मजबूत भी होता है। आदतन वह बगावती सुर के खिलाफ दमन चक्र चलाता है और फिर उठती है आवाज, 'आज यहां लोकतंत्र की हत्या हुई है'। ये कोई नई बात नहीं है। सदियों से चली आ रही परंपराएं आगे भी चलती रहेंगी। जो कोई इसे खत्म करने की कोशिश करेगा, वही खत्म हो जाएगा। भारतीय राजनीति ऐसे उदाहरणों से अटी पड़ी है। जेपी आंदोलन के बाद जनता पार्टी की सरकार हो या फिर कांग्रेस से निकले वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार हो।

दरअसल, किसी भी पार्टी में बगावती तेवर अपनाने वाले नेताओं की मंशा कभी आम आदमी के हित की नहीं होती है। कहीं न कहीं उसका अहंकार टकराता है, उसका स्वार्थ नहीं सध रहा होता है। आम आदमी पार्टी में भी कुछ ऐसा ही हुआ। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण अगर दिल्ली के विकास को लेकर कुछ अहम मुद्दे उठाते, मसलन दिल्ली में कानून व्यवस्था की स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिख रहा, अफसरों के भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते या फिर पानी की मूल्यवृद्धि के खिलाफ अपनी पार्टी में आवाज उठाते तो बात समझ में आती। लेकिन यहां तो इन लोगों ने कुछ ऐसे अनाप-शनाप मुद्दे उठाने शुरू कर दिये जिससे कम से कम दिल्ली के आम आदमी का तो इससे कोई वास्ता नहीं था।

मैं यह नहीं कह रहा कि केजरीवाल गुट की तरफ से राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जो कुछ हुआ वो सही कदम था। कोई भी इस तरह की तानाशाही को जायज नहीं ठहराएगा, लेकिन इस तरह की स्थिति क्यों आई यह जाने बिना आप एक पक्षीय फैसला नहीं ले सकते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल एवं अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन से जुड़े सैकड़ों सहयोगियों द्वारा गठित आम आदमी पार्टी के गठन की आधिकारिक घोषणा 26 नवम्बर 2012 को दिल्ली के जंतर मंतर पर की गयी थी। पार्टी ने अभी तीन साल का वक्त भी पूरा नहीं किया है। पार्टी की पूरी शक्ति अभी तक खुद को साबित करने में लगी रही। दिल्ली में 15 फरवरी 2015 को प्रचंड बहुमत की आप की सरकार बनने के बाद अब वह स्थिति आती दिख रही थी कि अरविंद केजरीवाल और उनकी कोर कमेटी अपने तमाम एजेंडे को लेकर देश की तस्वीर बदलने का एक मॉडल तैयार करते। लेकिन उससे पहले ही प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की टीम ने अपना अलग राग अलाप दिया।

दुनियां में किसी भी पार्टी को ले लीजिये, कितनी ही बड़ी और उदार लोकतांत्रिक पार्टी क्यों न हो, जब उसमें से कोई भी नेता या कार्यकर्ता पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलग्न पाया जाता है, उसे बर्दाश्त नहीं किया जाता। आरोप साबित होते ही उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। आम आदमी पार्टी के हाईकमान ने तो पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों को सुधरने का काफी वक्त दिया, बहुत उदारता बरती लेकिन बात बनी नहीं तो उन्हें पदाधिकारी के पद से हटा दिया गया है। पार्टी के कई दिग्गज नेता चिट्ठियों के जरिये पार्टी के कई तरह के फैसलों का विरोध करते रहे। पार्टी के बड़े नेता इस अलग विचारधारा पर यह भी बयान देते रहे कि यह लोकतांत्रिक पार्टी है और नेताओं के अलग-अलग विचार इसे साबित करते हैं हमारी पार्टी में सभी तरह के विचारों का, निर्णयों का सम्मान किया जाता है और आपसी सहमति से फैसला लिया जाता है। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी के अंदर का गतिरोध ब्लॉग और सोशल साइट के जरिये बाहर आने लगे।

पार्टी का एक धड़ा दिल्ली के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का विस्तार चाहती थी तो केजरीवाल दिल्ली पर फोकस करना चाहते थे। पार्टी में दूसरा मतभेद पद को लेकर हुआ। दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद केजरीवाल संयोजक पद पर बने हुए थे तो कुछ लोगों ने इसका विरोध किया और किसी और को संयोजक बनाने की बात की। पूरे मामले ने तूल पकड़ा और सार्वजनिक तौर पर बड़े-बड़े खुलासे होने लगे। प्रशांत और योगेन्द्र पर विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी को हराने की साजिश रचने तक का आरोप है। आप नेता उमेश कुमार ने अरविंद केजरीवाल और उनके बीच की बातचीत को ही रिकार्ड कर लिया। इस तथाकथित स्टिंग से निश्चित रूप से अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की छवि को नुकसान हुआ है, लेकिन आप की सरकार और दिल्ली की जनता का इससे कोई लेना-देना नहीं है। ये पार्टी की आंतरिक मुसीबत है और इसे वहीं तक सीमित रखकर इसका समाधान निकालना होगा।
 
लोकतंत्र संख्या बल का खेल होता है। संख्या बल से जो मजबूत होता है लोकतंत्र का हथियार उसी के हाथ में होता है। आम आदमी पार्टी की जितनी बातें मीडिया में सार्वजनिक हुई हैं शायद ही किसी और पार्टी से बाहर निकलकर आई हों। पार्टी से बाहर आने वाला हर शख्स एक स्टिंग के साथ किसी न किसी चैनल में बैठा दिखा। जो शख्स अपने ही नेता का स्टिंग करता हो उसपर जनता भरोसा कर सकती है क्या? यह एक गंभीर सवाल है। कहते हैं लोकतंत्र में जो शख्स सबसे ज्यादा लोकप्रिय होता है वही नेता होता है। हो सकता है आपको लगे कि मैं अरविंद केजरीवाल का समर्थक हूं, लेकिन इस सच से आप भी इनकार नहीं कर सकते हैं आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर में एक के बाद एक भाजपा का विजय रथ आगे बढ़ रहा था, अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में उसे चुनौती दी और चुनौती ही नहीं दी, मोदी की भाजपा को बुरी हार का स्वाद भी चखाया। भाजपा ने ऐसी हार सपने में भी नहीं सोची थी।

सर्वाधिक लोकप्रियता की वजह से अरविंद मुख्यमंत्री भी बने और आज अगर वह राष्ट्रीय संयोजक की कुर्सी पर बैठे हैं तो वह भी लोकतंत्र की मांग है। 'एक व्यक्ति एक पद' का सिद्धांत सुनने में जरूर अच्छा लगता है लेकिन जरा सोचिए, जब देश की तस्वीर बदलने आप दिल्ली से बाहर निकलेगी तो कौन होगा उसका चेहरा- प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार। इनके बूते तो आप दिल्ली नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीत सकते, देश क्या जीतेंगे। ये वही अरविंद केजरीवाल हैं जिसे लोगों ने 'भगोड़ा' की उपाधि से विभूषित किया था। लेकिन इस शख्स ने हार नहीं मानी। इस भगोड़ा नाम के विशेषण को कड़वा घूंट की तरह पीया। पीने की आदत डाल ली।

वाराणसी से लौटने के बाद केजरीवाल ने तय किया कि हमें हर हाल में दिल्ली जीतनी है। कहते हैं कि मिशन दिल्ली पर निकले अरविंद केजरीवाल जब घर-घर जाकर लोगों से गालियां खाने के बावजूद अपनी गलती के लिए माफी मांग रहे थे और सिर्फ एक मौका देने की भीख मांग रहे थे, प्रशांत भूषण और उनकी टीम दूसरे राज्यों से दिल्ली में प्रचार के लिए आए कार्यकर्ताओं से कहते सुने गए कि जब मैं पार्टी का प्रचार नहीं कर रहा हूं तो फिर आप क्यों पार्टी का प्रचार करोगे। हालांकि अरविंद केजरीवाल पर भी कई तरह के आरोप लगे हैं। पार्टी में तानाशाही रवैया और दिल्ली चुनाव जीतने के बाद उनका अहंकार प्रबल हो गया है। निश्चित रूप से इस तरह की प्रवृति आने वाले समय के लिए शुभ संकेत तो नहीं कहे जा सकते, लेकिन यह भी सच है कि इसी अरविंद केजरीवाल ने ऐसे-ऐसे लोगों को नेता बना दिया जो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वे विधायक और मंत्री बन जाएंगे। कई तो अपनी छवि चमकाकर भाजपा और कांग्रेस पार्टी तक से मोलभाव कर लिए। यह सब अरविंद के नेतृत्व में बनी आम आदमी पार्टी में ही संभव है।

बहरहाल, अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को फिर से लौटना होगा अपनी राह पर। प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव प्रकरण हमेशा आप के लक्ष्य को राह से भटकाने के लिए सामने आते रहेंगे और फिर नष्ट होते रहेंगे, लेकिन आम आदमी पार्टी अगर लक्ष्य से भटक गई या इन सबको निपटाने में नष्ट हो गई तो आम आदमी कभी अरविंद केजरीवाल और आप पर भरोसा नहीं करेगी। एक मफलर में सिमटा आम आदमी का चेहरा जिसे देश का हर आम आदमी अपना मानता है फिर कभी किसी मफलरमैन आम आदमी में भरोसा नहीं करेगा। भगवान न करे ऐसा हो, लेकिन अगर ऐसा हुआ तो देश और समाज का इससे बड़ा नुकसान कुछ और नहीं हो सकता।

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