पुस्तक समीक्षा : ‘मुल्क’ पटकथा
Advertisement

पुस्तक समीक्षा : ‘मुल्क’ पटकथा

किताब के रूप में 'मुल्क' को देखना, फिल्म देखने से अलग है. यह नाटक नहीं है. उपन्यास जैसा तो बिल्कुल नहीं है. फिक्शन या नॉन-फिक्शन पढ़ने के आदी पाठक 'मुल्क' पढ़ते हुए थोड़ा रुकते अवश्य हैं, लेकिन कथानक के प्रति जिज्ञासा उन्हें इसके अंदर तक ले जाती है.

तस्वीर साभार: पुस्तक 'मुल्क' का कवर पेज.

किसी नाटक या सिनेमा को देखते हुए उसमें डूब जाना, उसके किरदारों से खुद को एकाकार कर लेना, वह जो 'थीम' है उससे खुद को जोड़ लेना, संचार विज्ञानियों की दृष्टि में साधारणीकरण कहलाता है. लेकिन जरा सोचिए, अगर बिना नाटक या सिनेमा देखे, उसे पढ़कर कोई ऐसा करना चाहे, तो क्या यह संभव है? अब से कुछ दिनों पहले तक यह काम संभव नहीं था, लेकिन अब है. क्योंकि फिल्मों को पढ़ने की दिशा में कदम बढ़ाया जा चुका है. पहला प्रयोग फिल्म 'मुल्क' के साथ किया गया है. पिछले कुछ वर्षों में देश में बने सांप्रदायिक माहौल को रुपहले पर्दे पर बाकायदा कमर्शियल लुक देते हुए 'मुल्क' बीते दिनों सिनेमाघरों में रिलीज की गई थी. फिल्म चली, कमर्शियल फिल्में जितनी चलती हैं, उतनी भले न चली हो लेकिन चर्चा में आई.

अब जब चर्चा में आई तो इससे एक साहित्यिक विचार पनपा और 'मुल्क' की कहानी को उसके फिल्म वाले स्वरूप में ही किताब बनाने का आइडिया आया. 'फिल्म वाले स्वरूप में' का मतलब, बिल्कुल फिल्म की स्क्रिप्ट को ही किताब के रूप में ढाल दिया गया.

किताब के रूप में 'मुल्क' को देखना, फिल्म देखने से अलग है. यह नाटक नहीं है. उपन्यास जैसा तो बिल्कुल नहीं है. फिक्शन या नॉन-फिक्शन पढ़ने के आदी पाठक 'मुल्क' पढ़ते हुए थोड़ा रुकते अवश्य हैं, लेकिन कथानक के प्रति जिज्ञासा उन्हें इसके अंदर तक ले जाती है. शुरुआती पन्नों में 'खुदा' और 'जुदा' के संवाद से शुरू हुई किताब में ज्यों ही आप उतरते हैं तो बनारस (वाराणसी) की गलियां आपके दिमाग के चक्कर लगाना शुरू कर देती हैं. चाय की दुकान, भीड़ भरी सड़कें, गलियों में सुबह के वक्त धमाचौकड़ी मचाते बच्चे, साइकिल-दोपहिया और चारपहिया, सारे दृश्य तैरने लगते हैं. और इसके साथ ही आप 'मुल्क' के होकर रह जाते हैं. किताब के आगे बड़ी सी काल्पनिक स्क्रीन सी बन जाती है और फिल्म शुरू...! एक-एक कर सोनकर, चौबे, अली मुहम्मद, बिलाल, आरती, तबस्सुम, शाहिद और कहानी के अन्य पात्र आने लगते हैं. घटनाएं और संवाद, आपको पन्ने-दर-पन्ने की सैर कराने लगते हैं. बस में बम विस्फोट, पुलिसिया हलचल, आतंकवाद निरोधी दस्ते की जांच-पड़ताल, किसी मुहल्ले में 'क्राइम' होने या 'क्रिमिनल' का घर मुहल्ले में होने जैसी घटनाओं से रूबरू होते हुए 'मुल्क' आपको देश-काल-परिस्थिति से बावस्ता कराने लगती है. किताब पढ़ने का यह मायाजाल आपको तब तक बांधे रखता है, जब तक कि आप संतोष आनंद, आरती मुहम्मद, मुराद अली मुहम्मद के बीच होने वाली अदालत की जिरह-बहसों और अंत में जज की क्लाईमेक्स वाली टिप्पणी को समाप्त नहीं कर लेते.

'मुल्क' का किताबी संसार यहां आकर समाप्त तो हो जाता है, लेकिन आपको विचार-सागर में छोड़ जाता है. धर्म के नाम पर वैमनस्य, पुलिस द्वारा किसी को 'फ्रेम' करना, अदालतों में दी जाने वाली दलीलों, समाज में एक साथ रहने वालों के बीच अचानक संदेह का उपजना, इन सारे विषयों पर आपका दिमाग विमर्श करने को बेचैन हो जाएगा. किताब पढ़ते हुए जब आप अली मुहम्मद के घर की दीवारों पर 'टेररिस्ट' या 'गो टू पाकिस्तान' जैसे प्रकरण तक आते हैं, तो चूंकि यह फिल्म की ही कहानी है, इसलिए आपको शाहरुख खान की फिल्म 'चक दे इंडिया' में आए इसी तरह के दृश्य की याद आएगी. लेकिन इसके तुरंत बाद जब आप पुलिस अफसर का एक संवाद, 'दीवार पेंट करा डालिए... अच्छा नहीं लगता मुहल्ले में...' पढ़ते हैं, तो आपको यह कहानी पहले से कहीं अधिक संवेदनशील लगती है. अली मुहम्मद और आरती के बीच कम लेकिन सशक्त संवाद आपको इस किताब के होने का अहसास करा देते हैं.

अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' से पहले किसी फिल्म का संवाद-आधारित किताबी संस्करण, संभवतः नहीं दिखा है. अलबत्ता, 'कागज के फूल', 'शोले' या कुछ और फिल्मों के निर्माण की कहानी को जरूर किताबी रूप दिया गया है. आपको याद भी होगा कि संजय लीला भंसाली के 'देवदास' बनाने के बाद, शरतचंद्र के इस प्रख्यात उपन्यास के संस्करण फिर से बिकने लगे थे. 'देवदास' की नई किताब का कवर-पेज शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित और ऐश्वर्या राय की तस्वीरों से सजाया गया था. भंसाली की फिल्म भले ही शरत बाबू के उपन्यास पर ही केंद्रित थी, लेकिन इस 'देवदास' को खरीदने वाला नया वर्ग उसे शाहरुख वाले देवदास के तौर पर ही देख रहा था. अच्छा है 'मुल्क' अपने वास्तविक स्वरूप में ही सिनेमा के पर्दे से उतरकर पाठकों तक पहुंच गया है. फिल्मी किताब को पढ़ने का एक आनंद है, आप पढ़ते-पढ़ते फिल्म देखने का लुत्फ ले सकते हैं. 'मुल्क' की किताब आपको वही अनुभव देती है. किताब को न तो अध्यायों में बांटा गया है और न ही नाटक की तरह अंकों में. सिनेमा में तो इंटरवल भी होता है, इस 'मुल्क' में कोई अंतराल नहीं है. एक बार किताब उठाइए और जैसे सामने स्क्रीन पर कोई फिल्म चल रही हो, उस तरह से पढ़ जाइए.

किताब के बारे में
नाम - मुल्क - पटकथा
लेखक - अनुभव सिन्हा
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स
मूल्य- 150 रुपये

Trending news