फहमीदा रियाज : खामोश हुई महिला अधिकारों की हिमायती आवाज
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फहमीदा रियाज : खामोश हुई महिला अधिकारों की हिमायती आवाज

26 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में जन्मीं फहमीदा के पिता शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे.

फोटो youtube

नई दिल्ली : पाकिस्तान के कट्टर और बंद माहौल में अगर कोई महिला आजाद ख्याल हो, कलम में तेज धार रखती हो, किसी भी मुद्दे पर अपनी बेबाक राय बेखौफ रखती हो, हर इल्जाम से बेखबर अपने रास्ते चलती हो, हिंदुस्तान से प्यार करती हो और इंसानियत को अपना मजहब मानती हो तो समझ लीजिए कि यहां बात फहमीदा रियाज की हो रही है.

फहमीदा रियाज को पाकिस्तान के साहित्यिक हलकों में महिला अधिकारों की सबसे साहसी पैरोकार माना जाता था, जिन्होंने कलम चलाते वक्त किसी सरहद, किसी बंधन को नहीं माना. उन्होंने समाज की तमाम बुराइयों और औरतों पर होने वाले जुल्मो-सितम के साथ ही सियासत की गलीज गलियों पर भी अपनी कलम से जमकर शरारे बरसाए. 

26 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में जन्मीं फहमीदा के पिता शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और सिंध में शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने की दिशा में कार्यरत थे. पढ़ने लिखने की आदत उन्हें विरसे में मिली. आजादी के बाद उनके पिता का तबादला हैदराबाद, सिंध कर दिया गया और पूरा परिवार वहीं जा बसा, जिसके बाद फ़हमीदा पाकिस्तान की हो गईं. हालांकि भारत हमेशा उनके दिल में बसता रहा, उसी का नतीजा है कि पाकिस्तान में जिया उल हक के शासन के दौरान वह हालात से बेजार होकर भारत चली आईं और तकरीबन छह बरस यहीं रहीं. इसके अलावा भी वह अकसर भारत आती रहीं और उनकी रचनाओं में भी भारत का जिक्र जब तब आता रहा.

ऐसी ही एक रचना में वह कहती हैं, ‘‘ दिल्ली, तेरी छांव बड़ी कहरी/मेरी पूरी काया पिघल रही/मुझे गले लगाकर गली गली/ धीरे से कहे, ‘तू कौन है री’/ मैं कौन हूं मां तेरी जाई हूं/ पर भेस नये से आई हूं/ मैं रमती पहुंची अपनों तक/ पर प्रीत पराई लाई हूं.........’’ 

उर्दू अदब की मकबूल शायरा फहमीदा की कलम की तेज धार ने बहुत से लोगों को उनका विरोधी बनाए रखा और उनपर बेबाक और कामुक जबान इस्तेमाल करने के इल्जाम लगाए गए. इस सबसे बेपरवाह फ़हमीदा ने अपने अंदाज में 15 किताबें लिखीं. इनमें ‘धूप’ और ‘आदमी की जिंदगी’ जैसी रचनाओं में उनकी नज्मों को बेहद सराहा गया. उन्होंने शाह अब्दुल लतीफ भिटाई और शेख अयाज़ की रचनाओं का अनुवाद किया और फारसी के सूफी शायर रूमी की रचनाओं का अनुवाद उनकी बेहतरीन साहित्यिक उपलब्धियों में शुमार है.

फ़हमीदा की शुरूआती शिक्षा हैदराबाद के ही एक स्कूल में हुई और उन्होंने जुबैदा कालेज से आगे की पढ़ाई की. इस शहर में परवरिश का असर था कि उर्दू के साथ वह सिंधी भी सीख गईं और साहित्य से लगाव के चलते वह इतना पढ़ती लिखती रहीं कि फारसी जबान में भी माहिर हो गईं.

22 बरस की उम्र में उनकी नज्मों की पहली किताब ‘पत्थर की जुबान’ प्रकाशित हुई और उसे बहुत पसंद किया गया. उनकी दूसरी किताब ‘बदन दरीदाह’ ने साहित्यिक और सामाजिक हलकों में तूफान ला दिया और उनकी कलम के ताप ने कई लोगों को सुलगा दिया. समाज के पुरातनपंथी विचारधारा वाले लोगों को उनकी ज़बान में कई कमियां नजर आईं, लेकिन वह उम्रभर तमाम इलजामात से बेअसर और बेपरवाह रहीं. पाकिस्तान के साहित्य को एक नया अंदाज देने वाली फ़हमीदा की कलम भले खामोश हो गई हो, उनकी रचनाएं आने वाली नस्लों को उनके तेवर की महक हमेशा देती रहेंगी.

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