कार्ल मार्क्स ने अपने विचारों से दुनिया को इस कदर प्रभावित किया है कि पिछली डेढ़ सदी से मार्क्सवाद के पक्ष और विरोध में लगातार बहस हो रही है. इन्हीं कार्ल मार्क्स की पांच मई को दुनिया भर में 200वीं वर्षगांठ मनाई गई.
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1848 में एक छोटी सी राजनीतिक पुस्तिका(पैम्फलेट) कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो(The Communist Manifesto) प्रकाशित हुई थी. साम्यवाद के विचार पर आधारित वह किताब इतनी चर्चित हुई कि उसे 'कम्युनिस्टों का बाइबिल' कहा जाने लगा. इस किताब को जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स ने लिखा था. कम्युनिस्ट विचारधारा के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज को लिखने वाले कार्ल मार्क्स इसके अलावा राजनीतिक, आर्थिक सिद्धांतों पर आधारित दास कैपिटल (Das Kapital) जैसी महान कृतियां लिखकर मानव इतिहास के अब तक के सबसे प्रभावी शख्सियतों की सूची में शुमार हो गए.
कार्ल मार्क्स ने अपने विचारों से दुनिया को इस कदर प्रभावित किया है कि पिछली डेढ़ सदी से मार्क्सवाद के पक्ष और विरोध में लगातार बहस हो रही है. इन्हीं कार्ल मार्क्स की पांच मई को दुनिया भर में 200वीं वर्षगांठ मनाई गई. विचारधाराओं का अंत कहे जाने वाले इस युग में इस जयंती के बहाने एक बार फिर यह सवाल उठ खड़े हुए हैं कि हमें आज कार्ल मार्क्स क्यों याद आते हैं?
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रूसी क्रांति
1883 में कार्ल मार्क्स की मौत के 34 साल बाद 1917 में रूसी क्रांति हुई. उस क्रांति के बीज मार्क्सवाद में थे. इस क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन ने मार्क्सवाद के विचारों से प्रभावित होकर रूस में तीन सदी पुराने जार शासन को उखाड़ फेंका और सर्वहारा सरकार (Proletarian Government) की स्थापना की. रूसी क्रांति के बाद एक के बाद एक कई देश किसी न किसी रूप में मार्क्स के विचारों से प्रेरित होकर कम्युनिस्ट देश(साम्यवादी) होते चले गए. इस तरह पहले से मौजूद पूंजीवाद और मार्क्स के विचारों से उपजे साम्यवाद ने दुनिया को दो भागों में बांट दिया. इसकी परिणति 20वीं सदी में करीब पचास साल लंबे शीत युद्ध के रूप में देखने को मिली. 1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ ही शीत युद्ध का खात्मा जरूर हो गया लेकिन मार्क्सवाद के विचारों ने पूरी मानव जाति को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया.
हम अपनी मर्जी के मालिक बने
'दुनिया के मजदूरों एक हो' का नारा देने वाले मार्क्सवादी क्रांतिकारी विचार ने पूंजीवादी समाज को झकझोर दिया. ब्रिटेन और अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक पूंजीवादी समाजों की सत्ताएं हिल गईं. दिन-रात श्रमिकों, कामगारों का शोषण करने वाली सत्ताएं सतर्क हों गईं. मजदूरों की सर्वहारा क्रांति के भय ने इन समाजों के प्रबुद्ध तबकों को वैचारिक आधार पर प्रभावित किया और फेबियनवाद जैसी मार्क्सवाद की उदार विचारधाराएं पनपीं. जॉर्ज बर्नाड शॉ और हेराल्ड लास्की जैसे विद्वानों ने क्रांति के विचार का समर्थन नहीं किया लेकिन मजूदरों के हितों की बात कही. नतीजतन शोषण के दुष्चक्र का काफी हद तक खात्मा हुआ. लोगों के लिए काम के घंटे निर्धारित किए गए. श्रमिकों को साप्ताहिक अवकाश मिलने लगा. एक उम्र के बाद रिटायर होने और पेंशन लेने का हक दिया गया. इससे कामगारों की जिंदगी में सुधार आया. बड़ी-बड़ी कंपनियों में एचआर(मानव संसाधन) विभाग की स्थापना हुई. बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाया गया. बच्चों का पहला हक शिक्षा माना गया. इस तरह दुनिया भर के कामगार लोगों की जिंदगी में गुणात्मक बदलाव आया और एक आम इंसान अपनी जिंदगी का मालिक खुद बन सका.
मार्क्सवाद
मार्क्स के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विचारों को सामूहिक रूप से मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है. मार्क्सवाद के मुताबिक मानव समाज, वर्ग संघर्ष (class struggle) से उपजा है. इसके लिए ऐतिहासिक भौतिकवादी व्याख्या देते हुए उन्होंने बताया कि उत्पादन साधनों पर नियंत्रण के आधार पर समाज किस तरह से कृषि/पशुपालक समाज से सामंतवादी/जागीरदारी और उसके बाद पूंजीवादी समाज में तब्दील हुआ. उन्होंने बताया कि हर समाज में शोषक और शोषित वर्ग रहा. पूंजीवादी समाज में सत्ताधारी बुर्जुआ (bourgeoisie) के पास उत्पादन के साधन हैं और दूसरा समाज अपना श्रम बेचने वाला सर्वहारा (bourgeoisie) समाज है. चूंकि पूरा पूंजीवादी समाज अधिकाधिक मुनाफे की संकल्पना पर आधारित है और सर्वहारा के लिए इसमें कोई स्थान नहीं है, लिहाजा इस समाज में अंतर्निहित संघर्ष के कारण शोषक और शोषित के बीच वर्ग संघर्ष होगा और नतीजतन समाजवादी सत्ता और अंतिम रूप से साम्यवादी सत्ता आएगी.