काका के ठीहाः डोसा के मुंह कबहूं बंद ना होला!
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काका के ठीहाः डोसा के मुंह कबहूं बंद ना होला!

शहर में ही ना, गांव में भी आजकल बाहरी खाना के चलन बढ़ल जात बा. लोग नया-नया खाना खूब चाव से खात बा.

(फाइल फोटो)

भोजपुरी के विस्तार, पाठकों को ध्यान में रखते हुए 'जी डिजिटल' आपकी प्रिय भाषा में आपके पास पहुंचने की कोशिश कर रहा है. आपके लिए हम 'काका के ठीहा' नाम से कॉलम शुरू कर रहे हैं, जिसमें भोजपुरी भाषी क्षेत्र की संस्कृति, समाज, राजनीति, साहित्य, फिल्म पर सामग्री, राय, विचार उपलब्ध कराने जा रहे हैं. आशा है, यह पहल पसंद आएगी. आइए, मिलकर भोजपुरी की मिठास साझा करें : संपादक

शहर में भलहीं ढेर सुख-सविधा रहो पर खाये के शौकीन गांव के लोग खूब होला. बाजार-हाट, मेला  में खाये-पीये के एक से एक आइटम मिलेला. पुरानका जमाना में अतना में सुविधा ना रहे. तब के गंवई जलेबी, समोसा, चाट-पकौड़ी, चना के घूघनी भर से काम चला लेव लोग. लेकिन, अब त हर जगह हर आइटम मिल रहल बा. चाउमिन, इडली, डोसा, छोला-भटूरा से लेके कोल्ड ड्रिंक तक. अब गांव के लोग बर्फ के चुस्की गोला छोड़के आइसक्रीम खूब चाव से खाता. 

बाबा मोहब्बत नाथ के मठिया पर हर शिवरात के छोट-मोट मेला लागबे करेगा. भूलन काका के पूजा-पाठ में कवनो रूचि ता न ह बाकिर ओहदिन गांव के लइका स के कहला के फेर में पड़के उहो मेला पहुंच गइले. दूरे से मेला में लाल-पीयर, हरियर गुब्बारा लउकत रहे. पुपही (बांसुरी) बजावत छोट-छोट लइका मेला से लवटत रहलन स. रंग-बिरंगा लूगा पहिरले मेहरारू लोग के टोली भी किसिम-किसिम के सामान खरीदके अपना घर जात रहे लोग. केहू के हाथ में जलेबी के ठोंगा रहे त केहू के हाथ में खिलौना. कुछ मेहरारू तरकारी खरीद के भी ले जात रहे लोग. 

मेला में पहुंचते आपन पसंदीदा चीज खाये खातिर लइका हल्ला मचावे लगलन स. भूलन काका फेर में पड़ गइले कि कवन-कवन चीज एकनी के खियायीं. कवनो जलेबी मांगे त, कवनो चाउमिन. केहू के धेयान इडली के तरफ रहे त केहू छोला-भटूरा खाये खातिर मन चप-चपवले रहे. सब लइकन के डिमांड पूरा करिके भूलन काका सोचले कि अब फूरसत हो गइल. तभिये मनीछपरा गांव के खदेरन सिंह उनका कंधा पर हाथ धरिके कहले 'का हो ककऊ. खाली लइके स के खियाएब. हमरो पर तनी धेयान दी.' भूलन काका एह सब मामला में दरियादिल आदमी ठहरले. कहले 'बताईं खदेरन बाबू! का खायेब.' 

खदेरन सिंह सब मेला घूमत-घूमत जाके जवना ठेला के लगे रोकले ओपर डोसा बेचात रहे. 'ए काका जी. अपना मेला में इहे नया आइटम बा.' 'हा हा हा... अच्छा डोसा खाएब. खा लीं. बढिया आइटम लागी.' भूलन काका के इशारा पर ठेला वाला मसाला डोसा बनाके सांभर-चटनी के साथे खदेरन सिंह के देहलस. खदेरन बाबू डोसा के खूब धेयान से देखे लगले. बड़ा अचरच से उ पूछले 'काका! एकर मुंहवा कांहे खूलल बा. कवनो दिक्कत नइखे नू.' भूलन काका इ बात सुनके हो हो हो करिके हंसत खदेरन सिंह के कंधा पर हाथ धरिके कहले ' ऐ बाबू साहेब! चाहे कवनो उपाय करीं डोसा के मुंह कबो बंद ना होखे. इ पहेली के फेर में मत पड़ीं आ एकरा स्वाद के आनंद लीं. खानपान के नयकी संस्कृति में एगो बात त निमन जरूर बा कि जातीयता और क्षेत्रीयता के दूरी मिट रहल बा. बिहार के लिट्टी-चोखा अब पंजाब, केरल, कर्नाटक से लेकर महाराष्ट्र तक में मिल रहल बा त साउथ के फेवरेट डिश इडली डोसा बिहार के गांव-गांव में मशहूर हो रहल बा.' इ बोलत-बोलत भूलन काका देखले कि खदेरन बाबू अभी तक डोसा के निहारते बाड़े.

लेखिका: चित्रांशी

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