अलीगढ़ रिव्यू: समलैंगिक संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती शानदार फिल्म, मनोज वाजपेयी की बेमिसाल अदाकारी
Advertisement
trendingNow1284495

अलीगढ़ रिव्यू: समलैंगिक संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती शानदार फिल्म, मनोज वाजपेयी की बेमिसाल अदाकारी

निर्देशक हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ किसी एक शहर या सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की सीमाओं में बंधी कोई कहानी नहीं है बल्कि यह किसी स्थान विशेष की सीमाओं से आगे जाकर गहराई से एक विषय पर बात करती है और वह भी देश में समलैंगिकों के अधिकार की बात। ‘अलीगढ़’ एक फिल्म से बहुत आगे जाती है। यह एक सार्वभौम याचिका है समाज के उन लोगों की जो उस मुख्यधारा के जीवन से दूर हैं जिसे बहुसंख्यकों ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है और इस व्यवस्था से लड़ने के लिए उन्हें अदम्य साहस दिखाना होता है और उसकी परिणति भारी कीमत चुकाने में होती है।

अलीगढ़ रिव्यू: समलैंगिक संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती शानदार फिल्म, मनोज वाजपेयी की बेमिसाल अदाकारी

नई दिल्ली: निर्देशक हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ किसी एक शहर या सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की सीमाओं में बंधी कोई कहानी नहीं है बल्कि यह किसी स्थान विशेष की सीमाओं से आगे जाकर गहराई से एक विषय पर बात करती है और वह भी देश में समलैंगिकों के अधिकार की बात। ‘अलीगढ़’ एक फिल्म से बहुत आगे जाती है। यह एक सार्वभौम याचिका है समाज के उन लोगों की जो उस मुख्यधारा के जीवन से दूर हैं जिसे बहुसंख्यकों ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है और इस व्यवस्था से लड़ने के लिए उन्हें अदम्य साहस दिखाना होता है और उसकी परिणति भारी कीमत चुकाने में होती है।

मेहता ने इससे पहले ‘शाहिद’ का निर्माण किया था जो शाहिद आजमी नाम के वकील की जिंदगी पर आधारित थी जिसकी हत्या कर दी जाती है क्योंकि वह उन युवा मुस्लिमों का मुकदमा लड़ता था जिन्हें आतंकवाद के संदेह पर गलती से फंसा लिया गया था। किसी वास्तविक चरित्र को फिल्म में जस का तस उतारने की मेहता की महारत ‘अलीगढ़’ में भी नजर आती है। उन्होंने फिर से एक वास्तविक चरित्र यहां पेश किया है। ‘अलीगढ़’ की कहानी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मराठी के प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र सीरस के जीवन पर आधारित है जो वर्ष 2010 में रहस्यमय हालात में मृत पाए गए थे। विश्वविद्यालय ने उन्हें उनकी यौन अभिरूचि के कारण निष्कासित कर दिया था।

सीरस को उनकी यौन अभिरूचि के लिए ना केवल मीडिया ने निशाना बनाया था बल्कि जिस संस्थान का हिस्सा होने पर वह गौरवान्वित महसूस करते थे, उसने भी उनके पक्ष का ध्यान नहीं रखा।

फिल्म की पटकथा फिल्म के संपादक अपूर्व एम. असरानी ने लिखी है जो किसी व्यक्ति विशेष या किसी विशेष समूह पर उंगली नहीं उठाते हैं बल्कि फिल्म में समाज के चरित्र का चित्रण करते हैं। वह एक ऐसा समाज दिखाने में सफल रहे हैं जो अपने से अलग के प्रति असहिष्णुता से भरा है, जिसकी सोच संकीर्ण और संकोच से परिपूर्ण है। सीरस का चरित्र मनोज वाजपेयी ने निभाया है और इसमें उनकी अभिनय क्षमता का निखार स्पष्ट दिखता है। उनका अभिनय इतना जानदार है कि आप अभिनेता और चरित्र को अलग नहीं कर सकते। उनके हाव-भाव से सीरस का अंतद्वंद झलकता है और अंतत: फिल्म उनके इसी अंतद्वंद में बहुत से ऐसे सवालों को खड़ा करती है जिनका जवाब अभी भी भारतीय समाज ढूंढ रहा है।

 

फिल्म में आशीष विद्यार्थी ने एक वकील का किरदार निभाया है जो इलाहाबाद की अदालत में सीरस का मुकदमा लड़ते हैं और राजकुमार राव ने एक युवा पत्रकार की भूमिका निभाई है जो सीमाओं से आगे जाकर उनकी मदद करते हैं लेकिन यह सब बाहरी लड़ाई लड़ने में उसके मददगार हैं । लेकिन फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण है सीरस का किरदार, जो एक अंदरूनी लड़ाई लड़ रहा है और जिसे बखूबी पेश किया गया है। ‘अलीगढ़’ समलैंगिकों के अधिकार की बात करने का सिर्फ सिनेमाई स्वरूप नहीं है, बल्कि उस समाज का भी चित्रण है जो ऐसे लोगों की जरूरत को नहीं समझता।

 

Trending news