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'आप सबसे बहुत प्यार करता हूं, लेकिन मैं आपकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा हूं. मैं इंजीनियर नहीं सिंगर बनाना चाहता हूं, लेकिन यह बात आपको समझा पाने में सफल नहीं हो पाया...' - 18 साल के स्टूडेंट के सुसाइड नोट का हिस्सा
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हम बच्चों को सबसे होशियार और सफल कैसे बना सकते हैं. यह सवाल इन दिनों सबसे ज्यादा पूछे जाने वाले सवालों में शामिल है. इसकी तुलना में बच्चे कितने खुश हैं, उनकी छुटिटयां कैसे बीत रही हैं, वह अपने दादा-दादी या नाना-नानी के साथ कितना समय बिता रहे हैं, जैसे सवाल आज आउट ऑफ रेंज हो गए हैं. क्या हमारे पास उनकी इच्छाओं और उनके सपनों को साथ देने का वो हौसला है, जो आज किसी भी हालत में सच होती नहीं दिख रही? अगर नहीं तो आपको इस बारे में सोचना होगा. कहीं ऐसा न हो कि ऊपर जिस 18 साल के स्टूडेंट का जिक्र है, उसकी चिंगारी आपके आसपास से होती हुई, आपके घर तक ना आ पहुंचे.
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आज हर कोई बस बच्चों के लिए नए-नए प्लान बनाने और उसके हिसाब से उनको तैयार करने में लगा है. ऐसा नहीं लगता कि हम बच्चों के बारे में नहीं, बल्कि किसी प्रोडक्ट के बारे में तैयारी कर रहे हैं. 'डियर जिंदगी' के पहले लेख में हमने इसी बारे में बात की थी कि बच्चों को प्रोडक्ट जैसा ट्रीटमेंट देना उनके लिए कितना खतरनाक हो सकता है. इस बारे में बड़ी संख्या में पाठकों की प्रतिक्रियाएं हमें मिल रही हैं. उन सभी के सवालों और राय को हम 'डियर जिंदगी' के संवाद में शामिल कर रहे हैं.
बच्चों से बेहिसाब उम्मीदें रखना और प्रोडक्ट ट्रीटमेंट के बारे में सबसे चौंकाने वाली रिपोर्ट मंगलवार को ब्रिटेन से आई है. ब्रिटिश संसद की कॉमन्स एजुकेशन कमेटी ने बताया है कि बच्चों को प्राइमरी लेवल तक केवल अंग्रेजी और गणित जैसे विषय पढ़ाए जाने और स्पोर्ट्स की गतिविधियों से दूर रखे जाने के कारण बचपन बेहद प्रभावित हो रहा है. 10 साल की उम्र से ही इंग्लैंड में बच्चे मनोरोगी बनने की कगार पर पहुंच गए हैं. शारीरिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेने के कारण कम उम्र में ही उन्हें मोटापा जकड़ रहा है जो उन्हें अनेक मस्तिष्क संबंधी बीमारियों में डुबो रहा है.
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रिपोर्ट आगे बताती है कि बच्चों के समग्र विकास के लिए सामाजिक विज्ञान, इतिहास और कला भी पढ़ाए जाने की आवश्यकता है. क्योंकि इन विषयों से बच्चों में परिवार और समाज के प्रति बेहतर समझ विकसित होती है. ब्रिटेन, अमेरिका जैसे देश जहां बच्चे इन परेशानियों की ओर बढ़ रहे हैं, हम उनकी योजनाओं को अधकचरे तरीके से अपनाने पर आमादा हैं. स्कूलों में छुट्टियां अब लगभग खत्म होती जा रही हैं. क्योंकि स्कूल खुद ही हॉबी क्लासेस चला रहे हैं. हर मिनट का पूरा हिसाब है कि बच्चा कहीं सांस अपनी मर्जी से न ले ले. हमने उसके हिस्से की कहानियां, यात्राओं को अभी से उसका करियर बनाने के नाम पर परिवर्तित कर दिया है. यह सब-कुछ हम बच्चे के विकास के नाम पर हड़बड़ी में कर रहे हैं, जबकि हड़बड़ी में किए गए काम के नतीजे कभी अच्छे नहीं हो सकते. इस बारे में थोड़ा स्लो होने की जरूरत है. जैसे प्रकृति कुछ भी अचानक से नहीं करती, उसका हर कदम धीरे-धीरे होता है. प्राकृतिक विकास का मतलब इसीलिए धीरे-धीरे होने वाला सकारात्मक परिवर्तन है. इसमें एक परिवर्तन के साथ अनेक सहायक परिवर्तन होते हैं और धीरे-धीरे यह परिवर्तन बच्चे के विकास का कारवां बनता है.
कबीर ने कितनी खूबसूरत बात कही है..
'धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय.'
इन दिनों हम पर गति का भूत सवार है. गति जीवन की सहायक क्रिया है. जीवन नहीं है. गति को जीवन बना लेने से उसका संस्कार और उसकी गुणवत्ता दोनों पर विपरीत असर पड़ रहा है. बच्चे हमारे जीवन का सबसे कोमल हिस्सा हैं. और हम कोमल हिस्से से ही सबसे अधिक कड़ाई से पेश आ रहे हैं. यही कारण है कि भारत में अब बच्चे, किशोर और युवाओं के साथ माता-पिता के संबंधों में तनाव पैदा हो रहा है. 2015 में देश में 8,934 विद्यार्थियों ने खुदकुशी की. आत्महत्या की कोशिशों की संख्या तो इससे कहीं ज्यादा होने का अनुमान है, क्योंकि इसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता है.
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मेडिकल जर्नल लांसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 15 से 29 साल के बीच के किशोरों-युवाओं में आत्महत्या की ऊंची दर के मामले में भारत शीर्ष के कुछ देशों में शामिल हो गया है. इसलिए बच्चों और युवाओं के बीच तनाव को बेहद गंभीरता से लेने की जरूरत है. बच्चों के साथ खड़े होने का मतलब हमेशा आर्थिक नहीं होता. बल्कि बहुत कम मामलों में आर्थिक होता है. यह सबसे अधिक मानसिक हौसले और समर्थन से होता है. दुनिया में जो कुछ भी, जिस किसी ने भी अब तक हासिल किया है, उसमें सबसे अधिक भूमिका उसके मिले हौसले की थी न कि किसी आर्थिक संबल की.
इसलिए, यह समझना जरूरी होगा कि आपके बच्चों के बीच कुछ ऐसा न चल रहा हो, जो आपकी रेंज से बाहर हो. ऐसा करना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन नामुकिन नहीं..., असंभव तो बिल्कुल नहीं.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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