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दयाशंकर मिश्र.
हमें बचपन से यही समझाया, सिखाया जाता रहा है कि हमारा जन्म इसलिए हुआ कि हम अपने माता-पिता के सपने पूरे करें. असंख्य बच्चों ने ऐसा किया भी लेकिन अब इस आदेश की राह में मुश्किलें आ गई हैं. पहले दुनिया की खिड़की केवल स्कूल और माता-पिता के माध्यम से ही खुलती थी. उनके कथन अंतिम सत्य होते थे. अब यह खिड़की बड़ी होकर दरवाजे के आकार को भी पार कर गई. इंटरनेट, अखबारों ने आम नागरिकों तक वह सूचनाएं पहुंचाने में अहम भूमिका का निर्वाह किया, जिस पर पहले कुछ खास लोगों का अधिकार था. बच्चों के पास अब पूरी जानकारी और सपने चुनने के विकल्प हैं. यह तो खुश होने वाली बात है, इसमें दुविधा क्यों होनी चाहिए. आखिर क्यों इन दिनों घर-घर में इसे लेकर दुविधा और तनाव है.
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इस दुविधा का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन प्रासंगिक उदाहरण आईआईटी से समझिए. इंजीनियरिंग में करियर की चाहत वाले स्टूडेंट्स के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में प्रवेश सपने साकार होने जैसा है. लेकिन पिछले कुछ समय से आईआईटी कैंपस में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने अब इन संस्थानों के प्रबंधन को चिंता में डाल दिया है.
आईआईटी में प्रवेश कितना कठिन है, हम जानते हैं, ऐसे में यहां पहुंचकर स्टूडेंट्स अगर आत्महत्या का रास्ता चुन रहे हैं, तो इसकी वजह क्या है. यहां ऐसा क्या है जो उन्हें मानसिक अवसाद के भवंर में धकेल देता है. अब तक सामने आए इसके कारणों में डिप्रेशन सबसे आगे है. इसी साल आईआईटी, खड़गपुर में अब तक तीन छात्र आत्महत्या कर चुके हैं.
आईआईटी, छात्रों से अधिक माता-पिता के लिए भी एक स्टेटस है. ठीक वैसे ही जैसे आईएएस का क्रेज है. बच्चे के सफल होने में अपने होने का गर्व और कामयाबी का भाव. इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन ऐसा सही किस काम का जो युवाओं की जान ले रहा है. पैरेंट्स को समझना होगा कि आपको जो करना था, आप कर चुके. अपने बच्चों को उस दुनिया में उड़ने दें, जहां की उड़ान वह चाहते हैं. बच्चे की दिलचस्पी सिनेमा में है, लेकिन चूंकि वहां की डगर मुश्किल है (ऐसा आपको लगता है) तो आप उसे मजबूर करते हैं कि चूंकि वह पढ़ाई में अच्छा है, इसलिए आईआईटी में जाए. वहां जाकर पढ़ना आपको सरल लगता है, क्योंकि वह कैंपस की एक सुरक्षित दुनिया में रहता है और उसे वहां से सीधे कंपनी का ऑफर मिल जाएगा! कितना सुरक्षित सोचते हैं, हम बच्चे के बारे में. जबकि वह तो संघर्ष की राह पर चलने को तैयार है.
यहीं से बच्चे दुविधा के जाल में फंसते हैं. वह आपको न नहीं कहते, क्योंकि आपको दुखी नहीं करना चाहते हैं. उनको यह भी भरोसा है कि आप ही उनके लिए सबसे बेहतर सलाहकार हैं. इसलिए वह आपके बताए रास्ते पर चल पड़ते हैं, लेकिन अधिक दूर चल नहीं पाते. उनके असली सपने उनकी आंखों में तैरते रहते हैं और उनका जीना मुश्किल कर देते हैं. किसी एक रात, किसी अकेली दोपहर वह ऐसा कठोर फैसला कर लेते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए. जबकि आत्महत्या कोई रास्ता नहीं है, वह अपने चाहने वालों को सबसे बड़ी सजा है. कोई अपने माता-पिता, दोस्तों को ऐसी सजा दे रहा है तो जाहिर है, उसके भीतर भी कुछ गहरा टूट रहा होगा.
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डियर जिंदगी, एक ऐसी ही कोशिश है, दिल के रिश्तों, मानसिक तनाव की मुश्किलों से आजादी की. जिंदगी हर हाल में एक खूबसूरत ख्याल है. इसे अपने दिमाग और घर की दीवारों पर टांग दीजिए. जिंदगी के ख्याल को इतना रोशन कर लीजिए कि उसमें किसी भी उदासी के ख्याल का अंधेरा दाखिल न हो पाए. पैरेंट्स ने बच्चों को सुविधाओं के पंख तो दे दिए हैं लेकिन वे उड़ें कैसे. यह अभी भी वही तय करना चाहते हैं. जो भी जिस पेशे में सफल है, वह बच्चों को उसी राह पर आगे ले जाना चाहता है. यह जिद, केवल हमारी आंखों, दिमाग का भ्रम है कि बच्चे के लिए सबसे बेहतर आप निर्णय ले सकते हैं. जरा याद कीजिए, कितने फिल्मकारों, संगीतकारों, खिलाड़ियों, लेखकों और वैज्ञानिकों को उनके पैरेंट्स यह बनाना चाहते थे. बहुत ही कम. ज्यादातर उन्हें एक सुरक्षित करियर देना चाहते थे. अगर इन सबने अपने पैरेंट्स की बात मान ली होती तो हम कितनी ही महान खोजों, सिनेमा, खेल और ज्ञान से वंचित रह जाते.
बच्चों के पंख मजबूत करने में उनकी मदद करिए और उसी आसमां में उड़ने दीजिए, जहां वह चाहें. उसके लिए सुरक्षित संसार बनाने की चाह में उसके जीवन पर संकट मत खड़ा कीजिए.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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