डियर जिंदगी : बच्‍चों को मैनेजर नहीं पैरेंट्स चाहिए
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डियर जिंदगी : बच्‍चों को मैनेजर नहीं पैरेंट्स चाहिए

अनुशासन स्‍कूल की सबसे अहम कड़ी है लेकिन रेस नहीं.

'पापा, आपको अपने ऑफि‍स में सबसे ज्‍यादा सैलरी मिलती है? नहीं न! मैंने इसलिए पूछा, क्‍योंकि मुझे भी क्‍लास में सबसे अधिक नंबर नहीं मिलते, ले‍किन हमेशा मुझसे ज्‍‍‍‍‍‍यादा की अपेक्षा होती है'.

बच्‍चों के बदलते तेवर वाला यह कार्टून इन दिनों सोशल नेटवर्क पर लोकप्रिय है.

पहली नजर में यह परंपरागत पैरेंट्स को विचलित कर सकता है, लेकिन यह बच्‍‍‍‍‍‍चों के मिजाज को व्‍यक्‍त करने वाला है. इन दिनों बच्‍चे ऐसे ही सवाल कर रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह, उनका माइंडसेट या यूं कहें कि प्रोग्रामिंग है. हमने उनके दिमाग की फ्रि‍क्‍वेंसी सेट कर दी है, जिससे वे कम्प्यूटर की तरह बिहेव करने लगे हैं. हर बात में हिसाब. स्‍कूल, कोचिंग, होमवर्क यहां तक कि इसके बाद उनको हॉबी क्‍लास में भी जाना होता है. हर मिनट का हिसाब एक्‍सल शीट में देना होता है. जब बच्‍चे के दिमाग में 24 घंटे आप डाटा फीड करेंगे तो वह उसी भाषा में रिस्‍पांड करेगा.

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डियर जिंदगी सीरीज के पहले लेख में हमने 'द काइट थेरेपी' की बात की थी. मेरे इनबॉक्‍स में इस पर सबसे ज्‍यादा प्रतिक्रिया देने वाले पाठकों की औसत उम्र 20 साल है, जिन्‍होंने लिखा है कि उन्‍हें इसी तरह का रवैया पसंद है, जबकि ज्‍‍‍‍‍‍‍‍यादातर माता-पिता को सख्‍त रवैया पसंद है. वह हमसे मशीन जैसी अपेक्षा रखते हैं, हर बात में दूसरों से तुलना और जरूरत से ज्‍यादा दखल. दूसरी ओर कुछ माता-पिता ने लिखा है कि वह अपने पैरेंट्स की तुलना में अपने बच्‍चों के साथ बेहद नम्र हैं लेकिन बच्‍चे उनकी बात ही नहीं सुनते.
 
मैंने उन्‍हें लिखा, जब आप बाजार जाते हैं तो बीस साल पहले वाले दाम पर चीजें खरीदते हैं या आज की कीमत पर! तुलना सबसे बड़ी नकारात्‍मक आदत है. बच्‍चों की जिंदगी की सबसे बड़ी शत्रु. हम सबको प्रकृति ने अलग-अलग बनाया है, सबके भीतर कुछ ऐसा है जो दूसरे में नहीं है, फिर तुलना क्‍यों? जीवन में धूप का अपना महत्‍व है और छांव का अपना. बारिश-बारिश है. और गर्मी-गर्मी. जैसे हम हर मौसम का सामना करते हैं. उसके अनुसार विविध फलों का मजा लेते हैं, वैसे ही हमें अपने बच्‍चों की खूबियों का आनंद लेना चाहिए. उन्हें समझकर उनके अनुसार बच्चे को आगे बढ़ने में सहयोग करना चाहिए.
 
हम सबको स्‍कूलों में हर महीने पीटीएम नामक कड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ता है. मैंने अपनी बेटी का पिछला स्‍कूल उसके शिक्षकों के रवैए से परेशान होकर बदला. एक दिन उसकी टीचर ने मुझसे नाराज होकर कहा, 'आपकी बेटी कहती है, हमें अच्‍छा इंसान बनने पर जोर देना चाहिए. मैं नंबर्स के पीछे नहीं भाग सकती. पापा ने यही समझाया है.' मैंने टीचर से कहा कि इसमें दिक्‍कत क्‍या है! टीचर ने कहा, इससे क्‍लास का अनुशासन भंग होता है. बच्‍चे में प्रतिस्‍पर्धा की भावना कम हो रही है. जरा ध्‍यान दीजिए, बच्‍चे की उम्र मात्र 6 साल. बाद में इसी तरह की कुछ और शिकायतों के बाद हमने स्‍कूल बदलने का फैसला किया. खुशी है नया स्‍कूल उसे बेहतर समझता है.

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परवरिश पर किताबों की भीड़ के बीच एक शानदार किताब  मशहूर अभिनेत्री सोनाली बेंद्रे बदल की मॉडर्न गुरुकुल है. यह  वैसे तो सभी पैरेंट्स के लिए उपयोगी है लेकिन विशेषकर वर्किंग पैरेंट्स के लिए बेहद मददगार है. 

स्‍कूल बदलने जैसे मुश्किल निर्णय और शिक्षकों के कठोर रवैए के बाद भी मैं और मेरी बेटी दोनों इस राय पर कायम हैं कि हमें अपनी समझ और मनुष्‍यता पर सबसे ज्‍यादा काम करना है. मेरा विनम्र अनुरोध है कि इस बात को बच्‍चे के फोकस, अनुशासन और मेहनत से न जोड़ा जाए. अनुशासन स्‍कूल की सबसे अहम कड़ी है लेकिन रेस नहीं. मेरा विरोध अनुचित रेस को लेकर है, क्‍योंकि ऐसी अंधी दौड़ से बच्‍चों में उन गुणों का विकास रुक जाता है, जो हमें बेहतर मनुष्‍य बनाने के लिए जरूरी हैं.

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भोपाल जैसे परंपरागत और संयुक्‍त परिवार वाले शहर में 2016 में एग्जाम और रिजल्‍ट के बीच लगभग 60 बच्‍चों ने सुसाइड किया. मुझे डर है कि इस साल यह संख्‍‍‍‍या कहीं और ज्‍यादा न हो जाए. स्‍कूल और समाज के पास इस मामले से निपटने की कोई तैयारी नहीं दिखती, जब‍कि हर बरस यह संकट बढ़ रहा है. हमें याद रखना चाहिए कि झील किनारे काई एक दिन में नहीं जमती, लेकिन उस पर एक बार भी अगर पांव पड़ जाए और कोई संभालने वाला न हो, तो फिसलकर गिरने में एक पल भी नहीं लगता. बच्‍चों का आत्‍महत्‍या की ओर जाना भी पत्‍थर पर काई जमने जैसी धीमी, लेकिन निरंतर प्रक्रिया होती है. बच्‍चे में हीनता की ग्रंथि का विकास एक दिन में नहीं होता, लेकिन इसे दूर करने में बरसों लग सकते हैं. 

इसलिए बच्‍चों से संवाद में, यहां तक कि मजाक में भी संवेदनशीलता का ध्‍यान रखें. ऐसी बात से बचिए जो उसकी कमजोर कड़ी है. उसे प्रेरित करिए, चुनौती के लिए तैयार कीजिए, लेकिन सबके सामने उसकी आलोचना से बचें. उससे अकेले में, प्‍यार और स्‍नेह से समझाएं. सबके सामने उसकी आलोचना उसके कोमल मन, आत्‍मविश्‍वास को चोट पहुंचा सकती है. बच्‍चों की क्षमता जाने बिना, उनकी सहजता समझे बिना उन्‍हें रेसिंग सेंटर में उछाल देना, गलती नहीं, अपराध है. हम सब कहते हैं- बच्‍चे अनमोल हैं, सच कहते हैं. बस जो हम कहते हैं, वही करना है. आज जो पिछड़ रहा है, वह कल आगे नहीं जाएगा, इस आशंका से बाहर आइए.

मेरी बात ऐसे मत मानिए, सबूत के साथ मानिए. नोबेल पुरस्‍कार विजेताओं की वेबसाइट विजिट कीजिए. उनके जीवन परिचय पढ़ि‍ए उनमें से 80 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके स्‍कूली शिक्षकों ने उन्‍हें कमजोर ही नहीं कहा था बल्‍कि पूरी तरह खारिज कर दिया था. इसके बाद भी वे इस‍लि‍ए बचे रहे, क्‍‍‍‍‍‍‍‍योंकि उन्‍हें उनके परिवार का साथ मिला था. 

दुर्भाग्‍य से हमने खरगोश और कछुए की कहानी तो खूब सुनी है, लेकिन उसे जिया कभी नहीं. उसे गुना कभी नहीं. जिंदगी गेंदे और गुलाब का पौधा उगाना नहीं है, वह आम की खेती है. धीरे-धीरे ही फल देगी. बच्‍चों को आपके उस प्रेम और असीम धैर्य की जरूरत है, जिसका अक्‍सर हम दावा करते हैं. अमरीशपुरी वाली 'परवरिश' के दिन अब नहीं रहे. बच्‍चों को तौलना बंद कीजिए. उनमें अपने सपने खोजना भी बंद कीजिए. जीवन की धूप में उनकी छांव बनकर उनके साथ चलिए...

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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