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'मैं इस नौकरी से बोर हो गई हूं. यहां कुछ भी क्रिएटिव करने को नहीं है. हर दिन वही काम. जबकि मैं तो कुछ ऐसा करना चाहती हूं, जिससे दुनिया को मेरे बारे में कुछ पता चले. इससे मैं बहुत अपसेट हूं, मेरे करियर की शुरुआत खराब हो गई है'
देश के सबसे ज्यादा सुने जाने वाले एफएम चैनल में से एक होनहार, प्रोफेशनल स्क्रिप्ट राइटर का फोन कल शाम मेरे पास आया. यह उनकी पहली नौकरी है. उसने खुद चुनी है. कई प्रतिभाशाली स्टूडेंटस को पीछे छोड़कर. मैंने उससे जो कुछ कहा, आपसे वही शेयर कर रहा हूं.
यह मानते हुए कि यह अधिकांश युवाओं, प्रोफेशनल्स की जिंदगी से जुड़ा सवाल, डिस्कशन है. मैंने कहा...'आप वहां का सारा काम सीख गई हैं. आप अपने एफएम के लिए सबसे जरूरी बन गई हैं. आपके क्रिएटिव आइडियाज और क्रिएटिव राइटिंग के बारे में सभी जान गए हैं. आपके काम की धूम मची हुई है. आपको पता है कि अमेरिका, यूरोप में एफएम का स्टेटस क्या है. आपकी स्क्रिप्ट कितनी बार सराही गई'.
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'नहीं, नहीं, सर अभी ऐसा कुछ नहीं हुआ है, उसने मुझे टोका. अभी तो सब समझना ही शुरू किया है. बस दो महीने तो हुए ही हैं. मुझे अभी कुछ खास करने को नहीं मिला है'
फिर बोरियत कहां से आ गई. एस.एस. राजामौली को 'बाहुबली' बनाने का मौका कितने वर्षों की प्रतीक्षा और संघर्ष के बाद मिला है, अगर हम यह समझ लें तो कभी बोर नहीं हो सकते. दरअसल हम केवल सफलता को देखते हैं, अतीत के कठोर संघर्ष और बिना बोर हुए डटे रहने के हुनर की कोई बात नहीं करता. हर कोई एक्सक्यूज की गठरी लिए भाग रहा है.
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बोरियत एक 'कूल' माइंडसेट है. काम मत करिए, बस उसकी फिक्र करिए. काम करने के माइंडसेट में रहिए. और कहते रहिए कि बोर हो रहा हूं, यह एक ऐसा झूठ है, जो इन दिनों खुद से सबसे ज्यादा बोला जा रहा है. कलाकार, वैज्ञानिक, खिलाड़ी, नेता, स्टूडेंट कभी बोर हो नहीं होते. यह बताता है कि हर विधा में जानने, करने को अनंत है.
मैंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा 'सब कुछ नहीं सीखा है तो सीखिए न. अपना पूरा ध्यान, जितनी भी देर आप ऑफिस में हैं. सौ प्रतिशत दीजिए. जिस दिन लगे कि अब सीखने को कुछ नहीं बचा है. उसी दिन वहां से निकल आइए. लेकिन इस एक शर्त का पालन पूरी ईमानदारी से करना है कि अब सीखने को कुछ नहीं बचा'.
हमें समझना होगा कि इस बोरियत नाम की सबसे बड़ी बीमारी का बस यही एक ट्रीटमेंट है. एक छोटी सी शर्त. बस कुछ सीख लेने की, ईमानदार शर्त. जिसका हम अक्सर पालन नहीं करते. हमें चंद ही दिनों में लगने लगता है कि हम तो सब सीख गए हैं. यह विचार हमें अपने काम पर फोकस करने ही नहीं देता. क्रिएटिव हो जाना, उसका मौका मिलना एक दिन में अचानक होने वाली बात नहीं है. यह निरंतर प्रयास, कठिन परिश्रम और अपने काम में निष्ठा से पैदा होने वाला हुनर है.
आप पीवी सिंधु, ऋषभ पंत, दीपा कर्मकार, विराट कोहली, निसाबा गोदरेज, झूलन गोस्वामी, साक्षी मलिक से तो परिचित होंगे ही. मैंने जानबूझकर ऐसे नाम चुने, जो इन दिनों चर्चित हैं. जरा सोचिए, यह सभी जो कर रहे हैं, क्या उसके पहले किसी ने नहीं किए. सैकड़ों-हजारों ने किए हैं. लेकिन यह इसलिए चर्चा में हैं क्योंकि इन्होंने पहले अपनी लगन और निष्ठा से वहां प्रवेश किया, जहां तक राउंड में पहुंचाना होता है, जैसे आपकी पहली नौकरी. उसके बाद इसमें कठोर परिश्रम और सबकुछ सीख लेने का फॉर्मूला मिलाया. जिसकी हमने ऊपर बात की थी.
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उसके बाद कहीं जाकर उन्हें अपनी क्रिएटीविटी दिखाने का मौका मिला. अपने पसंद के शॉट, दांव, काम करने की आजादी. क्रिएटिविटी का दूसरा नाम... अपने भीतर के बेस्ट को बाहर रख देना है. क्या कभी आपने सोचा कि सचिन तेंदुलकर बोर नहीं होते होंगे. दो दशकों तक हर दिन वही मैदान, बैट और लोगों की अपेक्षा. आलोचना के तीर.
मुझे पूरी उम्मीद है कि करियर के पहले असाइनमेंट पर गई मेरी इस युवा रीडर, प्रशंसक के संवाद से आपको भी कुछ मदद मिलेगी. बस शर्त एक ही है, पूरी ईमानदारी से इस सवाल का जवाब 'अब यहां सीखने को कुछ नहीं बचा.'
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)