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भारत में पाए जाने वाले 'डर' में सबसे बड़ा है, लोग क्या कहेंगे! यह डर भारतीयों की चेतना में बहुत गहरा बैठा हुआ है. यह हमारे साहसी, इनोवेटिव होने में सबसे बड़ी बाधा. इसके कारण हम बने-बनाए रास्तों पर चलते रहते हैं. लीक से बंधे हुए.
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रिजल्ट के इस जानलेवा मौसम में स्टूडेंट्स की आत्महत्या के पीछे भी यही सबसे बड़ा कारण है. यह डर भी किनसे, उनसे ही जिन्हें हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं! हम जिनके संपर्क में सबसे ज्यादा रहते हैं. उनसे, उनके दूसरों से किए गए कथित प्रतिष्ठापूर्ण वादों का नकली डर. नकली, इसलिए क्योंकि स्टूडेंटस के ज्यादातर वादे रिजल्ट से जुड़े होते हैं. परीक्षा परिणाम से जुड़े होते हैं. जबकि किसी भी परीक्षा का परिणाम आपके हाथ में होता ही नहीं है और जब परिणाम ही हाथ में न हो, तो उसके लिए कोई वादा कैसे किया जा सकता है. हमने बच्चों का बेस पूरी तरह स्कूली और रिजल्ट ओरिएंटेड बना दिया है. यह जानते हुए भी कि हर बच्चा दूसरे से जुदा है. उसकी अपनी विशेषताएं हैं, हम उसे रिजल्ट की आग में झुलसाने पर तुले हुए हैं.
'डियर जिंदगी' : क्या आपका बच्चा आत्महत्या के खतरे से बाहर है..
अपने समीप हम ऐसे कितने माता-पिता को जानते हैं, जो बच्चों के खराब रिजल्ट वाले दिन प्यार के मूड में मिलते हैं. खराब रिजल्ट को भी सेलिब्रेट करते हैं. कितने मम्मी-पापा टीचर की लगभग फर्जी शिकायतों और अपेक्षाओं में नाकाम बच्चे के पक्ष में अपना मानसिक संतुलन बनाए रख पाते हैं. बहुत ही कम. इसका कम होना ही बच्चों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण है.
स्कूल में माता-पिता के साथ होने वाली बैठकें, जिन्हें हम पीटीएम के नाम से जानते हैं, अनेक मौकों पर बच्चों के लिए परेशानी खड़ी करने वाली होती हैं. टीचर की शिकायतों के बाद यह पैरेंट्स के बीच एक दूसरे के बच्चे के साथ होने वाली तुलना के सत्र बड़े ही भयानक होते हैं. मम्मियों के 'तुलना' सेशन बच्चों के लिए बेहद ही आक्रामक और परेशानी वाले होते हैं.
इसके साथ ही यह भी देखा गया है कि जाने-अनजाने पैरेंट्स, पड़ोसी भी एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में अपने बच्चों को भी झोंक देते हैं. रिजल्ट में खास नंबर आने पर वादे की घोषणा कर देते हैं. रिश्तेदारों का जन्म तो खैर कम नंबर लाने वाले बच्चों का जीवन नासुर बनाने के लिए ही होता है. शिक्षक तो खैर इस कला में निपुण ही होते हैं. यह सब मिलकर एक ऐसा वातावरण बना देते हैं, जिसमें बच्चों का आत्मविश्वास दम तोड़ देता है. वह खुद को इतना अकेला और अपमानित महसूस करने लगता है कि उसे आत्महत्या ही अंतिम विकल्प लगता है.
बच्चों के भीतर यह धारणा घर कर गई है कि वह परीक्षा देने नहीं बल्कि प्रतिष्ठा की जंग लड़ने जा रहा है. उसकी एक गलती उसके परिवार के सम्मान, सपनों को चकनाचूर कर देगी. इसका एक दुखद प्रमाण बीते दिनों एमपी में देखने को मिला. यहां एक बच्चे ने तीन विषयों में विशेष योग्यता के बाद भी आत्महत्या कर ली. क्योंकि उसके दोस्तों और माता-पिता से किए वादों के अनुसार उसे 90 प्रतिशत अंक लाने थे जबकि वह 74 प्रतिशत ही ला पाया.
इसलिए, यह बेहद जरूरी है कि कोई भी रिजल्ट क्यों न हो, उसे दूसरे से न जोड़ें. उसमें तुलना के रूखे और जानलेवा रंगों की मिलावट न करें. बच्चा आपका है, हर हाल में, सफल और असफल दोनों ही. उसे यह बात मुझसे भी ज्यादा अच्छे से केवल आप समझा सकते हैं, क्योंकि वह आपसे ही ज्यादा प्यार करता है.
तो समझाइए और शेयर करिए . वह सब जो उसे जिंदगी की कठिन फिसलन में अपने पांव जमाने में मदद कर सके. जिंदगी को हर हाल में 'डियर 'बनाएं, उसके लिए सफलता की प्रतीक्षा न करें, वह तो जिंदगी के सफर में बस एक पड़ाव है, मंजिल नहीं. मंजिल केवल 'डियर जिंदगी' होनी चाहिए.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)