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किसी भी रिश्ते में असली सॉरी को स्वीकार करना इतना भी मुश्किल नहीं है. जितना इन दिनों देखने को मिल रहा है. बस 20 सेकंड इस छोटी भावुक, प्रेरक कहानी को दे दीजिए..
बेटे की गलती से बिजनेसमैन पिता को काफी नुकसान हुआ. नाराज पिता ने बेटे को कुछ कड़वी बातें कह दीं. बेटा रूठकर शहर चला गया. कई साल बीत गए. उसे गलती का एहसास हुआ. लौटने का मन बना. लेकिन पिता की कठोरता का डर बाकी था. उसने चिट्ठी लिखी. मैं घर आ रहा हूं, अगर मुझे आपने माफ कर दिया हो तो रेल लाइन के पास ही जो पीपल है, उस पर एक झंडा लगा देना. अगर झंडा मिला तो मैं स्टेशन पर उतर जाऊंगा, नहीं तो सीधे निकल जाऊंगा.
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स्टेशन पास आने पर उसने खिड़की के पास बैठे यात्री को सारी बात बताते हुए कहा, अगर पीपल पर झंडा न हो, तो मुझे बता देना. मैं नहीं उतरूंगा. स्टेशन नजदीक आते ही उस यात्री की आंखे नम हो गईं, भावुक हो गया. घर लौटने वाले ने पूछा, क्या हुआ? यात्री ने आंखों की नमी को रुमाल का सहारा देते हुए कहा.. पीपल दिखाई ही नहीं दे रहा, वहां इतने झंडे लगे हैं, तुम जल्दी से उतरने की तैयारी करो, ट्रेन यहां थोड़ी ही देर रुकती है.
रेत के टीले तो हवा से इधर-उधर बदलते रहते हैं, लेकिन रेगिस्तान कभी नहीं बदलता. इसी तरह माता-पिता, पति-पत्नी, दोस्तों का प्यार भी नहीं बदलता. हां उस पर वक्त की धूल जमा हो जाती है, बस उसे हटाना होता है.
जो यह धूल जितनी हटाता रहे, वह उतना ही खुश रहेगा. क्षमा, माफी असल में एक जीवनशैली है. जबकि ऐसा नहीं कर पाना और उस बोझ, चिंता को उठाए घूमना दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा देने जैसा है. यह यूनिवर्सल बीमारी है, जो असल में सबसे अधिक हानि माफ न कर पाने वाले को ही पहुंचाती है.
'एक ही शहर में रहते हुए, एक दूसरे के इतने पास होते हुए. तुम कभी उससे मिले नहीं. कभी ऐसा नहीं लगा कि तुम्हें उससे बात करनी चाहिए, जबकि तुम कितने अच्छे दोस्त थे, एकदम 'दिल चाहता है' जैसे दोस्त. तुमने यह फिल्म भी उसके साथ देखी थी.'
विदेश से दशकों बाद लौटे एक दोस्त ने कॉफी हाउस में दूसरे से पूछा. 'मैने सोचा तो बहुत लेकिन मैं उसे माफ नहीं कर पाया. स्कूल के अंतिम दिनों का यह झगड़ा, आज तक हमारे बीच है'. उसने कुछ अनमने मन से कहा. जिन दोस्तों का किस्सा आप पढ़ रहे हैं, वह दोनों 40 प्लस हैं. जिस उम्र में इनका झगड़ा हुआ था, अब उनके बच्चे जल्द ही इस उम्र में पहुंच जाएंगे.
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दोनों अब तक बरसों पुराने विवाद को लादे फिर रहे हैं. यह बाहर से न दिखने वाला वजन है, लेकिन इसने दिमाग में जगह घेर रखी है. और दिमाग में घेरी जगह का उपयोग सही काम के लिए न हो तो यह तनाव पैदा करेगा ही. यह उन दोनों ने एक दूसरे के साथ ही नहीं किया है, बल्कि यह उनकी आदत में आ गया है. अपनी इस माफ न कर पाने की आदत के कारण उनके दूसरों के साथ रिश्तों में भी बहुत परेशानियां हैं. दोनों का निजी जीवन परेशानियों से घिरा है. इनमें से एक का तलाक हो चुका है और दूसरे का जीवन कम से कम सामान्य नहीं कहा जा सकता.
दरअसल हमारी पहचान एक ना माफ करने वाले समाज के रूप में रही है. हमने स्कूलों में शिक्षकों को माफी की जगह बच्चों को पीटते पाया. घर में यही काम बड़ों को करते देखा. जहां-जहां जिसके पास अधिकार है, अक्सर हमने देखा कि उसका सजा पर सौ प्रतिशत और माफी पर जीरो ध्यान है. इस तरह हम एक सजा प्रिय समाज की रचना करते गए.
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इधर बीते दस वर्षों में स्कूलों का माहौल कुछ बदला है, वहां शिक्षकों की हिंसा कम हो रही है, तो उम्मीद करनी चाहिए कि शायद हम सौ पचास बरस बाद मोटे तौर पर बेहतर समाज बन पाएं. माफ न करने की आदत असल में एक मनोविकार भी है. जब यह हमारे अंदर घर कर जाता है, तो इसकी रेंज में बच्चे, दोस्त, रिश्तेदार, ऑफिस के सहकर्मी सब आ जाते हैं.
इसलिए सॉरी को स्वीकार करने की आदत बनाइए. माफ करना शुरू कीजिए, क्योंकि यह किसी दूसरे के लिए नहीं बल्कि अपने को खुश रखने, तनाव मुक्त रखने की दिशा में उठाया गया, सबसे जरूरी कदम है.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)