डियर जिंदगी : रिजल्ट हमारा दोस्त, कभी बुरा नहीं होता
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डियर जिंदगी : रिजल्ट हमारा दोस्त, कभी बुरा नहीं होता

हम भूल गए हैं कि बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं. हमें उनका साथ हर हाल में देना है. चाहे वह कितने ही असफल क्यों न हो जाएं.

सीबीएसई बोर्ड की 12वीं का रिजल्‍ट आने के बाद हम ऐसे बच्‍चों की सफलता की कहानियां बताने, सुनने में व्‍यस्‍त हैं, जिन्‍होंने लगभग 100 प्रतिशत अंक हासिल कर लिए हैं. यह रिजल्‍ट का बहुत छोटा हिस्‍सा है, इसका एक बड़ा हिस्‍सा ऐसे बच्‍चों से भरा पड़ा है, जो 80 या 90 प्रतिशत से अधिक अंक आने पर दुखी हैं तो उससे कम वालों की मनोदशा तो सहज ही समझी जा सकती है. ऐसे में एक बार फि‍र 'डियर जिंदगी' में हम उन बातों की चर्चा करेंगे, जो सीधे हमारे घर, परिवार और समाज से जुड़ी हैं. जिससे रिजल्‍ट से होने वाले तनाव कम हों, आत्‍महत्‍या को रोका जा सके, जो कि डियर जिंदगी का मूल उद्देश्‍य है. 

याद कीजिए, उन दिनों को जब आज के माता-पिता स्‍कूल में हुआ करते थे. तब भी स्‍कूल में अच्‍छे नंबर लाने वाले बच्‍चों की तस्‍वीरें अखबार में प्रकाशित होती थीं. लेकिन स्‍टूडेंट्स की आत्‍महत्‍या की खबरें बेहद कम हुआ करतीं थीं, तनाव भी मानो बस कुछ दिनों का मेहमान होता था जो कुछ दिनों में छू-मंतर हो जाया करता था. तो बीते दस-बीस बरसों में ऐसा क्‍या हुआ, जिसने बच्‍चों की जिंदगी पर ग्रहण लगा दिया.

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इसके दो सबसे बड़े कारण हैं, बाकी सहायक हैं. पहला, बच्‍चों के बीच जरूरत से ज्‍यादा कॉम्पिटिशन. इसके कारण उनके दिमाग में हर समय बस यही चल रहा होता है कि अगर मैं जरा भी पीछे रहा तो मेरा करियर चौपट. मेरे सपने चकनाचूर. इस पर हमें थोड़े आराम, सुकून से बात करने की जरूरत है. यह कॉम्पिटिशन सिलेबस से नैतिक शिक्षा के गायब होने, व्‍यवहार से आपसी प्रेम के विलुप्‍त होने से भी डरावना हुआ है. 

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दुनिया की मिसालें छोडि़ए. अपने देश की ही बात करिए. साइंस, स्‍पोर्ट्स, सिनेमा, साहित्‍य और बिजनेस से लेकर सपनों की दुनिया के सभी क्षेत्रों की सबसे सफल शख्सियतों की सूची बनाइए, ज्‍यादातर बच्‍चे वही मिलेंगे जो स्‍कूल में बहुत अच्‍छा नहीं कर पाए. इसका यह अर्थ नहीं कि वह औसत छात्र थे, अपनी प्रतिभा के मायने में, बल्कि वह औसत इसलिए थे, क्‍योंकि उनके समाज और शिक्षकों के पास उनकी प्रतिभा को परखने-निखारने के माध्‍यम नहीं थे. यह सभी लोग अपने स्‍कूल में असफल थे, जीवन में नहीं. भारत से आगे बढ़ें तो नोबेल पुरस्‍कार विजेताओं की सूची ऐसी हस्‍तियों से भरी पड़ी है, जिन्‍हें स्‍कूल ने असफल करार दे दिया था.  

यहां थोड़ा ठहर कर यह सोचने की जरूरत है कि पहले स्‍कूल में असफल बच्‍चे के दिमाग में तनाव क्‍यों अधिक दिन नहीं ठहरता था. इसलिए, क्‍योंकि स्‍कूल के रिजल्‍ट जीवन का स्‍थाई भाव नहीं होते थे, वह सब संचारी भाव होते थे, यानी आए और गए. रिजल्‍ट की छाया बच्‍चों के जीवन पर कम से कम पड़ती थी. तब और अब में मूल अंतर यही है. और बच्‍चों में बढ़ते डिप्रेशन और आत्‍महत्‍या का दूसरा कारण भी यही है. पैरेंट्स का बच्‍चों के साथ कनेक्‍ट होना. पहले पैरेंट्स रिजल्‍ट के उन्‍माद में कम से कम दिखते थे. अब वह कहीं ज्‍यादा फिक्रमंद हो गए हैं, क्‍योंकि कोचिंग क्‍लॉसेस और स्‍कूल में अपने को बेस्‍ट घोषि‍त करने की होड़ ने उनके अंदर यह डर भर दिया है कि उनके बच्‍चे के पास जीवित रहने का एक ही विकल्‍प है, और वह है, 'द बेस्‍ट'. यह कथित 'द बेस्‍ट' की थ्‍योरी बच्‍चों के जीवन की सबसे बड़ी दुश्‍मन है. 

हम भूल गए हैं कि बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं. हमें उनका साथ हर हाल में देना है. चाहे वह आज कितने ही असफल हो जाएं, उनका रिजल्‍ट आपकी नजर में कितना ही खराब क्‍यों न हो, सबसे पहले हमें अपने और बच्‍चे के बीच प्रेम की डोर इतनी मजबूत करनी होगी कि उसे कोई मार्कशीट न तोड़ सके. किसी भी रिजल्‍ट को हम बच्‍चे के जीवन पर भारी पड़ने का हक नहीं दे सकते. तभी घर, परिवार और समाज का एक स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न जीवन जी सकेंगे. जिंदगी को डियर बनाने का इससे सरल, सुलभ दूसरा कोई और रास्‍ता नहीं है.

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ऐसे पैरेंट्स को सलाम! जो कम नंबर के बाद बच्‍चों के साथ सेलिब्रेट करने जा रहे हैं. बच्‍चे का हाथ और साथ इतनी मजबूती से पकड़े हैं कि तनाव तो दूर उसकी छाया तक उनके पास से नहीं गुजर सकती. बच्‍चों का साथ दीजिए, आशा दीजिए.. यही इस समय का सुख है और जो आज इस सुख से दूर रहेगा, उसे आगे चलकर दुखों की छाया से निकलना मुश्किल हो जाएगा. बच्‍चों, हमें हर हाल में जीना है, यह रिजल्‍ट जीवन का पहला और मामूली स्‍पीड ब्रेकर है. यह समय जीवन के खूबसूरत और घने, मुश्किल अवसरों में प्रवेश करने का है, खुद को हौसले की नाव पर सवार करने का है...यह डरकर पीछे देखने का नहीं, बस आगे बढ़ने का शुभ मुहूर्त है. हारना नहीं है, डरना नहीं. बस चलना है, हर हार से लड़कर फि‍र चलना है. तब तक चलना है, जब तक मंजिल खुद तुम्‍हें हाथ पकड़कर गले न लगा ले.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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