भारतीय नदियों में विदेशी मछलियों की तादाद बढ़ने से देसी मछलियों का अस्तित्व खतरे में
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भारतीय नदियों में विदेशी मछलियों की तादाद बढ़ने से देसी मछलियों का अस्तित्व खतरे में

आकार में भी स्थानीय मछलियों के मुकाबले विदेशी मछलियां कहीं बड़ी होती हैं. मत्स्य पालन के लिए यह उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन नदी में चले आने से इनके और भी कई नुकसान होते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रयागराजः गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले कई वर्षों के दौरान विदेशी प्रजाति की मछलियों की संख्या बढ़ने से कतला, रोहू और नैन जैसी देसी प्रजाति की मछलियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, (सिफरी, इलाहाबाद केंद्र) के प्रभारी आर.एस. श्रीवास्तव ने मीडिया को बताया, "मछली की विदेशी प्रजाति खासकर तिलैपिया और थाई मांगुर ने गंगा नदी में पाई जाने वाली प्रमुख देसी मछलियों की प्रजातियों कतला, रोहू और नैन के साथ ही पड़लिन, टेंगरा, सिंघी और मांगुर आदि का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है."

उन्होंने बताया कि मछली पालन के लिए विदेशों से मछली के बीज लाए जाते हैं और उन्हें गंगा के आसपास के तालाबों में पाला जाता है. मछली पालन के लिए यह मछलियां अच्छी मानी जाती है, क्योंकि यह बहुत तेजी से बढ़ती हैं, लेकिन तालाबों से यह मछलियां गंगा नदी में पहुंच जाती हैं और स्थानीय मछलियों का चारा हड़प करने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं. 

श्रीवास्तव ने बताया कि हरिद्वार में यह मछलियां सस्ते दाम पर मिल जाती हैं, इसलिए लोग विदेशी प्रजाति की मछलियां खरीदकर गंगा नदी में छोड़ देते हैं क्योंकि वहां मछलियों को नदी में छोड़ना शुभ माना जाता है. लेकिन पुण्य कमाने के लिए नदी में छोड़ी जाने वाली यह मछलियां स्थानीय मछलियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन चुकी हैं.

उन्होंने बताया कि विदेशी प्रजाति की मछलियों की तादाद तेजी से बढ़ती है. आकार में भी स्थानीय मछलियों के मुकाबले विदेशी मछलियां कहीं बड़ी होती हैं. मत्स्य पालन के लिए यह उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन नदी में चले आने से इनके और भी कई नुकसान होते हैं. ये मछलियां कारखानों से नदी में आने वाले विषैले पदार्थों को भी खा जाती हैं जिससे इन मछलियों को आहार के तौर पर खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, (सिफरी, इलाहाबाद केंद्र) के प्रभारी श्रीवास्तव ने बताया कि जानकारी के अभाव में गरीब लोग थाई मांगुर और तिलैपिया मछली का भोजन करते हैं क्योंकि बहुतायत में पैदा होने के चलते इन मछलियों का बाजार भाव कम है. वहीं दूसरी ओर, देसी मछलियों की तादाद कम होने से इनके भाव ऊंचे हैं जिससे ये सभ्रांत परिवारों की थाली की शोभा बढ़ा रही हैं.

श्रीवास्तव ने बताया कि थाई मांगुर और तिलैपिया प्रजाति की मछलियां साल में कई बार प्रजनन करती हैं इसलिए इन मछलियों पर नियंत्रण पाना एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है. वहीं फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से हिलसा मछली एक बड़ी आबादी की पहुंच से बाहर हो गई है क्योंकि यह मछली उत्तर भारत में नहीं आ पाती और हुबली नदी तक ही सीमित होकर रह गई है.

(इनपुट भाषा)

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