बसपा के लिए वजूद की लड़ाई है यूपी में स्थानीय निकाय चुनाव
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बसपा के लिए वजूद की लड़ाई है यूपी में स्थानीय निकाय चुनाव

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद आगामी स्थानीय निकाय के चुनाव में पहली बार अपने आधिकारिक चिहन पर मैदान में उतरने जा रही बसपा के लिए यह अपने वजूद को बचाने की लड़ाई है. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती, उस दलित जनाधार को दोबारा वापस हासिल करना है, जो हाल में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान सुनामी विचलन के तहत दूसरे दलों खासकर भाजपा में चला गया है।

बसपा के लिए वजूद की लड़ाई है यूपी में स्थानीय निकाय चुनाव

लखनऊ: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद आगामी स्थानीय निकाय के चुनाव में पहली बार अपने आधिकारिक चिहन पर मैदान में उतरने जा रही बसपा के लिए यह अपने वजूद को बचाने की लड़ाई है. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती, उस दलित जनाधार को दोबारा वापस हासिल करना है, जो हाल में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान सुनामी विचलन के तहत दूसरे दलों खासकर भाजपा में चला गया है।

वर्ष 2007 से 2012 तक पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा हाल में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटें जीतकर आत्ममंथन की स्थिति में है. पार्टी मुखिया मायावती ने ताजा हालात में अपना रूख बदलते हुए प्रदेश के आसन्न स्थानीय निकाय चुनाव में अपने आधिकारिक चिहन हाथी के साथ मैदान में उतरने का फैसला किया है. इसके अलावा यह पार्टी गुजरात विधानसभा चुनाव भी लड़ने जा रही है, जहां पिछले 15 साल से भाजपा का वर्चस्व है.

मायावती ने गत 19 अप्रैल को लखनऊ में हुई पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों की बैठक में आगामी जून में सम्भावित स्थानीय निकाय चुनाव बसपा के चुनाव चिह्न पर लड़ने का फैसला किया था. माना जा रहा है कि बसपा सोचती है कि पार्टी के चिह्न पर चुनाव लड़ने से बसपा के अपने मतदाता सीधे तौर पर उससे जुड़ेंगे.

बहरहाल, सियासत के जानकारों का मानना है कि विधानसभा चुनावों के दौरान रसातल में पहुंच चुकी बसपा के लिए स्थानीय निकाय चुनाव वर्चस्व की आजमाइश के बजाय अपने वजूद को बचाने की जंग है. जिस तरह से विधानसभा चुनाव में उसका जनाधार इस कदर खिसका है, उसके मद्देनजर बसपा के लिए स्थानीय निकाय के क्या मायने हैं, यह उससे बेहतर कोई नहीं समझ सकता.

दलित राजनीति के जरिये फली-फूली बसपा की हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद यह सवाल खड़ा हो गया है कि अब दलित आंदोलन का क्या होगा. अंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाक्टर लालजी निर्मल ने बताया कि दलितों के सवाल अब भी जिंदा हैं और अभी तक उन्हें भागीदारी नहीं मिली है, लिहाजा आंदोलन तो प्रासंगिक है. मुख्यधारा के बड़े राजनीतिक दल बसपा के पराभव से दलित राजनीति में पैदा हुए खालीपन को भरने की कोशिश भी कर सकते हैं.

उन्होंने कहा कि इस बार दलितों वोटों का सुनामी विचलन हुआ है. हालांकि विचलन कोई नई बात नहीं है. दलित आंदोलन और दलित राजनीति के लिए उत्तर प्रदेश की धरती काफी उर्वरा रही है. बसपा संस्थापक कांशीराम ने वर्ण व्यवस्था को लेकर दलितों तथा पिछड़ों में व्याप्त तीव्रतम आक्रोश के सहारे दलितों, पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों को लामबन्द किया. यह बहुत बड़ा परिवर्तन था, और इससे लोगों में बहुत उम्मीद जागी थी.

निर्मल ने कहा कि कांशीराम के निधन के बाद मायावती ने सत्ता में आने पर गैर-दलित और गैर-पिछड़े वर्गो को अपने बहुत करीब करने की कोशिश की. जब वह बहुजन से सर्वजन की तरफ गयीं तो दलितों में शंका उभरी, कि क्या यही कांशीराम का रास्ता है. वर्ष 2007 से 2012 के बीच जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उनके और दलितों के बीच संवाद के सारे रास्ते बंद हो गए. उन्होंने कहा कि मायावती ने बाकी सभी वर्गो में नेतृत्व पैदा किया लेकिन दलितों का कोई नेतृत्व नहीं पनपने दिया. ब्राहमणों, पिछड़ों तथा अल्पसंख्यकों में तो नेतृत्व को मजबूत किया, लेकिन दलितों के पास ऐसा कोई नेता नहीं था, जिससे वे अपनी समस्याएं कह पाते.

उन्होंने कहा कि वर्ष 2012 से लेकर 2017 तक मुख्य विपक्षी होते हुए भी दलितों से जुड़े सवालों को ना तो सदन में गम्भीरता से उठाया गया और ना ही सड़क पर आंदोलन हुआ. दलितों के घर-घर तक यह संदेश चला गया कि मायावती धन लेकर चुनाव टिकट बेचती हैं और विरोधी दल यह समझाने में सफल रहे कि मायावती टिकट नहीं बेच रही है, बल्कि दलितों को बेच रही है. गुजरात में उना काण्ड के बाद दलित आंदोलन चलाने वाले जिग्नेश मेवाणी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में अब कोई दलित राजनीतिक शक्ति नहीं बची है. उन्होंने कहा कि अब बसपा का विकल्प खड़ा करने की जरूरत है. इसके लिए वह जल्द ही सूबे में एक अभियान शुरू करेंगे.

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