ZEE जानकारी: केंद्रीय कैबिनेट ने ‘तीन तलाक’ को दंडनीय अपराध बनाने के लिए अध्यादेश को दी मंजूरी
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ZEE जानकारी: केंद्रीय कैबिनेट ने ‘तीन तलाक’ को दंडनीय अपराध बनाने के लिए अध्यादेश को दी मंजूरी

देश की मुस्लिम महिलाओं के लिए बुधवार को दिन एक बहुत बड़ा दिन है. क्योंकि बुधवार को सरकार ने इन महिलाओं के हक़ में एक बहुत बड़ा फैसला किया है. 

ZEE जानकारी: केंद्रीय कैबिनेट ने ‘तीन तलाक’ को दंडनीय अपराध बनाने के लिए अध्यादेश को दी मंजूरी

आज देश की मुस्लिम महिलाओं के लिए एक बहुत बड़ा दिन है. क्योंकि आज सरकार ने इन महिलाओं के हक़ में एक बहुत बड़ा फैसला किया है. आज केन्द्र सरकार ने मुस्लिम समुदाय में मौजूद एक कुप्रथा. Triple तलाक को खत्म करने के लिए एक अध्यादेश पारित किया है.

Triple तलाक का मतलब होता है, एक साथ तीन बार तलाक.. तलाक.. तलाक.. बोलकर महिला को तलाक़ दे देना. इस्लाम में इसे तलाक-ए-बिद्दत कहा जाता है. ज़ी न्यूज़ ने ही सबसे पहले इस संवेदनशील मुद्दे पर लोगों को जागरूक किया था. इसे आप हमारी मुहिम का असर भी कह सकते हैं.

ट्रिपल तलाक की इस कुप्रथा को खत्म करने वाली ये यात्रा बहुत लंबी है. और Zee News के दर्शक इस कठिन यात्रा के बारे में जानते हैं. क्योंकि ज़ी न्यूज़ ने पिछले 3 वर्षों से मुस्लिम समुदाय की इस सामाजिक बुराई के खिलाफ मुहिम चलाई. पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने भी एक बार में तीन तलाक की प्रथा को खत्म कर दिया था. लेकिन इसके बाद भी इस कुप्रथा में कोई फर्क नहीं पड़ा. ट्रिपल तलाक लगातार हो रहे थे. सरकार बिल लेकर भी आई और वो बिल लोकसभा में पारित भी हुआ, लेकिन राज्यसभा में अटक गया. जिसके बाद सरकार को ये अध्यादेश लाना पड़ा. 

सरकार के मुताबिक 

जनवरी 2017 से 13 सितंबर 2018 तक देश में कम से कम ट्रिपल तलाक की 430 घटनाएं हुई हैं. 
और ये वो घटनाएं हैं, जो मीडिया में Reported हैं. यानी ट्रिपल तलाक के मामले इससे ज्यादा भी हो सकते हैं. 
सरकार के मुताबिक इन 430 में से 229 मामले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले के हैं. और बाकी के 201 मामले फैसले के बाद के. और इनमें भी सबसे ज्यादा 246 मामले उत्तर प्रदेश से आए हैं. 
सुप्रीम कोर्ट का फैसला पिछले वर्ष 22 अगस्त को आया था. 

यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद और लोकसभा में इस बिल के पास होने के बावजूद ट्रिपल तलाक की घटनाएं हो रही थीं. और तलाक की वजहें बहुत शर्मनाक थीं. 

आगरा में जुड़वां बेटी पैदा होने पर पति ने पत्नी को तलाक़ दे दिया . 
उत्तर प्रदेश के गोंडा से भी ऐसी ही घटना सामने आई थी. 
अलीगढ़ में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को बीच सड़क पर तलाक दे दिया. 
पीलीभीत की एक महिला को उसके पति ने न्यूज़ीलैंड से फोन पर ही तलाक़ दे दिया. 

ऐसे बहुत से शर्मनाक मामले सामने आए, जिसके बाद सरकार को ये अध्यादेश लाना पड़ा. क्योंकि Triple तलाक ने भारत की मुस्लिम महिलाओं की ज़िन्दगी को नरक बनाया हुआ था. लंबे समय से मुस्लिम महिलाएं... इस्लाम के ठेकेदारों की आंख से आंख मिलाकर, सही और ग़लत की परिभाषा बदलने के लिए कह रही थीं. लेकिन इस्लाम के ठेकेदार इन महिलाओं को न्याय नहीं दिला पाए. और अब आपको बहुत ही आसान शब्दों में इस अध्यादेश की बड़ी बातें बता देते हैं.

इस अध्यादेश का नाम है - 
The Muslim Women (Protection of Rights of Marriage) Bill, 2017

इस अध्यादेश के तहत अब तलाक-ए-बिद्दत यानी एक बार में ट्रिपल तलाक कहना गैरकानूनी होगा. 

ट्रिपल तलाक देना एक दंडनीय अपराध होगा और जो ऐसा करेगा उसे तीन साल की सज़ा का प्रावधान है .

इस बिल में ये साफ लिखा हुआ है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी को बोलकर, लिखित रूप से या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता. 

इस अध्यादेश में पीड़ित महिला और उसके ऊपर आश्रित बच्चों के लिए भत्ते का प्रावधान भी है. 

और ये भत्ता Magistrate तय करेगा. 

अगर बच्चे नाबालिग हैं, तो उनकी Custody महिला को ही मिलेगी.

पुलिस में शिकायत सिर्फ पीड़ित महिला, और उसके रिश्तेदार ही कर पाएंगे. 

इसके अलावा केस दर्ज होने के बावजूद पत्नी की पहल पर समझौता भी हो सकता है. क्योंकि बहुत बार लोग गुस्से में तलाक दे देते हैं और फिर पछताते हैं. हालांकि ये समझौता मजिस्ट्रेट के सामने उचित शर्तों के साथ होगा. 

इसमें ज़मानत का भी प्रावधान है और मजिस्ट्रेट ज़मानत दे सकता है, लेकिन पत्नी की सुनवाई करने के बाद. ये प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि बिना महिला का पक्ष जाने, दोषी व्यक्ति को ज़मानत ना मिले.

हालांकि ये कानून जम्मू और कश्मीर में लागू नहीं होगा. क्योंकि जम्मू कश्मीर में धारा-370 लागू है. और धारा 370 के अनुसार, भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में सिर्फ रक्षा..विदेश मामले, वित्तीय मामले और संचार से जुड़े कानून बनाने का अधिकार है .
 
अब आप ये सोच रहे होंगे कि मुस्लिम समुदाय में तो Triple तलाक बहुत पहले से मौजूद है. भारत को आज़ाद हुए भी 71 वर्षों से ज्यादा का समय हो चुका है, तो फिर ऐसी क्या वजह रही कि Triple तलाक को खत्म होने में इतना वक्त लग गया. और ये भी तब है जब दुनिया के 22 मुस्लिम देश Triple तलाक को पहले ही खत्म कर चुके हैं . यहां तक कि पाकिस्तान जैसा कट्टर मुस्लिम देश भी 1956 में Triple तलाक को खत्म कर चुका है. 

इन प्रश्नों का जवाब ये है कि इससे पहले सरकारें Triple तलाक को लेकर तुष्टिकरण की राजनीति करती थीं. सरकारों ने कभी भी Triple तलाक पर सख्त Stand नहीं लिया. क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे वोटों का नुकसान हो जाएगा. अगर वोट बैंक की राजनीति न होती तो Triple तलाक पर सरकार आज से 33 वर्ष पहले ही कानून बना लेती. शाहबानो केस आपको ज़रूर याद होगा. लेकिन अगर आप इस मशहूर केस को भूल गये हैं.. तो हम आपको इसके बारे में दोबारा बता देते हैं.. ताकि आप इस पूरी राजनीति को समझ सकें. 

शाह बानो नामक महिला को 62 साल की उम्र में उनके पति ने 1978 में तलाक दे दिया था. शाह बानो ने अपने पति से गुज़ारा भत्ता लेने के लिए अदालत में अपील की, क्योंकि शाह बानो के 5 बच्चे थे. इसके बाद ये मामला जब तक सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब तक 7 साल बीत चुके थे. 

सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पति मोहम्मद अहमद खान से ये पूछा था कि आखिर वो भरण-पोषण के लिए भत्ता क्यों नहीं देना चाहते? तो उन्होंने मुस्लिम Personal Law का सहारा लिया और कहा कि उनके धार्मिक कानून में तलाकशुदा महिलाओं को गुज़ारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है. 

इसके बाद 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. कोर्ट ने शाह बानो के पति को.. आदेश दिया था कि वो शाहबानो को गुज़ारा भत्ता दे. लेकिन तब भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों ने इस फैसले का जमकर विरोध किया. उनका कहना था कि वो अपने Personal Laws में किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे. 

इस मुद्दे पर देशभर में आंदोलन की धमकियां दी गईं. इसके बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने एक कानून पास किया जिसने शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को उलट दिया. अपने इस फैसले को राजीव गांधी की सरकार ने "धर्म-निरपेक्षता" के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया था. और ये जताया था कि उन्होंने मुसलमानों के हित में ये फैसला लिया था. 

लेकिन असल में ये धर्म-निरपेक्षता नहीं बल्कि तुष्टिकरण की राजनीति थी. इसके बाद सरकारों ने कभी भी Triple तलाक पर सख्त Stand नहीं लिया. क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे वोटों का नुकसान हो जाएगा. अगर वोट बैंक की राजनीति न होती तो Triple तलाक पर आज से 33 वर्ष पहले ही कानून बन चुका होता.

पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने ट्रिपल तलाक़ के बिल को लोकसभा से पास करा लिया था. और लोकसभा में कांग्रेस ने सरकार का साथ दिया था. लेकिन बाद में जब ये बिल राज्यसभा में पेश हुआ, तो कांग्रेस ने सरकार का साथ देने से इनकार कर दिया. राज्यसभा में कांग्रेस के पास संख्या बल था. इसलिए उसने सरकार को अपनी ताकत दिखाई. लेकिन इस शक्ति प्रदर्शन से मुस्लिम महिलाओं का नुकसान हुआ. 

हालांकि सरकार की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं, क्योंकि सरकार को 6 महीने के अंदर इस अध्यादेश को संसद से पारित करवाना होगा. इसलिए इस बार संसद का शीतकालीन सत्र बहुत महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि अगर ये अध्यादेश शीतकालीन सत्र में पास नहीं हुआ, तो फिर ये कानून मान्य नहीं होगा.

जब देश में ट्रिपल तलाक, और हलाला जैसे मुद्दों पर बहस होती है . तो आप बार-बार एक शब्द सुनते होंगे... Personal Law. 
देश में कुछ लोग बार-बार Personal Law यानी अपने निजी कानून की बात करते हैं . ऐसे लोगों को ये समझना चाहिए कि कानून कभी Personal नहीं होता है . हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी या यहूदी... किसी भी धर्म का भारतीय व्यक्ति जब किसी दूसरे देश में जाता है तो उसे वहां के कानून को मानना पड़ता है. तो फिर अपने देश के कानून का सम्मान करने में क्या परेशानी है ? 

हमारे देश में अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए अलग-अलग कानून बना दिए गए हैं . 
अगर तलाक के ही मामले पर बात करें तो हिंदुओं के धर्म और शास्त्रों में तलाक का कोई Concept ही नहीं था . हिंदू धर्म के लोग शादी को एक नहीं बल्कि 7 जन्मों का बंधन मानते हैं . लेकिन The Hindu Marriage Act 1955 के तहत हिंदुओं में भी तलाक को मान्यता दी गई . जिसे धीरे-धीरे हिंदुओँ ने स्वीकार भी कर लिया . Hindu Marriage Act 1955 के मुताबिक हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख... ठोस कारणों के आधार पर अदालतों में तलाक दे सकते हैं . 

वहीं इस्लामिक कानून यानी शरीयत के मुताबिक मुस्लिम महिला को तो तलाक देने के लिए वजह बताना ज़रूरी है लेकिन मुस्लिम पुरुषों को बिना ठोस वजह बताए भी तलाक देने का अधिकार प्राप्त है . 

तलाक के मुद्दे पर.. देश में चार तरह के Personal कानून हैं . हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों के लिए Hindu Marriage Act का इस्तेमाल किया जाएगा . मुस्लिम परिवारों के मामले में शरीयत, कुरान और हदीस के आधार पर फैसला दिया जाएगा . ईसाई परिवारों के मामले में 1872 के Indian Christian Marriage Act का इस्तेमाल होगा और पारसी समुदाय के लिए 1936 के Parsi Marriage and Divorce Act का इस्तेमाल किया जाएगा.

सवाल ये है कि आखिर एक ही मुद्दे पर देश के अलग अलग नागरिकों के लिए अलग-अलग कानून कैसे हो सकते हैं ? एक देश में दो कानून नहीं हो सकते हैं . लेकिन हमारे देश में Personal कानूनों की पूरी List है . और इन Personal कानूनों की रक्षा करने के लिए बाकायदा संगठन और संस्थाएं भी मौजूद हैं . ये भारत की एकता और अखंडता के लिए एक चिंता की बात है . अगर देश One Nation One Tax को स्वीकार कर सकता है तो फिर One Nation One Law को स्वीकार करने में आखिर क्या परेशानी हो सकती है ?

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