Zee जानकारी: सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे हैं पश्चिम बंगाल के 5 जिले, चुप क्यों है मीडिया?
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Zee जानकारी: सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे हैं पश्चिम बंगाल के 5 जिले, चुप क्यों है मीडिया?

Zee जानकारी: सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे हैं पश्चिम बंगाल के 5 जिले, चुप क्यों है मीडिया?

पिछले 6 दिनों से पश्चिम बंगाल के 5 ज़िले सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे हैं, लेकिन हमारे देश के मीडिया को ये ख़बर दिख ही नहीं रही है। देश के तमाम मीडिया Houses इस ख़बर को धार्मिक चश्मे से देख रहे हैं, और इसीलिए ये तमाम चैनल या अख़बार इन ख़बरों के मामले में Selective हो जाते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या किसी हिंसक घटना को धर्म के चश्में से देखकर अनदेखा कर देना जायज़ है। क्या इस बड़ी ख़बर को नज़रअंदाज़ कर देने से ये समस्या खत्म हो जाएगी? 

पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा को लेकर बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया, Whatsapp और Email के ज़रिए हमसे संपर्क किया था। सबसे पहले आपको बताते हैं कि इस हिंसा की शुरुआत कैसे हुई? 12 अक्टूबर को हिंसा की शुरुआत पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना ज़िले से हुई, जहां कथित तौर पर मुहर्रम के जुलूस में एक low-intensity का बम फेंका गया। हालांकि इसमें कोई जख्मी नहीं हुआ, लेकिन इसके बाद हिंसक भीड़ ने हिंदुओं के घरों को जला दिया। और देखते ही देखते हिंसा की ये आग 5 ज़िलों में फैल गई। 

अभी पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना, हावड़ा, पश्चिमी मिदनापुर, हुगली और मालदा जिले हिंसाग्रस्त हैं। अब आपको इस पूरी घटना के पीछे छिपी हुई राजनीति भी बता देते हैं। क्योंकि इस राजनीति को समझे बिना आप इस पूरी घटना को समझ नहीं पाएंगे। पिछले हफ्ते ही पश्चिम बंगाल सरकार को कलकत्ता हाईकोर्ट से फटकार लगी थी। अदालत ने पश्चिम बंगाल सरकार पर तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप लगाया था। 

आपको याद होगा कि 11 अक्टूबर को विजयदशमी थी और उसी दिन देवी दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है। विजयदशमी के अगले दिन यानी 12 अक्टूबर को मुहर्रम का त्यौहार था। लेकिन इससे पहले पश्चिम बंगाल सरकार ने आदेश दिया था कि 11 अक्टूबर को शाम 4 बजे के बाद मूर्ति विसर्जन नहीं होगा। सरकार के इस आदेश के खिलाफ कुछ लोग कलकत्ता हाईकोर्ट गए तो अदालत ने सरकार को जमकर फटकार लगाई और सरकार के इस आदेश को रद्द कर दिया था। अदालत ने कहा था कि पहले कभी भी मूर्ति विसर्जन पर इस तरह की पाबंदियां नहीं लगाई गईं। अपने आदेश में अदालत ने ये भी कहा था कि राज्य सरकार बहुसंख्यकों की कीमत पर अल्पसंख्यकों को खुश करने की साफ- साफ कोशिश कर रही है। 

अदालत का ये भी कहना था कि सरकार को इस बात का एहसास होना चाहिए कि राजनीति के साथ धर्म को मिलाना खतरनाक हो सकता है। यानी राजनीति और धर्म के कॉकटेल से वोटों का नशा होता है और हमारे नेता वर्षों से इसी नशे में झूम रहे हैं। अदालत के इस फैसले के बाद पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार की खूब किरकिरी हुई थी। इसीलिए अब ये सवाल उठ रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल की सरकार ने जानबूझकर, एक पक्ष को खुश करने के लिए या मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कानून-व्यवस्था की अनदेखी की? या फिर ये मान लिया जाए कि पश्चिम बंगाल सरकार सबकुछ जानते और समझते हुए भी कानून व्यवस्था को बनाए रखने में फेल हो गई? 

पश्चिम बंगाल की धरती साहित्यकार और दार्शनिक रविन्द्र नाथ टैगोर की जन्मभूमि है। टैगोर का कहना था कि हिंदू और मुसलमानों को एक दूसरे की संस्कृति, रीति रिवाज और प्रथाओं को समझना चाहिए और जिस दिन ऐसा होगा उस दिन हमें शांति और सदभाव का वातावरण मिलेगा। विडंबना ये है कि दशकों पहले जिस सांप्रदायिक सौहार्द की बात रविन्द्रनाथ टैगोर ने कही थी, वो पश्चिम बंगाल में आज तक लागू नहीं हो पाई है। आज भी यहां दोनों समुदायों के बीच में दरार दिखाई देती है। और इसीलिए यहां सांप्रदायिक हिंसा की ऐसी घटनाएं होती हैं।  

ये पूरा दंगा कैसे शुरू हुआ इसकी जांच होनी चाहिए और जो भी इसमें दोषी है। उसे सज़ा मिलनी चाहिए। फिर चाहे वो हिंदु समुदाय का हो या मुस्लिम समुदाय का। ऐसी घटनाओं को धर्म के चश्में से नहीं देखा जा सकता। खबर चाहे समाज की अच्छाइयों को उजागर करे या फिर समाज की बुराइयों को ज़ी न्यूज़ समाज के दोनों पहलू दिखाने की नीति पर चलता है। इसलिए जब देश के तमाम न्यूज़ चैनल्स पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा पर चुप हैं, हम आपको इसकी Detailed Reporting दिखा रहे हैं। आपको याद होगा कि इसी वर्ष की शुरुआत में 3 जनवरी को पश्चिम बंगाल के मालदा में हिंसा हुई थी। और उस वक्त भी देश के न्यूज़ चैनलों ने मौन व्रत धारण कर लिया था। दबी हुई खबरों को उजागर करना हमारी संपादकीय नीति है और इसी के तहत हमने आपको नफरत की आग में सुलगते मालदा का पूरा सच दिखाया था। 

उस वक्त हमारे देश के डिज़ाइनर पत्रकार उत्तर प्रदेश के दादरी में हुई अखलाक की हत्या पर देश का माहौल खराब बताने में तुले हुए थे। लेकिन इन बुद्धिजीवियों और डिज़ाइनर पत्रकारों ने मालदा की घटना को उस गंभीरता से नहीं देखा, जैसा कि अखलाक की हत्या को देखा था। और करीब 10 महीनों के बाद भी देश का ये Trend बदला नहीं है। आज भी हमारे देश के तमाम डिज़ाइनर पत्रकार धार्मिक चश्मा पहनकर संपादकीय फैसले लेते हैं।

इस हिंसा को देखकर मन में एक सवाल उठता है कि आखिर वो कौन सी वजह है जिससे भीड़ हिंसक हो जाती है और वो कौन से लोग हैं जो भीड़ का इस्तेमाल अपने अनैतिक हित साधने के लिए करते हैं? हिंसक भीड़ के मनोविज्ञान पर आधारित अलग अलग रिसर्च में ये साबित हुआ है कि भीड़ का अपना कोई दिमाग नहीं होता। कुछ लोग मिलकर पूरी भीड़ की मानसिकता तय करते हैं। भीड़ को उकसाने के लिए सिर्फ एक अफवाह उड़ाना ही काफी होता है यानी भीड़ बिना सोचे समझे किसी भी अफवाह को सच मान सकती है। हर भीड़ में कुछ असामाजिक तत्व होते हैं जो भीड़ को गैरकानूनी रुख अपनाने और हिंसा फैलाने के लिए उकसाते हैं। भीड़ में ज़्यादातर वो युवा होते हैं जो सिस्टम को चुनौती देने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

जिन लोगों ने अपनी ज़िंदगी में कभी चींटी भी नहीं मारी होती। वो लोग भीड़ में शामिल होकर हिंसक हो जाते हैं और भीड़ में शामिल होकर तोड़फोड़ आगजनी और हत्या तक करने में नहीं हिचकते दरअसल भीड़ में हर इंसान वहीं करना चाहता है जो दूसरे लोग कर रहे होते हैं। भीड़ में शामिल लोगों को लगता है कि जो अपराध वो अकेले नहीं कर सकते, वो भीड़ में शामिल होकर कर सकते हैं। क्योंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता। तो ऐसे में क्या ये मान लिया जाए कि हिंसक प्रदर्शन अपनी जायज़ या नाजायज़ मांगों को मनवाने का सबसे बेहतर तरीका है ? इस सवाल का जवाब है नहीं।

अमेरिका की मशहूर strategic planner Maria J. Stephan (स्टैफन) ने एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक है Why Civil Resistance Works...इस किताब में दावा किया गया है कि अहिंसक प्रदर्शनों द्वारा अपनी मांगें मनवाने की संभावना 53 फीसदी होती है। इससे उलट हिंसक प्रदर्शनों के ज़रिए अपनी मांगें मनवाने की संभावना सिर्फ 23 फीसदी रह जाती है यानी अहिंसा का रास्ता अच्छे Result देता है। इस किताब में ये भी लिखा है कि हिंसक और अहिंसक प्रदर्शन में से किसके असफल होने की संभावना ज़्यादा होती है। जो प्रदर्शन शांतिपूर्वक किए जाते हैं उनके असफल होने की संभावना 20 फीसदी होती है लेकिन हिंसक प्रदर्शन के असफल होने की संभावना इससे कहीं ज़्यादा यानी 60 फीसदी होती है यानी बाते बनवाने के लिए शांतिपूर्वक तरीका ही सबसे अच्छा है।

लेकिन भीड़ को तर्कों से कोई फर्क नहीं पड़ता और भीड़ का ये दूषित मनोविज्ञान सिर्फ राजनेता और धर्मगुरु ही नहीं पहचानते बल्कि अपराधी और असमाजिक तत्व भी जानते हैं और जब ज़रूरत पड़ती है। भीड़ का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए कर लेते हैं और फिर वो होता है जो पश्चिम बंगाल में हुआ। ये पहलू अब तक अनछुआ था। आपको इसके बारे में किसी ने नहीं बताया होगा लेकिन हमें लगा कि इस पहलू पर बात किए बिना इस मुद्दे का विश्लेषण पूरा नहीं हो सकता

वैसे ये बहुत बड़ी विडंबना है कि देश में मुसलमानों के हित की बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन सरकारें उनके हित के लिए कोई ठोस काम नहीं करतीं। मुसलमानों को देश में वोट बैंक समझा जाता है, और इसीलिए सरकारें सिर्फ तुष्टिकरण की राजनीति में लग जाती हैं। इसलिए अब 2011 की जनगणना के कुछ ऐसे आंकड़ों की बात करते हैं। जिन्हें देखकर आप हैरान रह जाएंगे। ये वो आंकड़े हैं जिनमें ये बताया गया है कि कौन से धर्म के कितने फीसदी लोगों के पास काम है। और वो किस तरह के रोज़गारों में लगे हैं।

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में Working Population यानी रोजगार में लगे लोगों की संख्या 48 करोड़ 20 लाख है यानी देश की 40 फीसदी आबादी Working यानी कामकाजी है। जिसमें से 55 फीसदी खेती में, 41.2 फीसदी उद्योगों और सेवा क्षेत्र में और बाकी बची 3.8 फीसदी आबादी छोटे-मोटे व्यवसायों में लगी है। धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो देश की 33 फीसदी मुस्लिम आबादी के पास ही रोज़गार है ये संख्या बाकी सभी धर्मों की Working Population यानी कामकाजी आबादी से कम है। भारत में 36 फीसदी सिख, 41 फीसदी हिंदू, 42 फीसदी ईसाई और 43 फीसदी बौद्ध आबादी, किसी ना किसी तरह के रोजगार में लगी है।

कारपेंटर, लोहार और दर्जी जैसे पेशों में सबसे ज़्यादा सात फीसदी मुसलमान आबादी शामिल है। जबकि 41 फीसदी कामकाजी मुसलमान खेती करके अपने परिवारों का पेट पालते हैं। यानी देश के मुसलमानों की Working Class का एक बड़ा हिस्सा छोटे-मोटे काम धंधे करके ही अपना गुज़ारा करता है। इसकी एक वजह मुस्लिम समाज में शिक्षा का अभाव भी है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब आधे मुसलमान ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों की पढ़ाई मदरसों में ही करवा पाते हैं। आज भी ग्रामीण भारत के 15 से 30 फीसदी मुस्लिम बच्चे अपनी पढ़ाई मदरसों में करते हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी ये खुलासा कर चुकी है कि देश के 4 फीसदी मुस्लिम बच्चे आज भी सिर्फ मदरसों में ही पढ़ते हैं।

लेकिन ये बात भी जगज़ाहिर है कि तेज़ी से विकसित होती दुनिया में मदरसों की पढ़ाई आज भी अपने पुराने ढर्रे पर चलती है और वहां से पढ़े हुए बच्चों का इंजीनियर या डॉक्टर बनना बहुत मुश्किल काम होता है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि मदरसों को हाइटेक किया जाए और उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा जाए ताकि मुस्लिम बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके और वो दुनिया की रफ़्तार के साथ बराबरी कर सकें हालांकि आंकड़े बताते हैं कि ऐसा होने में अभी लंबा वक्त लगेगा क्योंकि हमारे देश के नेता तुष्टिकरण की राजनीति के तहत किसी धर्म के त्यौहार पर छुट्टी की घोषणा कर देते हैं और उस धर्म के लोगों को आरक्षण दे देते हैं उनकी सोच इससे आगे नहीं बढ़ पाती।

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