‘मुखौटा’ उतारे पाकिस्तान तो ही बातचीत
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‘मुखौटा’ उतारे पाकिस्तान तो ही बातचीत

जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पुंछ सेक्टर में हाल में पाकिस्तानी सेना के हमले के बाद भारत में इस्लामाबाद के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश है। लोग जवाबी कार्रवाई किए जाने और पाक से बातचीत बंद करने की मांग कर रहे हैं।

आलोक कुमार राव
जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पुंछ सेक्टर में हाल में पाकिस्तानी सेना के हमले के बाद भारत में इस्लामाबाद के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश है। लोग जवाबी कार्रवाई किए जाने और पाक से बातचीत बंद करने की मांग कर रहे हैं। पाकिस्तान के खिलाफ यह गुस्सा कोई नया नहीं है। गत जनवरी में पाकिस्तानी सेना द्वारा दो भारतीय जवानों के सिर कलम किए जाने के बाद भारत का धैर्य जवाब देते-देते रह गया था। इस बार भी सब्र का पैमाना छलकने से बच गया है।

बड़ा सवाल यह है कि उकसाने वाली इस तरह की पाक की नापाक हरकतों के बारे में पुख्ता सुबूत होने के बाद भी भारत क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। भारतीय सेना माकूल जवाब क्यों नहीं देती। देश का एक बड़ा तबका पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने का हिमायती है। देश में ऐसी जनभावना है कि सरला चौकी में पांच भारतीय जवानों की हत्या के तुरंत बाद ही सेना को जवाबी कार्रवाई करनी चाहिए थी। सेना को अपनी गोलीबारी से नियंत्रण रेखा के उस पार इतनी तबाही मचानी चाहिए थी कि पाकिस्तानी सेना दूसरी बार इस तरह की हरकत करने से पहले सौ बार सोचे। लेकिन भारतीय सेना ने अब तक धैर्य की मिसाल पेश की है।
सवाल भारतीय नेतृत्व और नीति पर भी उठता है कि आखिर क्यों पाकिस्तानी सेना बार-बार इस तरह की घिनौनी हरकत को अंजाम देने के बाद बरी हो जाती है। बातचीत और कूटनीतिक पहल के बावजूद पाक सेना अपनी नापाक हरकतों से यदि बाज नहीं आता है तो यह लाजिमी नहीं कि सेना के हाथ इतने खुले रखे जाएं कि वह अपने तरीके से इस तरह के मामलों से निपटे। लेकिन भारत बातचीत के अलावा अन्य आक्रामक विकल्प जो हो सकते हैं, उन्हें नहीं आजमाता है। उकसाने वाली हरकतों और आतंकवादी हमलों के बाद भी भारत इस्लामाबाद के साथ बातचीत के लिए लालायित रहता है। लेकिन पाकिस्तान के साथ यह बातचीत कितनी सार्थक और नतीजा देने वाली होगी, इसपर गौर करना जरूरी होगा।
जानकारों का कहना है कि इस्लामाबाद की विदेश नीति पर नियंत्रण पाक सरकार का नहीं बल्कि वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई और शक्तिशाली सेना का होता है। सेना और आईएसआई अपने एजेंडे और हित के हिसाब से वहां की विदेश नीति को मोड़ लेते हैं। या यह कहें कि दोनों प्रतिष्ठान राजनीतिक नेतृत्व के मुखौटे का इस्तेमाल अपने हितों एवं एजेंडे के लिए करते हैं। विदेश नीति और राष्ट्रीय संप्रभुता के मामले में सेना और आईएसआई के समर्थन के बिना पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार के पास ज्यादा कुछ करने को नहीं होता।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार ने जब भी अपनी मर्जी से कदम बढ़ाएं हैं तो उसे सेना का कोपभाजन बनना पड़ा है। ऐसे में सवाल है कि पाकिस्तान के साथ उस बातचीत से क्या उम्मीद की जानी चाहिए जिसकी पृष्ठभूमि में पाक सेना एवं आईएसआई की नापाक सोच हो। 26/11 के बाद भारत क्या हासिल कर पाया है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इतने साल गुजर जाने के बाद दोनों देश विश्वास बहाली के उपायों की घोषणा तक ही आगे बढ़ पाए हैं। पाकिस्तान ने घोषणा के बावजूद भारत को अभी तक तरजीही राष्ट्र का दर्जा तक नहीं दिया है।
असल में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत तभी सफल हो सकती है जब उसे सेना और आईएसआई का समर्थन प्राप्त हो। तो क्या भारत को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के बजाय सेना और आईएसआई जैसे प्रतिष्ठानों से बातचीत करनी चाहिए जिनके पास असल में सत्ता की कुंजी है। अपनी विदेश नीति के तहत भारत चुनी हुई सरकार के अलावा और किसी सत्ता प्रतिष्ठान से बातचीत की पहल नहीं कर सकता।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने चुनावों के दौरान भारत के साथ राजनीतिक एवं व्यापारिक सभी तरह के संबंध सुधारने के संकेत और 26/11 की जांच में सहयोग का वादा किया था। इस्लामाबाद में हुए सत्ता परिवर्तन और शरीफ के संकेतों के बाद एक बदलाव वाले माहौल की उम्मीद की जाने लगी थी। नवाज शरीफ भारत के साथ भले ही दोस्ताना रवैया रखने के आकांक्षी हों लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के बाद उन्होंने कहा था कि भारत के साथ बेहतर रिश्तों संबंधी उनके बयान राजनीतिक थे। चुनावों में जीत हासिल करने के लिए उनकी पार्टी ने भारत विरोधी चरमपंथी संगठनों का सहारा लिया। यही नहीं, सेना के साथ नवाज के संबंध मुशर्रफ के समय से ही ठीक नहीं हैं।
यह सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की कोई भी सरकार इन दोनों संगठनों की अनदेखी नहीं कर सकती। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार ने जब भी ऐसा किया है तो उसे कीमत चुकानी पड़ी है। नवाज यदि वास्तव में भारत के साथ शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो पहले उन्हें सेना और आईएसआई को को भरोसे में लेना होगा जो उनके लिए काफी मुश्किल है।
तो इस परिस्थिति में क्या यह जरूरी नहीं कि भारत नवाज सरकार पर दबाव बनाए कि वह सेना, आईएसआई और भारत विरोधी कट्टरपंथी जमातों पर नियंत्रण रखे, तभी बातचीत का कोई नतीजा सामने आ पाएगा। इसलिए नई दिल्ली को बातचीत के अपने उतावलेपन को शांत रखकर इस्लामाबाद को यह साफ संदेश देना होगा कि आतंकवादी घटनाएं और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते।

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