`फांसी इंसाफ नहीं मुक्ति है`

इस विषय पर तो पहले भी लिख चुकी हूं मगर क्या करूं जब जब यह वाक्य सामने आते हैं एक आग सी लग जाती मेरे अंदर और इतनी बातें उठती है कि कहे बिना रहा भी नहीं जाता पिछले शुक्रवार क्राइम पेट्रोल कार्यक्रम देखा जिसमें दिल्ली में हुये 16 दिसंबर 2012 सामूहिक बलात्कार दामिनी कांड को दिखाया गया।

पल्लवी सक्सेना
इस विषय पर तो पहले भी लिख चुकी हूं मगर क्या करूं जब जब यह वाक्य सामने आते हैं एक आग सी लग जाती मेरे अंदर और इतनी बातें उठती है कि कहे बिना रहा भी नहीं जाता पिछले शुक्रवार क्राइम पेट्रोल कार्यक्रम देखा जिसमें दिल्ली में हुये 16 दिसंबर 2012 सामूहिक बलात्कार दामिनी कांड को दिखाया गया। वैसे तो मैं इस तरह के कार्यक्रम कभी देखना पसंद नहीं करती। क्यूंकि इस तरह के कार्यक्रम देखने के बाद दिमाग ख़राब ही होता है और बेवजह टेंशन हो जाती है और कुछ नहीं होता। लेकिन उस रात जाने क्यूं नींद ही नहीं आरही थी। तो सोचा चलो आज टीवी ही देख लेते हैं। तब पता चला के उस दिन के एपिसोड में दामिनी कांड दिखाया जा रहा था जिसे देखकर एक बार फिर रूह कांप उठी। जिस हादसे के बारे में पढ़कर और सुनकर ही उसकी कल्पना मात्र से रूह कांप जाती है, तो ज़रा सोचिए क्या बीती होगी उस मासूम पर जिसने यह सब कुछ सहा था उस वक्त, यह ख्याल दिमाग में आते ही सर गुस्से से भन्नाने लगता है।

कहने को उन पांचों अपराधियों को फांसी तो हो गयी, मगर मेरा मन अब भी नहीं भरा। मैं अब भी संतुष्ट नहीं हूँ, इस इंसाफ से क्यूंकि मेरी नज़र में यह इंसाफ नहीं है। एसे वहशी दरिंदों के लिए फांसी तो बहुत ही आसान सज़ा है। बल्कि यदि यह कहा जाये कि फांसी सज़ा नहीं मुक्ति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति ना होगी। क्यूंकि उन्हें तो फांसी के वक्त कुछ पलों का दर्द ही सहना होगा और काम तमाम हो जाएगा। लेकिन इससे उन्हें उस दर्द और उस पीड़ा का एहसास नहीं होगा, जो दामिनी ने झेला। यूं भी किसी एक ज़हरीले साँप को मार देने से उसकी प्रजाति ख़त्म नहीं हो जाती। फाँसी तो कसाब को भी दी गयी थी। मगर क्या फर्क पड़ा सब ज्यों का त्यों ही तो है, यहां तक की आतंकवादी गुसपैठ तक में कोई कमी नहीं आ पायी है अब तक, बाकी सब तो दूर की बातें हैं फिर भला हम यह कैसे सोच सकते हैं कि फांसी की सज़ा होने से इस तरह के दरिंदों में मौत का डर पैदा हो सकेगा और वह ऐसे घृणित काम को आंजाम देने से पहले सौ बार सोचेंगे। क्या वाकई आप सब को ऐसा लगता है ? मुझे तो नहीं लगता, हां यह ज़रूर कहा जा सकता है कि आम और साधारण लोगों में ज़रूर कानून के प्रति शायद थोड़ा डर आ जाये। मगर इस तरह कि विकृत मानसिकता रखने वाले लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। क्यूंकि फर्क इन्सानों को पड़ता है, हैवानों को नहीं...।

यह सब देखकर मेरे मन में कई तरह के भाव उत्पन्न हुए। एक बार ऐसा लगा सही ही हुआ इन्हें जीने का कोई हक नहीं है। फिर लगा लेकिन यह तरीका तो बहुत ही आसान होगा इनके लिए, इन्हें तो भूखे शेरों के सामने डाल देना ज्यादा अच्छा होगा, ताकि इन्हें भी तो पता चले कि जानवरों का सलूक क्या होता है। जैसा इन्होंने किया था दामिनी के साथ, फिर मन में आया कि नहीं इनका मांस खाकर तो बेचारा शेर भी शर्मिंदा हो जाएगा और शायद संभव है कि वह भी ऐसे कायरों का मांस खाने से माना कर दे। क्यूंकि शेर कभी मरे हुए का शिकार नहीं करता और इनकी तो आत्मा ही मर चुकी है। वरना यह ऐसा घृणित काम करते ही क्यूं, फिर मन में दूसरा ख्याल यह आया कि इन्हें तो हाथ पैर काटकर छोड़ देना चाहिए कि जाओ अब जियो अपनी ज़िंदगी तब पल-पल तड़प-तड़प कर कटेगा तब समझ आयेगा कि क्या किया था और कितना तड़पी होगी दामिनी इनकी उस करतूत के बाद । फिर तीसरा ख्याल यह आया कि नहीं इनके लिए तो यह भी कम है, इन्हे तो पहले थर्ड डिग्री देना चाहिए और फिर फांसी शायद तभी दामिनी की व्याकुल आत्मा को शांति मिलेगी, इंसाफ मिलेगा।

वैसे देखा जाये तो बहुत सारी चीजों में परिवर्तन लाने कि अवश्यकता है सिर्फ कानून और प्रशासन के नाम पर हाय हाय करने से कुछ नहीं मिलने वाला है। इसमें कहीं न कहीं हम भी उतने ही जिम्मेदार है जितना कि हमारा कानून और प्रशासन, बल्कि मैं तो यह कहूंगी कि शायद पहली गलती तो हमारी ही है। हम ही लोग अब आपस में एक दूसरे से कनेक्टेड नहीं है, जुड़े हुए नहीं है। हर कोई समस्या से अपने जिम्मेदार नागरिक होने की ज़िम्मेदारी से भाग जाना चाहता है। यदि उस रात दामिनी और उसके दोस्त की मदद के लिए गुहार, वहां से आते-जाते लोगों ने सुन ली होती, तो शायद आज दामिनी हमारे बीच होती। मगर नहीं जब हम और हमारा समाज ही असंवेदन शील हो गया है, तो हम पुलिस और कानून व्यवस्था से इंसाफ या मदद की उम्मीद कैसे रख सकते हैं। यहां सबसे पहली गलती हमारी है, हमारी छोटी सोच और मानसिकता की है। उन दरिंदों ने जो किया सो किया वो थे ही भेड़ की खाल में छिपे हुए भेड़िये मगर हम ने क्या किया ?? हमने भी तो उस रात इंसानियत को एक किनारे कर शर्मसार ही किया।

लेकिन इन सब में एक बात सामने ज़रूर आयी कि यदि पुलिस चाहे तो बहुत हो सकता है या यूं कहें कि बहुत से केस जल्द से जल्द निपटाए जा सकते हैं। क्यूंकि जिस तरह से इस केस में पुलिस ने फुर्ती दिखाई, ठीक उसी तरह यदि व हर केस में फुर्ती दिखाये, तो बहुत कुछ बदल सकता है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि ऐसा होता नहीं है। पुलिस और कानून के हाथ जहां एक और लंबे है, वही दूसरी और नेताओं के हाथों बंधे हुए भी हैं और इसका एकमात्र उदहारण के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बदल जाना। जब सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि जिस किसी का भी कानूनी रिकॉर्ड हैं वह व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता। बदल दिया गया क्यूँ ? हमारे राज नेताओं की गंदी राजनीति के षडयन्त्रों की वजह से, क्यूंकि आजकल देश के बारे में तो कोई सोचता ही नहीं है और आम जनता तो इन नेताओं के लिए या तो वोट बैंक है या फिर चलता फिरता ATM इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, देश और जनता को लूटकर अपनी जेबें भरने के अलावा, अब किसी भी नेता का और कोई दूजा धर्म नहीं है। इस केस में भी जनता के गुस्से और उबाल की वजह से कोई फैसला हो पाया। वरना यह केस भी अन्य केसों की भांति कहीं तारीख की मार झेल रहा होता। जैसे आज भी हो रहा है, दामिनी कांड के बाद भी न जाने कितने बलात्कार के केस हुए। मगर कोई लाइट में नहीं आया और सब अदालतों में मिल रही तरीकों में उलझे हैं। कई तो आदालत तक पहुँच पाने में भी असमर्थ है।

बल्कि मुझे तो दामिनी कांड के बाद ऐसा लगा था, कि ऐसी विकृत मानसिकता रखने वाले अपराधियों ने जैस हमारे कानून को ललकारा था कि देखे तुम क्या कर सकते हो, हम न रुके थे, ना रुखेंगे। जो तुम से बन पड़े सो करलो और तब से जैसे आए दिन होते बालत्कारों का एक सिलसिला सा शुरू हो गया था। चाहें तो आप पुराने सभी समाचार पत्र उठाकर देख सकते हैं। अंतत मैं बस यही कहना चाहूंगी कि वास्तव में यदि इस तरह के अपराधों के प्रति जनता के दिलों में डर पैदा करना है, तो इन दरिंदों को खुले आम सड़क पर ऐसी सज़ा दो जो बकियों के लिए एक सबक बन जाये जैसा पुराने जमाने में होता था सर कलम करवादों इनका भरी पब्लिक में तभी इंसाफ होगा।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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