जब नसीरूद्दीन शाह आंखों में हीरो बनने का सपना लिए भागकर गए थे मुंबई
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जब नसीरूद्दीन शाह आंखों में हीरो बनने का सपना लिए भागकर गए थे मुंबई

आंखों में फिल्मी सितारा बनने का सपना लिए 16 साल की उम्र में नसीरूद्दीन शाह भाग कर मुंबई चले गए थे और किसी तरह ‘अमन’ और ‘सपनों के सौदागर’ जैसी फिल्मों में ‘एक्स्ट्रा’ के रूप में काम भी पा गए थे लेकिन बाद में अभिनेता दिलीप कुमार के परिवार ने उन्हें सहारा दिया।

जब नसीरूद्दीन शाह आंखों में हीरो बनने का सपना लिए भागकर गए थे मुंबई

नई दिल्ली : आंखों में फिल्मी सितारा बनने का सपना लिए 16 साल की उम्र में नसीरूद्दीन शाह भाग कर मुंबई चले गए थे और किसी तरह ‘अमन’ और ‘सपनों के सौदागर’ जैसी फिल्मों में ‘एक्स्ट्रा’ के रूप में काम भी पा गए थे लेकिन बाद में अभिनेता दिलीप कुमार के परिवार ने उन्हें सहारा दिया।

नसीर ने अपनी आत्मकथा ‘ऐंड देन वन डे’ में लिखा है कि एक दोस्त की गर्लफ्रेंड से मिलने के बाद उन्हें यह विचार आया था क्योंकि उसे पिता फिल्मों में चरित्र अभिनेता का किरदार निभाया करते थे। उसने उन्हें भरोसा दिया था कि उसके पिता सपनों की नगरी मुंबई में उनके ठहरने का इंतजाम करवा देंगे और उनकी मदद करेंगे।

नसीर उनके साथ लगभग एक महीने तक रहे लेकिन बाद में उनसे विनम्रता से घर छोड़ने के लिए कह दिया गया जिसके बाद वह वापस सड़क पर आ गए। उस समय उनके पास खर्च के लिए कोई रकम नहीं थी और फिर उन्होंने एक जरी के कारखाने में काम करना शुरू कर दिया। वे लोकल ट्रेन में बिना टिकट यात्रा करते थे यहां तक कि उन्होंने ताज पेलैस होटल में बेलबॉय के पद के लिए भी आवेदन किया था।

अंतत: शाह को नटराज स्टूडियो में ‘एक्स्ट्रा’ के तौर पर काम मिल गया जिसके लिए उन्हें साढ़े सात रूपये दिए गए। इस काम को दिलाने में उस लड़की के रिश्ते के भाई ने उनकी सहायता की थी। यह फिल्म ‘अमन’ थी जिसमें राजेंद्र कुमार एक चिकित्सक के किरदार में थे। यह दृश्य राजेंद्र के किरदार के निधन का दृश्य था और शाह विलाप करने वाले लोगों में से एक थे।

राजकपूर की ‘सपनों के सौदागर’ में शाह अपने आप को नहीं ढूंढ पाए थे। शाह के पिता के हस्तक्षेप के बाद शाह की यह यात्रा जल्दी ही खत्म हो गई। वे दो महीने से बेटे के अदृश्य होने से चिंतित थे। शाह के पिता अजमेर शरीफ की दरगाह के प्रबंधकों में से एक थे और इस मामले में उन्होंने मुंबई में अपनी एकमात्र परिचित दिलीप कुमार की बहन से संपर्क साधा।

एक दिन वह फुटपाथ पर बैठे थे और एक थोड़ी परिचित सी लग रही महिला ने उन्हें कार में बैठने के लिए कहा और वह कार को सीधे दिलीप कुमार के पानी हिल वाले बंगले पर ले गईं। दिलीप साहब के बंगले पर रूकने के दौरान उन्हें बंगले के तलघर में रहने को जगह दी गई थी लेकिन शाह का कहना है कि उन्हें पूरे घर में कहीं भी आने जाने की आजादी थी।

पुरानी यादों को याद करते हुए वे लिखते हैं, मैं अक्सर उनके ड्राइंग रूम में जाया करता था जहां एक शेल्फ पर छह या सात फिल्मफेयर पुरस्कार एक कतार में रखे हुए थे। मैंने उनमें से एक को उठाने का प्रयास किया और वह मुझे बहुत भारी मालूम हुआ, मैंने सोचा कि यह जड़ा हुआ है। खर मैंने किसी तरह उसे एक हाथ से उठाया और दूसरा हाथ लहराते हुए एक धन्यवाद भाषण दिया। वहां रहने के दौरान एक बार उन्होंने दिलीप साहब से बात की तो उन्होंने उनके अभिनेता बनने के ख्वाब को लेकर उन्हें हतोत्साहित किया। दिलीप साहब से उन्हें इस बात पर एक छोटा सा लेक्चर देते हुए कहा, अच्छे परिवार से आने वाले लड़कों को फिल्म जगत में नहीं आना चाहिए। नसीर आज भी दिलीप कुमार को एक बेहतर अदाकार मानते हैं और उनकी तारीफ करते हैं।

 

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