1993 से 2010 तक किए गए कोयला ब्लॉक आवंटन गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट
Advertisement

1993 से 2010 तक किए गए कोयला ब्लॉक आवंटन गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट

कोल ब्लॉक आवंटन पर बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि कोल ब्लॉक आवंटन सही नहीं थे। कोर्ट ने कहा कि कोल ब्लॉक्स के आवंटन में दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया और आवंटन में पारदर्शिता नहीं बरती गई।

1993 से 2010 तक किए गए कोयला ब्लॉक आवंटन गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट

ज़ी मीडिया ब्यूरो

नई दिल्ली : कोल ब्लॉक आवंटन पर बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि कोल ब्लॉक आवंटन सही नहीं थे। कोर्ट ने कहा कि कोल ब्लॉक्स के आवंटन में दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया और आवंटन में पारदर्शिता नहीं बरती गई। कोर्ट ने कहा कि आवंटन में नियमों की अनदेखी की गई। साथ ही कोर्ट ने कहा है कि कोल ब्लॉकों का आवंटन रद्द करने के लिए आगे सुनवाई की जरूरत है। कोर्ट ने मामले की सुनवाई के लिए एक सितंबर की तारीख तय की है।   मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि वर्ष 1993 के बाद कोल ब्लाकों के आवंटन गैरकानूनी हैं।

प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा, न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की खंडपीठ ने 218 कोयला खदानों के आबंटन की जांच पड़ताल की और कहा कि ‘राष्ट्रीय संपदा के अनुचित तरीके से वितरण की प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता नहीं थी‘ जिसका ‘खामियाजा लोकहित और जनहित को चुकाना पड़ा।’

न्यायाधीशों ने कहा, ‘कोई भी राज्य सरकार या राज्य सरकार के सार्वजनिक उपक्रम वाणिज्यिक उपयोग के लिये कोयले का उत्खनन करने की पात्र नहीं हैं।’ न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय संसाधन आबंटन संदर्भ की राय के अनुरूप अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं के लिये बिजली की न्यूनतम दर हेतु हुयी प्रतिस्पर्धात्मक बोलियों के मामले में कोयला खदानों को रद्द करने के लिये उसके समक्ष कोई याचिका दायर नहीं की गयी है।

लेकिन न्यायालय ने कहा कि ‘इसे ध्यान में रखते हुये यह निदेश दिया जाता है कि अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं के लिये आबंटित कोयला खदानों का इस्तेमाल सिर्फ इन्हीं परियोजनाओं के लिये होगा और इनके किसी भी तरह से वाणिज्यिक दोहन की अनुमति नहीं होगी।’

न्यायालय ने 163 पेज के फैसले में कहा कि जांच समिति और सरकारी व्यवस्था दोनों के ही माध्यम से हुये आबंटन मनमाने और गैरकानूनी हैं और सिर्फ इस सीमित मकसद के हेतु इसके अंजाम तय करने के लिये आगे सुनवाई की जरूरत है।

इस संबंध में एक सितंबर को आगे सुनवाई होगी। न्यायालय ने यह फैसला सुनाने के बाद मौखिक रूप से कहा कि हालांकि अटार्नी जनरल ने कोयला खदानों की संख्या के बारे में जानकारी दी थी लेकिन इनका सत्यापन नहीं हुआ था और राज्य सरकारों ने भी आपत्ति की थी। न्यायालय ने कहा कि शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सदस्यता वाली एक छोटी समिति बनाने का सुझाव दिया जो कम से कम समय में अपनी रिपोर्ट दे। न्यायालय ने कहा कि इन मसलों पर भी गौर करना होगा।

न्यायलय ने वकील मनोहर लाल शर्मा और गैर सरकारी संगठन कामन काज की 2012 में दायर जनहित याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई की थी। इन याचिकाओं में संबंधित अवधि के दौरान किये गये इन खदानों के आबंटन रद्द करने का अनुरोध किया था।

न्यायालय ने कहा, ‘संक्षेप में, 14 जुलाई, 1993 से 36 बैठकों में जांच समिति की सिफारिशों के आधार पर किये गये कोयला खदानों के सारे आबंटन और सरकारी व्यवस्था के जरिये किये गये आबंटन मनमनर्जी की खेट और कानूनी खामियों से ग्रस्त हैं।’ न्यायाधीशों ने कहा, ‘जांच समिति में कभी भी तारतम्यता नहीं रही। इसमें पारदर्शिता नहीं थी। सही तरीके से विचार नहीं किया गया। इसने कई मामलों में तो सामग्री नहीं होने के बावजूद कार्रवाई और अक्सर संबंधित तथ्य ही उसके निर्देशित तथ्य हो गये और इसमें कोई पारदर्शिता नहीं थी।’

न्यायालय ने कहा कि कई अवसरों पर दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया गया। न्यायालय ने कहा कि सरकारी व्यवस्था के माध्यम से कोयला खदानों के आबंटन के मामले में अपनाया गया तरीका, उद्देश्य भले ही सराहनीय रहा हो, भी गैरकानूनी था क्योंकि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण कानून की योजना के तहत इसकी अनुमति नहीं थी।

न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रम वाणिज्यिक उद्देश्य के लिये कोयले का उत्खनन करने के पात्र नहीं थे क्यों कि धारा 3(3) और (4) के तहत पात्र श्रेणी को ही कोयला ब्लाकों के आबंटन की अनुमति दी जा सकती थी। पात्रता नहीं रखने वाली फर्मो के साथ संयुक्त उपक्रम की व्यवस्था की भी अनुमति नहीं दी जा सकती थी। न्यायालय ने कहा कि इसी तरह आबंटन के लिये किसी प्रकार के संगठन या एसोसिएशन का सवाल ही नहीं उठता।

न्यायालय ने कहा कि कोयला खदान राष्ट्रीय कानून कानून की धारा 3 (3) में संदर्भित पात्रता की शर्तो के अनुसार केन्द्र सरकार, केन्द्र सरकार की कंपनी या फिर केन्द्र सरकार के निगम के अलावा केवल वही उपक्रम आवंटन की पात्रता की श्रेणी में आता हैं जिनकी इकाइयां लौह और इस्पात का उत्पादन तथा बिजली के उत्पादन, खदान से मिले कोयले की धुलाई या सीमेन्ट का उत्पादन करती हों।

न्यायालय ने अपने निष्कर्ष में कहा कि यह स्पष्ट किया जा सकता है और हम ऐसा कर रहे हैं कि अल्ट्रा मेगा विद्युत परियेाजना के लिये न्यूनतम दर वाली प्रतिस्पर्धात्मक बोलियों के मामले में कोयला खदानों को हमारे समक्ष चुनौती नहीं दी गयी है।

न्यायालय ने कहा कि कामन काज संगठन के वकील प्रशांत भूषण का तर्क था कि चूंकि अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं के लिये आबंटन प्राकृतिक संसाधन आबंटन संदर्भ की राय के अनुरूप किया गया है और ऐसे आबंटन का लाभ जनता को पहुंचाया गया है, इसलिए ऐसे आबंटन रद्द नहीं होने चाहिए।

न्यायालय ने गैर सरकारी संगठन के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि जिन मामलों में सरकार ने अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं से कोयले को दूसरे कार्यो में इस्तेमाल की अनुमति दी थी, उन्हें ऐसा करने से रोकने का आदेश दिया जाना चाहिए।

न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘इसे ध्यान में रखते हुये यह निर्देश दिया जाता है कि अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं के लिये आबंटित कोयला खदानों का इस्तेमाल सिर्फ इसी के लिये होगा और इसके कोयले का वाणिज्यिक दोहन करने की अनुमति नहीं दी जायेगी।’’

जनहित याचिकाओं में शुरू में करीब 194 कोयला खदानों के आबंटन में अनियमितताओंे का आरोप लगाते हुये कहा गया था कि संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान हुये दिशानिर्देशों का सही तरीके से पालन नहीं किया गया लेकिन बाद में शीर्ष अदालत ने 14 जुलाई, 1993 से किये गये आबंटन को जांच के दायरे में ले लिया था। झारखंड, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडीशा और मध्य प्रदेश में कोयला खदानें निजी कंपनियों और लोगों को आबंटित की गयी थीं।

ये मामले जब सुनवाई के लिये आये तो केन्द्र सरकार ने विस्तृत विवरण पेश किया और 218 खदानों के बारे में न्यायालय को सूचित किया। केन्द्र सरकार ने कहा कि इनमें से 105 खदाने निजी कंपनियों को, 99 खदानें सरकारी कंपनियों और 12 अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजनाओं को आबंटित किये गये थे।

केन्द्र सरकार ने यह भी सूचित किया था कि दो कोयला खदानें सीटीएल परियोजनाओं के लिये आबंटित किये गये थे। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ही 41 कोयला खदानों का आबंटन खत्म किया गया था। 2012 में जब ये याचिका दायर हुयी तो आरोप लगाया गया था कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने कोयला खदानों में अनियिमतताओं के कारण देश को करीब 1.64 लाख करोड़ रूपए के नुकसान का अनुमान लगाया था।

शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार की इस दलील को अस्वीकार कर दिया था कि सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर ये याचिका दायर की गयी हैं और ये अपरिपक्व हैं क्योंकि अभी लोक लेखा समिति को आबंटनों के बारे में जांच करना है। शीर्ष अदालत ने इस घोटाले की सीबीआई जांच की निगरानी कर रहा था और इससे संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिये विशेष अदालत का भी गठन किया गया था। (एजेंसी इनपुट के साथ)

 

ये भी देखे

Trending news