भारत में बदहाल पशुधन और कृषि
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भारत में बदहाल पशुधन और कृषि

भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में कृषि प्रधानता और पशुधन की परिकल्पना प्राचीन समय से ही रही है। किसी भी समाज में खाद्य-सुरक्षा के लिए कृषि उत्पाद और पशुधन उत्पाद की उपल्बधता आवश्यक मानी जाती है।

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अवधेश कुमार मिश्र
भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में कृषि प्रधानता और पशुधन की परिकल्पना प्राचीन समय से ही रही है। किसी भी समाज में खाद्य-सुरक्षा के लिए कृषि उत्पाद और पशुधन उत्पाद की उपल्बधता आवश्यक मानी जाती है। इस चीज को अगर हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो पता चलता है कि ग्रामीण भारत में कृषि के साथ ही साथ पशुपालन की परंपरा भी समानांतर ढ़ंग से चलती रही है। ग्रामीण जीवन में पशुपालन ही वो जरिया है जो किसानों की नियमित आय का साधन बनता है और यही वजह है कि कृषि के साथ ही साथ लगभग 72 फीसदी ग्रामीण घरों में पशुपालन किया जा रहा है। पूरे देश में पशुपालन ने उन लोगों के लिए संजीवनी का काम किया है जो भूमिहीन या बेरोजगार हैं।
ऐसे में यह सवाल विचारणीय हो जाता है कि आखिर वजह क्या है कि पशुधन का विकास निराशाजनक हो चुका है कृषि विकास दर भी लगातार नकारात्मक बिंदु की ओर अग्रसर है। पशुधन में मामले में भारत का दुनिया में पहला स्थान है। 18वीं पशुधन जनगणना 2007 के मुताबिक भारत में पशुधन की कुल संख्या 52 करोड़ है। पशुधन की इस आबादी में 20 करोड़ गाय-बैल, 10 करोड़ भैंस और 14 करोड़ बकरियां हैं जिनका दूध वृहद स्तर पर उत्पादित किया जा रहा है और दुग्ध उत्पादन में भी हिंदुस्तान दुनिया भर में अव्वल है।
हिंदुस्तान ने साल 2012-13 में 133 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया और सालाना वृद्धि पर गौर करें तो 2011-12 से यह 5 फीसदी के आस-पास है। केवल दुग्ध उत्पादन ही नहीं बल्कि पशुधन से संबंधित हर उत्पाद अर्थव्यवस्था को बल दे रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011-12 में पशुधन उत्पादन का मूल्य 3,05,484 करोड़ रहा, जो धान और गेंहू के उत्पादन मूल्य से अधिक है। ऐसे में पशुधन के विकास की तरफ सरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है। पशुधन के विकास पर नजर डालें तो पता चलता है कि 1951 में गाय-भैंसों की संख्या 19.8 करोड़ थी जो 2006-07 में 30.4 करोड़ ही पहुंच पाई।
न तो पशुधन की आबादी बढ़ाने के क्षेत्र में कोई खास पहल हो सकी और न ही नस्लसुधार में कोई क्रांति नजर आयी। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह उदासीनता केवल पशुधन के मामले में ही है, कमोबेश कृषि क्षेत्र का हाल भी ऐसा ही है।
हरित क्रांति के दम पर खाद्यान्न उत्पादन में निसंदेह भारी वृद्धि हुई लेकिन लगातार घटती कृषिभूमि को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं गया। 1979 में 16.34 करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य थी जो अब घटकर 14 करोड़ हेक्टेयर पर आ चुकी है। हालांकि हरित क्रांति की रणनीति ने खाद्यान्न उत्पादन में स्वावलंबन की स्थिति पैदा की और खाद्यान्न उत्पादन 1960-61 में 8.2 करोड़ टन से बढ़कर 2011-12 में 25 करोड़ टन हो गया लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि जीडीपी में कृषि का योगदान लगातार नीचे गिर रहा है।
2011-12 में कृषि विकास दर 2.8 प्रतिशत पर आ गई है और जीडीपी में योगदान महज 13.7 फीसदी रह गया है। बात 2009-10 की करें तो जीडीपी में कृषि का योगदान 14.6 फीसदी था। इन परिस्थितियों में प्रश्न यही उठता है कि आखिर खाद्य सुरक्षा के लिए अहम माने जाने वाले कृषि उत्पादन और पशुधन उत्पादन के प्रति देश में उदासीनता क्यों बनी हुई है।
उद्योग बढ़ रहे हैं कृषिभूमि घट रही है, पशुधन की आबादी तो है लेकिन नस्ल सुधार न होने की वजह से वह उत्पादन संभव नहीं हो पा रहा है जो उत्पादन पश्चिमी देश कम पशुधन के बावजूद भी कर रहे हैं। हालांकि पशुधन के विकास के लिए 2013-14 के केंद्रीय बजट में राष्ट्रीय पशुधन मिशन के स्थापना की घोषणा है की गई है लेकिन सवाल यही कि घोषणा करने भर से लक्ष्य पूरा हो जाएगा ? घोषणाएं कृषि क्षेत्र के लिए भी हर साल होती हैं लेकिन परिणाम क्या होता है वो किसी से भी छिपा नहीं है।
(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स मध्यप्रदेश/ छत्तीसगढ़ में एसिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)

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