संघ का अंतिम लक्ष्य
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संघ का अंतिम लक्ष्य

संघ का अंतिम लक्ष्य

 वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

संघ बीजेपी को देश की सत्ता तक पहुंचाने का लक्ष्य पा चुका है लेकिन संघ की राजनैतिक गतिविधियां रुकी नहीं हैं। पार्टी के लिए संघ कई अहम फैसले ले रहा है। ताकि अपने अंतिम लक्ष्य को पा सके। इसी अंतिम लक्ष्य के लिए संघ ने भारतीय जनता पार्टी की आधारशिला रखी। बिना फ्रंट पर आए सतत कोशिशें जारी रखीं ताकि देश की कमान बीजेपी के हाथ में आए। अब जब पहली बार बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला है तो संघ की कोशिश है कि जनता से मिले इस भरोसे को टूटने ना दिया जाए। लिहाजा हर स्तर पर संघ अपनी रणनीति के तहत काम कर रहा है।

जहां संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति संगठन मंत्री और संघ प्रभारी के तौर पर हुआ करती थी अब उन्हें लोकसभा और विधानसभावार नियुक्त किया जा रहा है। ताकि पार्टी के प्रतिनिधियों के काम-काज पर संघ सीधे नज़र रख सके और ज़रूरत पड़ने पर दखल दे सके। ये कवायद बीजेपी को जड़ों तक मजबूत बनाए रखने की है। ताकि सफलता का सिलसिला जारी रह सके और लगातार सफलता के जरिए संघ अपने उस अंतिम लक्ष्य को हासिल कर सके। लक्ष्य समाज के हर तबके को साथ लिए हुए संपूर्ण हिंदू राष्ट्र बनाने का।

इस कड़ी को बीजेपी के अध्यक्ष बने अमित शाह के फैसले आगे बढ़ा रहे हैं। मसलन बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने ये तय किया है कि सांसद निधि का प्रयोग अब संगठन तय करेगा और संगठन ही विकास कार्यों का एजेंडा बनाएगा। इतना ही नहीं संघ के कार्यकर्ता इन कामों पर नज़र भी रखेंगे। अगर ऐसा हो जाता है तो बीजेपी के सांसदों की संघ के प्रति पूरी जिम्मेदारी हो जाएगी। उन्हें अपने क्षेत्र में सांसद निधि का इस्तेमाल करने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के साथ मिल बैठकर ही एजेंडा तय करना होगा।
 
दरअसल सांसद निधि के दुरुपयोग का सवाल नया नहीं है। सांसदों को पहले भी अधिकार था कि वो अपने क्षेत्र के विकास कार्यों की समीक्षा और गुणवत्ता की जांच कर सकते हैं, हालांकि इसके बाद भी विकास का पैसा बिचौलियों की जेब में चला जाता था लेकिन अब जबकि हर कार्यकर्ता की भूमिका इसमें रहेगी तो पारदर्शिता की गुंजाइश बढ़ जाएगी और कामों में भी तेजी आएगी।

ये फैसला आम नहीं है, अब तक आमतौर पर ऐसा होता आया है कि बीजेपी की जीत में भले ही संघ के कार्यकर्ताओं का बड़ा हाथ रहता हो। जीत के बाद बीजेपी अपने काम को लेकर स्वतंत्र रहा करती थी और संघ पूरी तरह बैकग्राउंड में चला जाता था लेकिन अब बदले हालात में देश में पूर्ण बहुमत की सरकार दिलाने के बाद संघ बैकग्राउंड में जाता नज़र नहीं आ रहा। संघ, सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल बनाकर आगे बढ़ने के लिए तमाम बदलाव किए जा रहे हैं।

संघ अपनी भूमिका नेतृत्व के हिसाब से तय करता है। जब इससे पहले बीजेपी की सरकार में कमान अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ में थी तो संघ बैकग्राउंड में था। लाल कृष्ण आडवाणी अध्यक्ष थे तब भी संघ बैकग्राउंड में रहकर काम करता रहा। लेकिन मोदी की शख्सियत अटल-आडवाणी से अलग है। मोदी कामयाबी का मंत्र जानते हैं लेकिन उनके जीवन और व्यक्तित्व से कई सवाल और विवाद भी जुड़े हैं। लिहाजा संघ बैकग्राउंड में रहकर काम करने से कतरा रहा है। ये भी तय है कि संघ के इस भूमिका में रहने पर देर-सवेर विवाद होगा, हो सकता है संघ की विचारधारा से जुड़े अलग-अलग संगठन नाराज हो जाएं जैसा कि ज़मीन अधिग्रहण, लेबर रिफॉर्म्स, और जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप के मुद्दे पर भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण को मोदी के विकास का एजेंडा रास नहीं आ रहा, लेकिन संगठन की मजबूती और कार्यकर्ताओं में जोश बनाए रखने के लिए संघ अपनी भूमिका तय कर चुका है।

बहरहाल संघ की ये रणनीति पहली नजर में कारगर तो दिखती है लेकिन संघ के कार्यकर्ताओं को सीधे स्थानीय स्तर से सक्रिय सियासत का हिस्सा बनाना दोधारी तलवार पर चलने जैसा भी हो सकता है। अतीत में ऐसे कई मौके आए हैं जब राजनीतिक रंग में रंगने के बाद संघ कार्यकर्ताओं पर भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन के आरोप लगे हैं। तो वहीं कई ऐसे भी मौके आए हैं जब संघ के ऐसे सक्रिय कार्यकर्ताओं को परम्परागत राजनीति में रंगने की कोशिशें हुई है। तो सवाल ये कि संगठन मजबूत करने की कवायद कहीं भारी तो नहीं पड़ेगी और ये भी कि कहीं इस कवायद में संघ का मूल चरित्र चेहरा और चिंतन तो नहीं बदल जाएगा

 

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