मैनिफेस्टो ऑफ ‘मुफ्तखोरी’
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मैनिफेस्टो ऑफ ‘मुफ्तखोरी’

राजनीति में आजकल मुफ्तखोरी का दौर है....सियासत के तरीके बदले तो सियासी वादों की शक्ल भी बदल गई....आजादी के बाद देश में चुनावी वादों के कई रंग देखे हैं

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वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स
राजनीति में आजकल मुफ्तखोरी का दौर है....सियासत के तरीके बदले तो सियासी वादों की शक्ल भी बदल गई....आजादी के बाद देश में चुनावी वादों के कई रंग देखे हैं...लेकिन मौजूदा दौर सबसे अलग है इतना अलग कि देश की सबसे बड़ी अदालत को इसे लेकर टिप्पणी करनी पड़ी....और अब चुनाव आयोग ने गाइडलाइन जारी किया है और राजनीतिक दलों से जवाब मांगा है...अब सवाल ये कि सियासत की ये नई रवायत राजनीतिक माहौल को किस दिशा में ले जा रही है।
 
एक बार फिर सबसे बड़े घमासान के लिए जमीन तैयार हो रही है...एक बार फिर सबसे बड़े जंग में हर महारथी अपना सबसे धारदार हथियार आजमाने की कोशिश में है...ऐसे में चर्चा ये भी चल पड़ी है कि आखिर किसके वादों का रंग कितना चोखा होगा और किसके वादों का रंग सिर्फ धोखा होगा....दरअसल धोखे की इस सियासत का नाम ही है मुफ्तखोरी की सियासत जिसका चलन आजकल कुछ ज्यादा ही तेज हो चुका है...विकास के चोले में लिपटे इन वादों की हकीकत तब समझ में आती है जब सत्ता पाने के बाद इन पर अमल शुरू होता है और नतीजा हर बार यही कि जनता के हाथ कुछ नहीं आता।
 
देश की आजादी के बाद राजनीति ने रंग कई बार बदला है, कई बार मुद्दों की आंधी चली है, कई बार अवाम से जुड़ी समस्याओं ने तख्त-ओ-ताज हिलाए हैं...कभी जेपी आंदोलन के जरिए सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का नारा बुलन्द होता है...तो कभी मंडल-कमंडल के जरिए सियासी आवाजे बुलन्द होती हैं और एक झटके में राजनीतिक फलक पर नए नायक पैदा हो जाते हैं...कभी तिलक तराजू और तलवार के जुमले मशहूर होते हैं तो कभी समाजवाद की गर्जना में तुष्टिकरण की आंच दिखने लगती है...लेकिन उपभोक्तावाद की चाशनी में लिपटे राजनीतिक दौर में अब वक्त की नजाकत को भांप कर मुद्दे तलाश किए जाने लगे हैं...कम से कम बीते एक दशक में तो ऐसा ही हुआ है।
 
साल 2006 में तमिलनाडु में डीएमके ने फ्री कलर टीवी बांटने का वादा किया और सत्ता में आने के बाद 4000 करोड़ रुपए खर्च करके इस वादे को पूरा किया...सरकारी खजाने की इस रकम का समायोजन कैसे किया गया ये अभी भी एक सवाल है। वहीं, 2011 में जब जयललिता तमिलनाडु की सत्ता में आईं तो मंगलसूत्र देने की शुरुआत की...साथ ही 10 हजार 200 करोड़ रुपए खर्च करके सूबे में 68 लाख लैपटॉप बांट दिए। हालिया गुजरात के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने मुफ्त घर देने का वादा किया तो बीजेपी ने भी इसे लिस्ट में शामिल कर लिया।
ओडिशा में नवीन पटनायक साहब ने फ्री मोबाइल बांट दिए तो यूपी में अखिलेश यादव ने लैपटॉप और टैबलेट देने के वादों की ऐसी आंधी चलाई कि पहली बार पूर्व बहुमत से सत्ता तक पहुंच गई। मुफ्त की चीज भला किसे अच्छी नहीं लगती...लेकिन सियासत के काहिलपने की इस मिसाल को क्या वाकई जायज ठहराया जा सकता है...ये सवाल इसलिए भी कि जिन भी राज्यों में मुफ्तखोरी का ये सियासी फॉर्मूला चुनावी लिहाज से हिट रहा है बाद में उन राज्यों में इसे लेकर सवाल भी उठे हैं, आर्थिक स्थिति का रोना भी रोया गया और फिर केन्द्र से इसके लिए फंड के नाम पर नई सियासत शुरू हो गई....वो केन्द्र सरकार जो तरह-तरह की सब्सिडी के नाम पर पहले से ही दुम दबाए बैठे है....तो सवाल ये कि फिर इन मुफ्त के वादों का हश्र क्या हुआ...भूखे पेट मोबाइल, कलर टीवी, लैपटॉप जैसी योजनाओं का क्या मतलब, बिना बिजली पानी के इनकी क्या अहमियत।
जाहिर है तर्कवादियों के ये सवाल कठिन हैं लिहाजा खुद को सबसे ईमानदार कहने वाली एक पार्टी ने बिजली पानी को लेकर ही खेल कर दिया....कहा बिजली का बिल आधा करेंगे और पानी मुफ्त करेंगे...वादे फिर हिट हुए और जब हकीकत से सामना हुआ तो मुफ्त पानी का दायरा 666 लीटर रोज और बिजली का आधा दाम 400 यूनिट हर महीने पर सिमट गया...जनता एक बार फिर ठगी गई।
 
जुलाई 2013 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने चुनावी मुफ्तखोरी के वादों पर चिन्ता जताई दी और चुनाव आयोग को इसके लिए दिशानिर्देश तैयार करने को कहा था....कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा-पत्र में जनता को मुफ्त उपहार दिए जाने का वादा लोगों को प्रभावित कर सकता है और इससे निष्पक्ष चुनाव बाधित हो सकता है। कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा जनता से टेलीविजन और लैपटॉप सहित अन्य मुफ्त उपहारों का वादा जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 123 के अंतर्गत एक भ्रष्ट परंपरा है।
 
अब चुनाव आयोग ने इसके लिए गाइडलाइन बनाई है जिसमें बड़े चुनावी वादे करने के साथ अब ये भी बताना होगा कि इसके लिए संसाधन कैसे और कहां से जुटाए जाएंगे। ऐसे में बीजेपी के पीएम प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी की घोषणा पर सवाल पूछे जा सकते हैं तो दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के सस्ती बिजली और ठेका कर्मचारियों को नियमित करने के वादे पर भी तलवार लटक सकती है...चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को मसौदा भेजकर 7 फरवरी तक जवाब मांगा है।
 
जाहिर है अब जबकि चुनाव आयोग ने मसौदा बनाकर सियासी पार्टियों को भेज दिया है और जवाब मांग लिया है तो यकीनन इस मसौदे का जवाब देना सियासी जमात के लिए टेढ़ी खीर होगी...फिर भी इंतजार तो रहेगा कि आखिर राजनीतिक धुरंधर आयोग के सामने कौन सी दलीलें पेश करते हैं...कहते हैं उम्मीदों की सवारी शेर की सवारी की तरह ही होती है....उम्मीदों के लहर पर सवार शख्स को खुद के सबसे ताकतवर होने का अहसास होता है....लेकिन शेर की पीठ और उम्मीदों की लहर से उतरना आसान नहीं होता...और ये आत्मघाती हो सकती है...लेकिन शायद हमारी सियासत और सियासतदां इसे जानकर भी समझना नहीं चाहते।
 
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