सिद्धांत, सियासत और सत्ता
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सिद्धांत, सियासत और सत्ता

देश की राजनीति ने इस साल एक ऐतिहासिक बदलाव देखा है। परंपरागत राजनीति से परे उसूलों के सहारे परिवर्तन की राजनीति ने राजधानी दिल्ली की सत्ता पर पिछले 15 साल से काबिज 128 साल पुरानी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। हो सकता है कि ऐसा बदलाव लेकर आने वाली आम आदमी पार्टी के पास सिद्धांत ना दिखें लेकिन क्या ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनीति में बिना सिद्धांतों के सहारे आने वाली पार्टी सत्ता में आई हो।

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वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स
देश की राजनीति ने इस साल एक ऐतिहासिक बदलाव देखा है। परंपरागत राजनीति से परे उसूलों के सहारे परिवर्तन की राजनीति ने राजधानी दिल्ली की सत्ता पर पिछले 15 साल से काबिज 128 साल पुरानी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। हो सकता है कि ऐसा बदलाव लेकर आने वाली आम आदमी पार्टी के पास सिद्धांत ना दिखें लेकिन क्या ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनीति में बिना सिद्धांतों के सहारे आने वाली पार्टी सत्ता में आई हो।
कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी कहते हैं कि बिना विचारधारा के कोई पार्टी आगे नहीं बढ़ सकती और अगर कोई पार्टी नारों के सहारे सत्ता पर काबिज होती है अराजकता, अव्यवस्था फैलेगी। अब सवाल ये उठते हैं कि जनार्दन द्विवेदी जी सियासत के किन सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, वो सिद्धांत जिनके सहारे कांग्रेस और बीजेपी आज तक सियासत करती आई है? सियासत में अक्सर दिलचस्प वाकये नज़र आते हैं। शख्स पार्टी बदलता है तो उसकी शख्सियत बदल जाया करती है। इत्तेहादे मिल्लत काउंसिल के तौकीर रज़ा जब मुलायम सिंह यादव के साथ होते हैं तो उन्हें दंगाई समझा जाता है लेकिन जब वो किसी और पार्टी का झंडा बुलंद करने लगते हैं तो वो ईमानदारी, विकास और बदलाव की राजनीति करने लग जाते हैं। जनार्दन द्विवेदी वैसे लोगों के लिए क्या कहेंगे जो बाबरी विध्वंस के दौरान बीजेपी और संघ की कटु आलोचना कर रहे थे लेकिन बाद में बीजेपी के टिकट पर ही चुनाव लड़ते नज़र आए और वो कौन सी विचारधारा की राजनीति थी कि बाबरी विध्वंस के आरोपी गैर बीजेपी दलों से जा मिले। तब किस विचारधारा की राजनीति हो रही होती है जब भ्रष्टाचार के आरोपी जब तक साथ रहते हैं तो ठीक रहते हैं और जब साथ छोड़ देते हैं तो भ्रष्ट नज़र आने लगते हैं।
सच तो ये है कि देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दल विचारधारा और सिद्धांत की बात सिर्फ जनता को गुमराह करने के लिए करते हैं, इनकी विचारधारा की राजनीति दिखावे की राजनीति है। इनका सिर्फ एक मकसद है, वो है सत्ता हासिल करना, इसके लिए विचारधारा से समझौता करना तो बहुत छोटी बात है, वो इसके लिए कुछ भी करने और किसी भी हद तक जाने को तैयार नज़र आते हैं। सच तो ये है कि महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डा. केशव बलिराम हेडगेवार के आदर्शों की बात करने वाले, उनके सिद्धातों की सियासत करने वाले दोनों राष्ट्रीय दल इन महापुरुषों के आदर्शों की तिलांजलि दे चुके हैं।
देश के दोनों राष्ट्रीय दलों के राजनैतिक इतिहास पर नज़र डालें तो इनके द्वारा सैकड़ों बार मूल्यों, सिद्धांतों की बलि दी जाती रही है। इन्होंने सत्ता हासिल करने के लिए, सत्ता में बने रहने के लिए हर समझौते किए हैं। शिबू सोरेन, सुखराम, तसलीमुद्दीन सरीखे नेता, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए की सरकार, मनमोहन सिंह और एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व नें चली कांग्रेस की सरकार में सम्मानित पदों पर रहे हैं। देश की दो बड़ी पार्टियों के सिद्धांत और सियासी समझौते की कई बानगी देश के इतिहास में मौजूद हैं। जरूरत पड़ने पर भिंडरावाले को मान्यता देने और नक्सली आंदोलन चलाने वालों से सांठगांठ करके सत्ता हथियाने के आरोप भी कांग्रेस पर लगते रहे हैं। कांग्रेस की ही सरकार थी जब झारखंड मुक्ति मोर्चा घूस कांड सामने आया। वहीं, पहली बार टेलीकॉम घोटाला सामने आने पर नरसिम्हा राव के कार्यकाल में जिस बीजेपी ने कई दिनों तक संसद नहीं चलने दी बाद में उसी पार्टी को इस घोटाले के जनक सुखराम की पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस के साथ हिमाचल में सरकार बनाने में बीजेपी को कोई गुरेज नहीं रहा।
देश के इतिहास में पहली बार डेढ़ दर्जन अपराधियों और दागियों को कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते उस वक्त बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह की पहल पर उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल में जगह दी गई। जो मुलायम सिंह यादव खुद को सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ बताते आए हैं, जिन्होंने सेकुलरिज्म का नारा बुलंद किया हुआ है उन्होंने भी कभी परोक्ष को कभी सीधे-सीधे बाबरी विध्वंस के नायक कल्याण सिंह से गठबंधन किया है। क्षेत्रीय दलों की स्थिति तो पहले से बेहद विवादास्पद रही है। डीएमके, एडीएमके, आईएनएलडी, अकाली दल और वाईएसआर कांग्रेस के तमाम नेताओं के विरुद्ध पहले से ही आर्थिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के मामले देश की अलग-अलग अदालतों में लंबित हैं। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार, कुशासन का विरोध करके महज एक साल पहले पैदा हुई `आप` के हाथों दिल्ली चुनाव में शर्मनाक हार का सामना कर चुकी कांग्रेस और बीजेपी किस मुंह से आम आदमी पार्टी से सिद्धांत और मूल्यों की राजनीति की अपेक्षा कर रही है।

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राजनीति में जिस तरह से आइडियोलॉजी की बात जनार्दन द्विवेदी कर रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि वो दिल्ली युनिवर्सिटी के क्लासरूम में हैं, क्योकि इस तरह की बातें क्लासरूम में ही अच्छी लगती हैं। एक वक्ता के रूप में तो सियासत में विचारधारा को लेकर उनके ये विचार अच्छे लग सकते हैं लेकिन एक राजनीतिक पार्टी के महासचिव के रूप में नहीं। विचारधाराओं को ताक पर रखने वाले सैकड़ों सियासी तालमेल के गवाह बन चुके जनार्दन द्विवेदी ये बयान देकर राजनीति के मंझे हुए लोगों के बीच हंसी के पात्र बनकर रह गए हैं। ये सच है कि जो आम आदमी पार्टी बनी है उसके पास सांप्रदायिकता, आर्थिक नीति, विदेश नीति को लेकर कोई स्पष्ट राय नहीं है, लेकिन करीब साल भर पुरानी पार्टी से इतनी अपेक्षा क्यों? 128 पुरानी कांग्रेस पार्टी, विचारधारा के मसले पर कांग्रेस से अलग होकर भारतीय जनसंघ, फिर बीजेपी बनने वाली पार्टी और क्षेत्रीय दलों के पास भी देश से जुड़े कई अहम मुद्दों पर कोई स्पष्ट राय नहीं है तो आम आदमी पार्टी से इतनी अपेक्षा क्यों?
जो लोग खुद को भारतीय राजनीति के पुरोधा, दर्शनशास्त्री समझते हैं उनको एक बार बीएसपी के इतिहास पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए। जब कांशीराम ने वामसेफ, डीएस4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) और फिर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तब उस पार्टी के पास भी विचारधारा नहीं थी, उन्होंने भी मुद्दों से राजनीति की शुरुआत की, और बीएसपी भी ऐसी इकलौती पार्टी नहीं है। ऐसे में जनार्दन द्विवेदी जी को अपने देश के राजनैतिक इतिहास में झांकना चाहिए। क्या जनता द्वारा चुनी गई आम आदमी पार्टी को अराजक कहना संविधान का अपमान नहीं है? क्या ये जनादेश का अपमान नहीं है? क्या ये दिल्ली की डेढ़ करोड़ जनता का अपमान नहीं है? जिस कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाने में आम आदमी पार्टी को जनादेश की दुहाई देकर समर्थन दिया है उस पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी आखिर इस तरह के बयान देकर कहना क्या चाहते हैं?

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