कुर्सी के लिए देशहित की बलि

श्रीलंका में राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक (चोगम सम्मेलन) में ना जाने का फैसला करके भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार फिर अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए तमिलनाडु के एक क्षेत्रीय दल के सामने घुटने टेक दिए हैं।

वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

श्रीलंका में शनिवार से शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक (चोगम सम्मेलन) में ना जाने का फैसला करके भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार फिर अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए तमिलनाडु के एक क्षेत्रीय दल के सामने घुटने टेक दिए हैं। इससे पहले यूपीए की सहयोगी रहीं ममता बनर्जी के विरोध के चलते ही बांग्लादेश के साथ होने वाले बहु-प्रतीक्षित तीस्ता समझौता पर होने वाली वार्ता को ऐन वक्त पर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था।

मनमोहन सिंह निजी तौर पर भले ही अपने मान-सम्मान की चिंता ना करें और सत्ता में बने रहने के लिए किसी हद तक समझौता करते रहें, लेकिन उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि वह 120 करोड़ की आबादी वाले भारत के प्रधानमंत्री भी हैं और प्रधानमंत्री के रूप में किया गया उनका हर कार्य और फैसला भारत के सम्मान से जुड़ा है।
दूसरी खास बात ये है कि कॉमनवेल्थ, नॉन एलाएन मूवमेंट और पंचशील पर चलने की नीतियां बनाने में भारत और खासकर पंडित जवाहर लाल नेहरु की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। मनमोहन सिंह आज उसी कांग्रेस पार्टी के नुमाइंदे की हैसियत से युनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाएंस की सरकार में प्रधानमंत्री हैं। इसीलिए, उनकी इस घुटनाटेक नीति के चलते भारत के साथ-साथ उस 125 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी का भी अपमान है।
सवाल ये नहीं है कि मनमोहन सिंह ने श्रीलंका में हो रहे कॉमनवेल्थ सम्मेलन का बहिष्कार किया है, सबसे बड़ा सवाल ये है कि मनमोहन सिंह ने अपने प्रिय नेता राजीव गांधी की उस कुर्बानी का भी अपमान किया है जिन्होंने इंडियन सब कॉन्टिनेंट में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए, अपने ही तमिल भाइयों के खिलाफ, प्रधानमंत्री के रूप में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स को भेज दिया था और इस डिप्लोमैटिक फैसले की कीमत राजीव गांधी को लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम के हमले में कुर्बानी देकर चुकानी पड़ी। वहीं लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम, जिसको शुरुआती दौर में भारत सरकार ने ही श्रीलंका में चल रहे सिविल वॉर में मदद की थी।
मनमोहन सिंह को भारत के संघीय ढांचे और इसके तहत केंद्र सरकार को प्राप्त अधिकार का भी इल्हाम होना चाहिए, डिफेंस, एक्सटरनल अफेयर और फाइनेंस से जुड़े मुद्दों पर क्षेत्रीय दलों की संकीर्ण राजनीति को नज़रअंदाज करते हुए राष्ट्रीय हितों की चिंता करनी चाहिए। मनमोहन सरकार की लचर विदेश नीति और कमजोर नेतृत्व के चलते पड़ोसी मुल्कों से भारत के रिश्ते पहले से ही खराब चल रहे हैं। चीन लगातार भारत की इस कूटनीतिक कमजोरी का राजनैतिक और स्ट्रैटिजिक फायदा उठाता रहा है।
पाकिस्तान और श्रीलंका में जिस तेजी से चीन का पूंजी निवेश बढ़ रहा है वह आने वाले समय में भारत के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है। ऐसी स्थिति में महज कुछ महीने और अपनी सरकार बचाए रखने के मकसद से कभी ममता बनर्जी तो कभी एम. करुणानिधि के सामने मनमोहन सिंह का आत्मसमर्पण करना किसी राष्ट्रद्रोह से कम गंभीर अपराध नहीं है।
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