मीडिया पर अंकुश आखिर क्यों?
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मीडिया पर अंकुश आखिर क्यों?

मीडिया की आवाज को दबाने और उस पर लगाम कसने की कोशिशें तब तब हुई हैं जब सरकारी प्रतिष्ठान के भ्रष्टाचार और उसके गैरलोकतांत्रिक आचरण को मीडिया ने जनता के सामने रखा है।

अम्बुजेश कुमार
ज़ी मीडिया
मीडिया की आवाज को दबाने और उस पर लगाम कसने की कोशिशें तब तब हुई हैं जब सरकारी प्रतिष्ठान के भ्रष्टाचार और उसके गैरलोकतांत्रिक आचरण को मीडिया ने जनता के सामने रखा है। इस बात का एक लम्बा इतिहास रहा है कि ज्यादातर मीडिया को शिकंजे में लेने की कवायद तभी हुई है जब सत्तानशीनों से जुड़े मामले में उजागर किए गए हैं और उनके जरिए सत्तापक्ष की किरकिरी हुई है। अब सवाल बड़ा ये कि अपने गिरेबान में झांकने की बजाय आखिर मीडिया को निशाना बनाने की प्रवृत्ति कहां तक सही है क्या मीडिया का मतलब सिर्फ सरकारों की तारीफ करना है। अगर मीडिया सरकार और सत्तापक्ष पर सवाल उठाता है तो उसे स्वस्थ आलोचना मानकर उसका स्वागत क्यों नहीं होता।
खबर दिखाना, खबरों का विश्लेषण करना और खबरों के जरिए वो सच सामने लाना जो जनता के लिए जरूरी है। लोकतंत्र में मीडिया का ये सबसे पहला कर्तव्य माना जाता है लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब भी मीडिया अपने इस ethics पर ईमानदारी से आगे बढ़ने की कोशिश करता है। उसे दुश्मन मान लिया जाता है। अतीत में ऐसे कितने ही मौके आए हैं जब मीडिया की खबरों ने सरकारी तन्त्र को हिला कर रखा दिया है और बदले में सरकारी तन्त्र ने खुद की गलतियों को सुधारने की बजाय मीडिया को ही बांधने की कोशिशें की हैं ये और बात है कि ऐसी हर कोशिश वक्त के साथ नाकाम हुई है लेकिन सवाल तो है।
सवाल ये कि आखिर इस नीयत का क्या करें, क्या लोकतन्त्र में जीने रहने और उसकी कसमें खाने वालों से ऐसे आचरण की उम्मीद रखी जा सकती है।माना कि राजनीति में नैतिकता की दुहाई देने वाले और नैतिक आचरण को जीने वालों में एक बड़ा फर्क है...लेकिन कम से कम लोकतन्त्र की स्वस्थ परम्परा को जीने के लिए क्या ऐसा जरूरी नहीं है। बात अगर कोई बड़ी हो तो समझ में आती है छोटी छोटी बातें भी सरकारों की सहनशीलता के लिए कड़ी चुनौती बन जाती हैं। ज्यादा वक्त नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश में ऐसा ही मामला सामने आया था। जब सैफई महोत्सव को लेकर मीडिया ने कुछ कड़वी हकीकत सामने लाने की कोशिश की थी तो सरकार इस आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाई और बजाय कि ऐसी नौबत आने की वजह तलाश की जाती सरकार के अधिकारियों ने केबल ऑपरेटरों पर दबाव डालकर दो चैनलों को यूपी से ब्लैकआउट करा दिया। क्या ये आलोचना को लेकर घटती सहनशीलता को नहीं दिखाता।
वैसे ये अकेला मामला नहीं है। यूपी में मौजूदा अखिलेश सरकार से पहले भी ऐसा ही एक मामला सामने आ चुका है। जब मायाराज के कुछ अधिकारियों ने सरकार के खिलाफ खबरें दिखाने पर ज़ी मीडिया ग्रुप के एक चैनल को यूपी में बैन कर दिया था।
ये घटनाएं ये बताती हैं कि सिर्फ सत्ता की ताकत जिसके पास भी रहे वो उसका इस्तेमाल वाजिब और गैरवाजिब दोनों तरीके से करना चाहता है। स्वस्थ आलोचना के दायरे सिमटते जा रहे हैं। ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब अन्ना आंदोलन के दौरान सरकार ने बकायदा एक जीओएम तक बना डाला था ताकि मीडिया की कवरेज पर नजर रखी जा सके। दरअसल अतीत में ऐसा कई बार हो चुका है। मीडिया को रोकने और उसे पूरी तरह सरकारी भोंपू बनाने देने की सबसे बड़ी कोशिश उस वक्त हुई थी जब देश में इमरजेंसी लगी थी।
इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान लगी इमरजेंसी में कई पत्रकार जेल में डाले गए । कई अखबार बैन कर दिए गए और अखबारों में खबरें सिर्फ सरकारी होती थीं। वो वक्त था जब संपादक अखबारों में संपादकीय की जगहें खाली छोड़ दिया करते थे।
खैर ये तो इमरजेंसी का दौर था। मीडिया पर एक अघोषित आपातकाल लगाने की कोशिश दोबारा तब हुई जब बोफोर्स का घोटाला सामने आया था। इस दौरान केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी। लगातार बोफोर्स घोटाले की छपती खबरों और उनमें सरकार पर उठते सवालों ने राजीव गांधी सरकार को इतना परेशान कर दिया कि आखिरकार राजीव गांधी ने जुलाई 1988 में संसद में मानहानि विधेयक रख दिया जो लोकसभा से पास भी हो गया लेकिन देश भर के पत्रकारों के कड़े विरोध ने सरकार को कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिए।
ये उस वक्त की बात है जब मौजूदा वक्त की 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी पैदा भी नहीं हुई थी लिहाजा ये जानना जरूरी है कि आखिर क्या था इस विधेयक में मानहानि विधेयक में खबरों या खुलासों को फासीवादी तरीके से दबाने की कोशिश की गई थी। इसके मुताबिक पत्रकारों पर आपराधिक मामला चलाकर दो से पांच साल तक की सजा का प्रावधान किया गया था।

इसके अलावा 27 अक्टूबर 1989 में सरकार ने भोपाल गैस त्रासदी पर बनी एक फिल्म को बैन कर दिया था। कहा गया कि इस फिल्म में तथ्यों को ठीक तरीके से नहीं दिखाया गया। जबकि इससे पहले ही ये फिल्म राष्ट्रीय अवॉर्ड जीत चुकी थी।
ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब मीडिया को सरकारी तन्त्र के भ्रष्टाचार के खिलाफ जाने की कीमत चुकानी पड़ी है। दक्षिण भारत में आज भी ऐसे कई चैनल हैं जो राजनीतिक शख्सियतों से ताल्लुक रखते हैं और जिनका प्रसारण सरकारे बदलने के साथ ही ऑन ऑफ होता रहता है. कुल मिलाकर मीडिया को दायरे में रखने की कोशिशों के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है उसे कम से कम एक बेहतर और मजबूत लोकतन्त्र के लिए जायज नहीं माना जा सकता। क्योंकि एक स्वस्थ लोकतन्त्र का ढांचा तभी मजबूत होता है जब आलोचक और आलोचना दोनों के लिए जगह बनी रहे।

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