कोयला खदान के लाइसेंस बांटने में किसके हाथ काले

इंदिरा गांधी ने 1973 में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया तो मनमोहन सिंह ने 1995 में ही बतौर वित्त मंत्री कोल इंडिया लिमिटेड से कहा कि सरकार के पास देने के धन नहीं है और उसके बाद कोल इंडिया में दोबारा ठेके पर काम होने लगा।

पुण्य प्रसून बाजपेयी
"बापू कुटिया से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट तक की जमीन तले कोयला खदान"
इंदिरा गांधी ने 1973 में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया तो मनमोहन सिंह ने 1995 में ही बतौर वित्त मंत्री कोल इंडिया लिमिटेड से कहा कि सरकार के पास देने के लिए धन नहीं है और उसके बाद कोल इंडिया में दोबारा ठेके पर काम होने लगा। पावर स्टील उद्योग के लिए कोयला खदान एक बार फिर निजी हाथों में जाने लगा।
असल में कैग की रिपोर्ट इन्हीं निजी हाथों में खदान देने के लिए अगर बोली न लगाए जाने पर अंगुली उठाकर 1.86 लाख करोड़ के राजस्व को चूना लगाने की बात कर रही है तो इससे इतर एक दूसरा सवाल इस घेरे में छिप भी रहा है। वह है खदान का लाइसेंस पाने की होड़ में ही कमाई खोजना और पर्यावरण को ताक पर रखकर खदानों को बांटना। क्योंकि टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियों की कई प्रजातियो के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा।
इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के वर्धा में जिस की बापू कुटिया को लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में 60 वर्ग मीटर की जमीन के नीचे खदान खोद दी जाएगी। असल में विकास की जिन नीतियों को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उद्योग के लिए कोयले की जरूरत है। और कोयले से करोड़ों का वारा न्यारा कर मुनाफा कमाने में 40 से ज्यादा कंपनियां सिर्फ इसीलिए बन गई जिससे उन्हें कोयला खदान का लाइसेंस मिल जाए।
2005-09 के दौरान कोयला खदानों के लाइसेंस का बंदरबांट कंपनियों को जिस तर्ज पर किया गया, अगर उसकी फेरहिस्त देखें और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके परखें तो पहला सवाल यही उठेगा कि लाइसेंस लेकर लाइसेंस बेचना भी धंधा हो गया। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्लॉक खदान मिलता रहा है तो 2005-09 के दौरान देशभर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्लॉक का लाइसेंस दिया गया है तो इन सभी को जोड़ने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा, इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है।
असल में पहले कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियों को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ता था। लेकिन अब जिसे भी कोयला खदान का लाईसेंस मिलेगा, उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरूरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियों के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा। लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियों के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं। यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खदान न हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खदान न हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योकि मंत्रियों के समूह में वित्त, वाणिज्य और कृषि मंत्री की इसपर सहमति हो कि कोयला खदानों के जरिये ही उद्योग के क्षेत्र में विकास हो सकता है।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते 2004 से 2009 तक में 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गए जिसमें 101 लाइसेंसधारकों ने कोयले का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिए लिया। लेकिन इन पांच सालों में इन्हीं कोयला खदानो के जरिये कोई नया पावर प्लांट नहीं आ पाया। इन खदानों से जितना कोयला निकाला जाना था अगर उसे जोड़ दिया जाए तो देश में कहीं भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खदान के लाइसेंस उन कंपनियों को दे दिए गए, जिन्होंने लाइसेंस इसीलिए लिए कि वक्त आने पर खदान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकीनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खदान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर गुटका, गंजी और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी है।
इतना ही नहीं, दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खदान से कोयला निकलवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाइसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरौली के करीब तीन पावर प्लांट और छह खदानें बिकने को तैयार हैं। एस्सार इन्हें खरीदना चाहता है और जो बेचना चाहते हैं वह लगाई जा रही कीमत से ज्यादा मुनाफा चाहते हैं। वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर ओडिशा तक कुल नौ राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कॉमर्शियल यूज के लिए कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कॉरपोरेट घरानों को बेच रहा है जिन्हें कोयले की जरूरत है।
इस पूरी फेरहिस्त में डोमको स्मोक लैस फ्यूल लि., श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन लि., जय बालाजी इंडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लि., महावीर फेरो, प्रकाश इंडस्ट्री, पवनजय स्टील, श्याम ओआरआई लि. समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं जिन्होंने कोयला खदान का लाइसेंस लिया है, लेकिन उन्होंने कभी खादानों की तरफ झांका भी नहीं। इनके पास कोई अनुभव न तो खदानों को चलाने का है और न ही खदानों के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाइसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरिये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखाई यह समझना भी कम त्रासद नहीं है।
जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लि., को ही लाइसेंस दिए जाने पर सहमति जताई। लेकिन उनके पर्यावरण मंत्री बनने से पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाइसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गए। असल में जयराम रमेश के बतौर पर्यावरण मंत्री की आपत्तियों को भी समझना होगा कि उन्होंने अडानी ग्रूप का लाइसेंस इसलिए रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन अब हालात उल्टे है क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिए पड़े हैं। इसमें मध्य प्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहां टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला, रावणवारा, सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खदान निर्धारित किया गया है। इस पर कौन रोक लगाएगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खदानों को जरिए मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा, इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है।
महाराष्ट्र में अब कहीं कोयला खदान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के 10 किलोमीटर के भीतर पावर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रों में कोयला खदान खोजी गई है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा, माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव, भांडक पूर्वी, दक्षिण वरोरा, जारी जमानी, लोहारा, मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जाएगा। यानी वर्धा की इन सभी खादानों में जिस दिन काम शुरू हो गया उस दिन से वर्धा की पहचान नए झरिया के तौर पर हो जाएगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहां सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है।
खास बात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खदानों को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मीट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है जिसमें 1931 मीट्रिक टन कोयला सिर्फ आनंदवन के इलाके में है। इसी तरह आदिवासियों के नाम पर ओडिशा में खदान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खदानों की नई सूची में झारखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लॉक कोयला खदान के लिए चुने गए हैं जिसमें तीन खदान तो उस क्षेत्र में हैं जहां आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़िया रहती है। राजमहल क्षेत्र के पचवाड़ा और करनपुरा के पाकरी व चीरु में 90 फीसदी आदिवासी हैं। लेकिन सरकार अब यहां भी कोयला खदान की इजाजत देने को तैयार है।
वहीं, बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं जहां 75 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं वहां पर भी कोयला खदाना का लाइसेंस अगले चंद दिनो में किसी न किसी कंपनी को दे दिया जाएगा। कैग रिपोर्ट आने के बाद किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर न लगे इसके लिए 148 कोयला खदानों के लिए अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है। लेकिन जिन इलाकों में कोयला खोजा गया है इस बार वही इलाका कटघरे में है।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)
(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)

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