मनमोहन सरकार के खिलाफ राहुल का हल्ला बोल

दागी नेताओं की मेंबरशिप बचाने के लिए भेजे गए ऑर्डिनेंस के प्रस्ताव का विरोध कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के सत्ता में बने रहने के संविधानिक स्थिति पर सवाल खड़ा कर दिया है।

वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

दागी नेताओं की मेंबरशिप बचाने के लिए भेजे गए ऑर्डिनेंस के प्रस्ताव का विरोध कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के सत्ता में बने रहने के संविधानिक स्थिति पर सवाल खड़ा कर दिया है। राहुल गांधी का बयान कांग्रेस पार्टी का नज़रिया है और इस बयान से एक बात बिल्कुल तय हो गई है, कि मनमोहन सिंह और उनकी कैबिनेट ने ऑर्डिनेंस का जो मसौदा तैयार करके राष्ट्रपति के पास भेजा था, उसका समर्थन कांग्रेस पार्टी अब नहीं करती है।
मनमोहन सिंह यूपीए-2 की सरकार में कांग्रेस पार्टी की नुमाइंदगी करते हैं और अगर कांग्रेस का उनसे भरोसा हट गया है, तो ऐसे में उनका और उनके मंत्रिपरिषद का अपने पद पर बने रहने का सांविधानिक अधिकार नहीं रह जाता है । अगर इसके बाद भी मनमोहन सिंह और उनका मंत्रिपरिषद अपने पद पर बना रहता है, तो ये खुद-ब-खुद एक बड़ा सांविधानिक संकट पैदा करता है।
राहुल गांधी ने भले ही बाद में ये कहकर कि ये विचार उनके निजी विचार हैं, स्थिति की गंभीरता को कम करने की कोशिश की हो, लेकिन नेहरु-गांधी परिवार की कार्यशैली से परिचित लोगों का ये साफ मानना है कि यह परिवार कभी भी गलत फैसलों की जिम्मेदारी खुद पर नहीं लेता। पंडित जवाहरलाल नेहरु से लेकर सोनिया गांधी तक इस परिवार के सभी नेता अलग-अलग समय में, ज़रूरत पड़ने पर अपने करीबी से करीबी नेताओं से किनारा करते रहे, जब भी उनको ऐसा लगा कि उनके करीबियों के काम-काज का नकारात्मक असर उनकी छवि और उनकी इंटिग्रिटी पर पड़ सकता है।
इंदिरा जी का कामराज प्लान हो या सोनिया जी का बोलकर मामले में नटवर सिंह का कांग्रेस से छुट्टी, सीताराम केसरी को बेइज्जत कर पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का मामला हो या जेएमएम घूसकांड के आरोप में फंसे नरसिंह राव से किनारा करना । कांग्रेस पार्टी के लगभग 108 साल पुराने राजनैतिक इतिहास में इस तरह के नमूने बार-बार देखने को मिलते रहे हैं।
मनमोहन सरकार के अध्यादेश पर लिए फैसले के विरोध की शुरुआत गांधी परिवार के करीबी दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित और मिलिंद देवड़ा सरीखे नेताओं ने 26 तारीख को ही शुरु कर दी थी। इस मुहिम को हवा देने में इंडिया के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। गांधी परिवार से प्रणब मुखर्जी का बहुत ही घनिष्ठ रिश्ता रहा है और इसके ठीक उल्टा केंद्रीय मंत्रिमंडल में सदस्य के रूप में प्रधानमंत्री और प्रणब मुखर्जी के बीच का मतभेद भी जगजाहिर रहा है। 26 सितंबर की प्रणब मुखर्जी की सक्रियता पर नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की बखिया उघेड़ने की जो पटकथा तैयार की गई थी उसमें कहीं ना कहीं प्रणब मुखर्जी की सकारात्मक भूमिका रही।
भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधिमंडल से मिलने के तुरंत बाद केंद्र सरकार के तीन वरिष्ठतम मंत्रियों को बुलाकर बातचीत करना और उसके एक दिन बाद राहुल गांधी का अचानक दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में जाकर प्रस्तावित अध्यादेश के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी करना, मनमोहन सिंह के प्रति कांग्रेस पार्टी के भावी नज़रिए को दर्शाता है। अब यह मनमोहन सिंह और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को तय करना है कि वे नैतिकता और सत्ता के बीच में किसको ज्यादा महत्व देते हैं?

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