यूपीए-2 में कौन मुस्कुरा रहा है

मेरे पास मनमोहन सिंह हैं। यूपीए-2 की शुरुआत सोनिया गांधी के इसी संकेत से हुई थी। जब उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में अपनी तस्वीर अपनी हथेली से ढककर सिर्फ मनमोहन सिंह की तस्वीर दिखायी थी। यानी 2004 में मेरे पास मां है का डायलाग सोनिया ने ही 2009 में यह कहकर बदला था कि उनके पास अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह है।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

मेरे पास मनमोहन सिंह हैं। यूपीए-2 की शुरुआत सोनिया गांधी के इसी संकेत से हुई थी। जब उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में अपनी तस्वीर अपनी हथेली से ढककर सिर्फ मनमोहन सिंह की तस्वीर दिखायी थी। यानी 2004 में मेरे पास मां है का डायलाग सोनिया ने ही 2009 में यह कहकर बदला था कि उनके पास अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह है। लेकिन सिर्फ तीन बरस बाद ही यही अर्थशास्त्र, राजनीति के छौंक के बगैर कैसे मेरे पास मनमोहन सिंह के डायलाग को खारिज कर देगी यह सोनिया गांधी ने भी नहीं सोचा होगा। बावजूद इसके यह वहली बार होगा जब सरकार को ईमानदारी का पाठ बताने में बेईमान होना ही पड़ेगा क्योंकि राजनीति का तकाजा यही है।
संसद की सीढियों पर मुस्कुराते हुये सुरेश कलमाडी का हर दिन चढ़ना। 15 महिने जेल में रहने के बाद ए. राजा का संसद में बैठकर लगातार चिदबरंम और मनमोहन सिंह को देखकर मुस्कुराना। क्रिकेट को धंधा बनाने पर बहस में शरद पवार का संसद में लगातार मुस्कुराना। शाहरुख खान पर प्रतिबंध के बयान के पीछे की राजनीति को संसद की गलियारे में अपने साथियों को चटखारे लेकर विलासराव देशमुख का सुनाना। संसद परिसर में राजीव शुक्ला का आईपीएल को लेकर नीतियों का जिक्र कर ठहाके लगाना। 22 और 29 रुपये में गरीब को रईस बताकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह का कैमरे का सामने बार बार हंसना। और हंसते हुये ही मंत्रालयों के बजट को सीमित कर पीएमओ के लिये ही हर मंत्री पर निगरानी रखना। और चलते हुये संसद सत्र के बीच रेल मंत्री को बजट पेश करते करते 72 घंटे में बिना प्रधानमंत्री से सलाह मशविरा किये बदलने का ऐलान कर देना। और उसके बाद कोई पूछे कि सरकार कैसी चल रही है तो कुछ जवाब तो सीधे निकलेंगे। मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की नहीं चलती। प्रधानमंत्री की सहयोगियों की सियासत पर। और सहयोगियों की सरकार में नहीं चलती।
इन सब के बीच कोई यह कहे कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं। तो यूपीए-2 के दौर का सच खंगालना ही होगा। क्योंकि पहला मौका है जब विकास दर बिना रोजगार और बिना उत्पादन के है। पहला मौका जब पूर्व चीफ जस्टिस से लेकर सेना के जनरल,सीएजी से लेकर सीबीआई,और नौकरशाही से लेकर कारपोरेट कोई भी बेदाग नहीं है।

लेकिन मनमोहन सिंह बेदाग हैं। पहली बार सरकार की जांच [2 जी स्पेक्ट्रम ] और जांच की नीयत [कालेधान पर एसआईटी ]पर सुप्रीमकोर्ट को शक होता है। अदालत अपनी निगरानी में सरकार की एंजेसियों से काम कराती है। आर्थिक सुधार के जिस रास्ते को मनमोहन सिंह अपने हुनर से साधना चाहते हैं, उसका बाजा उनके अपने ही यह कहकर बजाने लगते हैं कि यह हुनर नहीं देश को गिरवी रखने के तरीके हैं। पीएमओ के बंद कमरे में प्रधानमंत्री के अर्थशास्त्रग के हुनर पर ममता खामोश रहती हैं। लेकिन सड़क पर विपक्ष के साथ खड़े होकर होकर ममता हुंकारती भी हैं, जो राजनीतिक तौर पर मनमोहन के अर्थशास्त्र को राजनीतिक तौर पर इतना डराती है कि एफडीआई,रिटेल सेक्टर, बैकिंग, इंशोरेन्स, जीएसटी, कंपनी विधेयक, टेलिकाम पालिसी, राष्ट्रीय स्पेक्ट्रम कानून, डीजल को खुले बाजार के हवाले करना, खनन नीति, भूमि-सुधार जैसे आर्थिक सुधार के रास्ते बंद हो जाते हैं।

फिर कैबिनेट की बैठक में शरद पवार खाद्य सुरक्षा बिल पर खामोश भरी सहमति देते है। लेकिन कमरे से बाहर निकलते ही सामने कैमरे देखकर यह कहने से नहीं चुकते कि कृर्षि मंत्रालय का बजट 20 हजार करोड़ का है और सोनिया गांधी खाद्द सुरक्षा विधेयक के जरीये सरकार से 65 हजार करोड़ की सब्सिडी चाहती हैं। मनरेगा को लेकर हर राज्य जानना चाहता है कि बर बरस साढ़े हजार करोड़ खर्च कर बने क्या। यानी ना इन्फ्रास्ट्रक्चर, ना पावर, ना खनन और ना ही इस दौर में पीने के पानी और स्वास्थ्य सेवा सरीखे न्यूनतम जरुरतों को लेकर सरकार कोई कदम आगे बढ़ा पाती है। और कदम आगे बढते भी है तो भ्रष्ट्राचार की फाइलें ही इस कदर सरकार को उलझाती है कि बीते साल भर में कोयले के ब्लाक्स को बांटने कोयला मंत्रालय फंसता है। खनन पर एनओसी देने पर कारपोरेट लूट में राजनीतिक साझीपन सामने आता है। पावर सेक्टर में इनर्जी पैदा करने के नाम बड़े और प्रभावी निजी व कारपोरेट में लाइसेस बांट कर इनर्जी के मामले में स्वाबलंबी होने का सपना देखा जाता है।

नियमानुसार सिर्फ सिंगरौली में 2012 तक 25 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होने लगना चाहिये। और 2014 तक 34 हजार मेगावाट। लेकिन हकीकत में अभी पांच हजार मेगावट का बिजली उत्पादन भी नहीं हो पा रही है। दरअसल यूपीए-2 की सबसे बडी उपलब्धि तो इस तीसरे बरस निकल कर सामने आयी है उसमें हर मंत्रालय में नौकरशाही का भ्रष्टाचार की फाइल पर चिड़िया बैठाने से इंकार करना है। क्योंकि भ्रष्टाचार को लेकर जो नकेल सड़क से लेकर अदालत और आंदोलनों से लेकर सत्ता की चाहत में विपक्षी राजनीति दलों के तेवरों ने परिस्थितियां एकजूट की उसमें मनमोहन सरकार को सिर्फ इतनी ही कहने की छूट मिली की सत्ता में वह हैं तो ही भ्रष्टाचार के मामले सामने आ रहे हैं। लेकिन जो लकीर प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहार सी रंगराजन और वित्त मंत्रालय के सलाहाकार कौशिक बसु ने खिंची उसने इसके संकेत भी दे दिये की पटरी से उतरती सरकारी नीतियो के पीछे सरकार की ही नीतियां हैं। तो क्या यबह कहा जा सकता है कि कि सरकार भ्रष्टाचार की सफाई में जुटी है तो उसके सामने अपनी ही बनायी व्यवस्था के भ्रष्टाचार उभर रहे हैं।

आर्थिक सुधार की जिस बिसात को कारपोरेट के आसरे मनमोहन सिंह ने बिछाया अब वही करपोरेट मनमोहन सिंह को यह कहने से नही कतरा रहा है विकास के किसी मुद्दे पर वह निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे, रामदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर आडवाणी की मुहिम ने सरकार को गवर्नेंस से लेकर राजनीतिक तौर पर जिस तरह घेरा है उससे बचने के लिये सरकार यह समझ नहीं पा रही है कि गवर्नेंस का रस्ता अगर उसकी अपनी बनायी अर्थव्यवस्था पर सवाल उठता है तो राजनीतिक रास्ता गवर्नेंस पर सवाल उठाता है।

दरअसल महंगाई,घोटालागिरी है और आंदोलन से दिखते जनाआक्रोश ने सरकार के भीतर भी कई दरारे डाल दी हैं। इन दरारों को पाटने के लिये क्या मनमोहन सिंह पुल का काम कर पायेंगे। और कांग्रेस वाकई कहेगी कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं। या फिर यूपीए-2 का दौर मनमोहन के यूपीए -1 के दामन को भी दागदार बना देगा। क्योंकि कालेधन को लेकर जैसे ही जांच के अधिकार डायरेक्टर आफ क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन यानी डीसीआई को दिये गये वैसे ही विदेशो के बैंक में जमा यूपी, हरिय़ाणा और केरल के सांसद का नाम सामने आया। मुंबई के उन उघोपतियों का नाम सामने आया जिनकी पहचान रियल इस्टेट से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर है । और जिनके साथ सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर,बंदरगाह, खनन और पावर सेक्टर में मिल कर काम किया है ।यानी यूपीए-1 के दौर में जो कंपनिया मनमोहन सिंह की चकाचौंध अर्थव्यवस्था को हवा दे रही थी वह यूपीए-2 में कालेधन के चक्कर में फंसती दिख रही है। जबकि मनमोहन सिंह इसी दौर में यह कहते हुये खुद पर गर्व करते रहे कि सरकार के साथ मिलकर योजनाओ को अमली जामा पहनाते कारपोरेट-निजी कंपनियों की फेहरिस्त में एक दर्जन कंपनियों की पहचान बहुराष्ट्रीय हो गई। लेकिन सरकार इस सच को छुपा गई कि बहुराष्ट्रीय कंपनी होकर कारपोरेट ने सरकारी योजनाओं को हड़पा भी।
यानी अर्थव्यवस्था की जो चकाचौंध मनमोहनइक्नामिक्स तले यूपीए-1 के दौर में देश के मध्यम तबके पर छायी रही और कांग्रेस उसी शहरी मिजाज में आम आदमी के साथ खड़े होने की बात कहती रही वह यूपीए-2 में कैसे डगमगा रही है, यह भी सरकार की अपनी जांच से ही सामने आ रहा है। अगर यह डगमगाना उपल्धि है तो सोनिया गांधी दोहरा सकती है कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं । लेकिन यह अगर खतरा है तो फिर सोनिया गांधी को 2004 की भूमिका में लौटाना होगा, जहां कांग्रेस एक सुर में कहे कि, हमारे पास मां है। (लेखक के ब्लॉग से साभार)

(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)

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