आपदाओं का हवाई सर्वेक्षण, राहत का गट्ठर और विनाशकारी विकास
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आपदाओं का हवाई सर्वेक्षण, राहत का गट्ठर और विनाशकारी विकास

देश के कई राज्यों में बाढ़ ने मचाई तबाही, तस्वीर बिहार में बाढ़ के तांडव की है (फोटो- पीटीआई)

सचिन कुमार जैन

उत्तराखंड की बाढ़ से निपटे नहीं कि, बिहार में बाढ़ आ गई. बिहार बाढ़ से निपट रहा था कि आसाम क्रम में आ गया. फिर मध्यप्रदेश, जम्मू और कश्मीर, चेन्नई, गुजरात डूबा रहा. महाराष्ट्र में विदर्भ सूखे का पर्यायवाची बन गया, तो मुंबई को पानी ने गहरे तक डुबो दिया. बात केवल बाढ़ तक ही सीमित नहीं है. कहीं मेघ गुस्से से बरस रहे हैं, तो कहीं इतने रूठे कि हमारा आसमान ही छोड़ कर चल दिए. उनके रूठने से हमें मिला सुखाड़! समुद्र के किनारे बसे समाज और बसाहटों की अपनी दिक्कतें हैं. कभी चक्रवात तो कभी सुनामी. कुदरत की आपदाएं हमें बताती हैं कि लालच में जितना ज्यादा इकठ्ठा करोगे, उतना ज्यादा डूबेगा-सूखेगा भी, क्योंकि इकठ्ठा करने के चक्कर में जब कुदरत का कारखाना खराब किया जाता है, तो ही बाढ़-सूखा-ओला पड़ते हैं.

मुंबई में जुलाई 2005 में 24 घंटों में 37.2 इंच बारिश हुई थी. इसने 546 लोगों की जान ले ली थी. इसके बाद वर्ष 2015 में फिर मुंबई में बाढ़ आई और 500 से ज्यादा लोगों की जान लगाई. लगभग 18 लाख लोग विस्थापित हुए. नवंबर 2015 में चेन्नई में आठ दिनों में 450 मिलीमीटर बारिश हो गई. जो वहां के औसत से सवा तीन सौ प्रतिशत ज्यादा थी. बंगलुरु में एक दिन में 130 मिलीमीटर बारिश हुई और शहर डूब गया. वर्ष 1960 इस सहारा में 262 तालाब और जल संरचनाएं होती थी, जो अब दस संरचनाएं जिन्दा रह गई हैं. भोपाल भी इसी श्रेणी में है, जहां 6 घंटे की बारिश तबाही ला देती है.

इन सभी आपदाओं के दो पक्ष हैं. पहला कि एकदम से बहुत कम समय में बहुत ज्यादा मात्रा में बारिश की स्थिति बनी, दूसरा कि जब बुत पानी गिरा तो शहर में उसे बह कर निकलने के लिए जगह नहीं मिली, तो उसने अपनी जगह खुद बनायीं. इन सभी शहरों में जल निकास की व्यवस्था ध्वस्त की जा चुकी है. सच तो यह है कि शहर नालियों और नालों में बसे हुए है. ऐसा कहना इसलिए गैर-वाजिब नहीं है क्योंकि हर व्यक्ति हर रोज औसतन 600 ग्राम कचरा और 40 लीटर गन्दा पानी पैदा कर रहा है. जब यह उत्पादन हो रहा है और उसका प्रबंधन एवं निकास नहीं हो रहा है, तो वह सब कुछ हमारे पास ही तो रह जाएगा न! यानी शहर का मतलब है कचरे और गंदे पानी में बसी हुई बसाहट. यदि बाढ़ और पानी के संकट से निपटना है तो पहले यह तय करना होगा कि क्या हम अपने शहरीकरण के मौजूदा स्वरुप को जड़ों से बदलने के लिए तैयार हैं?

अपने को यह भी स्वीकार करने के लिए तत्पर होना चाहिए कि गांवों से शहर की तरफ होने वाले पलायन को “विकास का मानक” नहीं माना जाए! शुरू में गांव की बदहाली के कारण लोग शहर की तरह पलायन करते रहे हैं, किन्तु शहरों की आपदाएं हमें सन्देश दे रही हैं कि शहर की छाती पर इतना मत चढ़ो कि उसकी जान निकल जाए! जो कि निकल रही है!

इस प्राकृतिक आपदाओं के इस चक्र में अपनी सरकार पूरी तरह से नासमझ दिखती है. जरा गौर से देखें तो पता चलता है कि सरकार बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण करते हैं. जब हवाई सर्वेक्षण करेंगे तो भला वास्तविकता कैसे दिखेगी? अब चूंकि विकास हुआ है तो आसमान में उड़ने के साधन मिले हैं. उन साधनों के जरिये ही जमीन और समाज की चुनौतियों का अध्ययन किया जाता है. जब हवा में उड़ने के साधन हैं, तो जमीन पर आने और लोगों के बीच जाने का जोखिम उठाना ही क्यों? आधुनिक व्यवस्था में माना गया है कि बाढ़ और सूखा आएगा, तो राहत ले गट्ठर (पैकेज) की बात करो. बुंदेलखंड में सूखा पड़ा और बदहाली चरम पर पंहुची तो साढ़े नौ हज़ार करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया. इससे भ्रष्टाचार का खूब विकास हुआ. दिल्ली, लखनऊ और भोपाल में केंद्रित व्यवस्था की चरित्रहीनता बुंदेलखंड तक भी पंहुच गयी. जब करोड़ों रुपये आते हैं, तब गांव भी सवाल पूछना बंद कर देता है. सरपंच की आंखें बोलेरो से बंद हो जाती हैं.

खैर नीति का नैतिकता से, राजनीति का समाजनीति से, अर्थनीति का विविधता से, विकास का मिट्टी से रिश्ता तो टूट ही चुका है, इसीलिए वास्तविकता और घोषणा में अकल्पनीय अंतर दिखाई देता है. जरा अभी अभी का उदाहरण लीजिए. बिहार के आपदा प्रबंधन मंत्री प्रो. चन्द्रशेखर के कहा कि बाढ़ से बिहार को 15 हज़ार करोड़ रुपये के क्षति को चुकी है. स्वाभाविक है कि बिहार को केंद्र सरकार से मदद चाहिए थी. इसी दौरान प्रधानमन्त्री ने बिहार की 15000 करोड़ रुपये का नुकसान करने वाली बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण किया और 500 करोड़ रुपये की सहायता की घोषणा कर दी. राहत राशि का वास्तविक जरूरत से कभी भी मेल नहीं होता है.

इसके पहले हर साल बिहार बाढ़ या सूखे से जूझता रहा है. वर्ष 2007 में राज्य ने 17059 करोड़ रुपये की सहायत मांगी थी, मिली थी – शून्य, फिर वर्ष 2008 में बाढ़ से राहत के लिए 14886 करोड़ रुपये मांगे, मिले 1010 करोड़ रुपये. वर्ष 2009 में सूखा पड़ा और राहत मांगी 14 हज़ार करोड़ रुपये, मिली – 269 करोड़ रुपये. वर्ष 2010 में सूखे में 6573 करोड़ रुपये मांगे, मिले- 1459 करोड़ रुपये. हर साल आपदा आने लगी है, हर साल राहत का गट्ठर मान जाता है और हर साल कटोरे में कुछ सिक्के गिरा दिए जाते हैं. लोग फिर जुट जाते हैं अपना आशियाना बनाने में, रास्ता सजाने में, क्योंकि केंद्र-राज्य कुछ भी कहें, कुछ भी करें; लोगों को तो जिंदगी जीना ही है.

आपदाओं को राहत राशि से सजाने की कोशिश नहीं करना चाहिए, क्योंकि आपदाएं बहुत कुछ तहां नहस कर देती हैं. सोचना तो यह चाहिए कि लोगों की जिंदगी राहत के सहारे और आपदाओं से हुए विनाश से उबरने में ही क्यों निकल जाना चाहिए? आप तो विकास की बात करते हैं न! विकास से तो आपदाओं की आवृत्ति कम होना चाहिए न, किन्तु यह तो दो गुना-तीन गुना-चार गुना बढ़ गई है.

सरकारें कभी भी राहत राशि और राहत शिविरों से आपदाओं का सामना नहीं कर सकेंगी. जरा देखिये कि वर्ष 2013-14 में कर्नाटक, बिहार, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, और उत्तर प्रदेश ने 24838.96 करोड़ रुपये की राहत राशि मांगी थी. जबकि केंद्र सरकार ने उन्हें दिए 2854.19 करोड़ रुपये. 2014-15 में 9 राज्यों ने 42021.71 करोड़ रुपये मांगे थे, उन्हें केंद्र सरकार ने दिए 9017.998 करोड़ रुपये. फिर 2015-16 में 11 राज्यों में आपदा के लिए 52765.22 करोड़ रुपये मांगे गए, किन्तु केंद्र सरकार ने दिए 15467.52 करोड़ रुपये. तीन सालों में 1.196 लाख करोड़ रुपये की राहत सहायता मांगी गई, जिसके एवज में 37 हज़ार करोड़ रुपये ही दिए गए. जिस तरह से आपदाएं आ रही हैं, यह नुकसान बढ़ता ही जाएगा. यह नुकसान इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि हम मौसम-प्रकृति और भूगोल से रिश्ता तोड़ रहे हैं, हमने उनके खिलाफ़ विकास के नाम पर जंग का ऐलान किया हुआ है.

भारी बाढ़ और शहर डूब की स्थिति में चेन्नई, मुम्बई, बिहार के लोग जज़्बे के साथ आपदा का सामना करते हैं, एक दूसरे की मदद करते हैं. इस पर उन्हें सलाम किया जाता है. अच्छा है, मन लगे रहना चाहिए. दिल टूटना नही चाहिए.

लेकिन इस तरह का दिल बहलाना कहीं आपदा के साथ रहने की तैयारी तो नहीं.जो संकट में होते हैं, वे तो एक दूसरे का साथ देते ही हैं. उन्हें पता होता है कि यदि पड़ोसी नही बचेगा तो, वे भी नही बचेंगे. फिर मानवीय संवेदनाएं भी तो होती हैं. आप ट्वीट करें या न करें. लोग फिर भी एक दूसरे का हाथ पकड़ेंगे ही. यह शहर पर ही नहीं, जीवन पर संकट होता है.

सवाल यह है कि बेतरतीब, मूर्खतापूर्ण और आत्मघाती शहरीकरण पर प्रश्न क्यों नहीं उठ रहा है? पानी है, पानी बहता है. पानी को बहने के लिए रास्ता चाहिए. हमारा शहरीकरण पानी के बहने के सभी रास्ते बंद कर दे रहा है. जब पानी निकल ही नहीं पायेगा, तो पानी इकट्ठा होगा और बस्ती को डुबोयेगा ही. नालियों, नालों और जल निकासी के रास्तों पर अमीरी और विकास के परचम लहरा रहे हैं. विकास की चारदीवारी में ऐय्याशी चल रही है. शहर को जला कर हम अपने लिए वातानूकुलित शयनकक्ष बनाते हैं. हमारा आधुनिक विकास प्रकृति के इलाके में अतिक्रमण करके हुआ है.

हम सुनियोजित तरीके से दसियों साल से खड़े पेड़ों के तनों को सड़क के कांक्रीट के बीच ऐसे दबाते हैं, मानो उसका पेड़ का गला मसकना चाहते हों. और सचमुच में विकास होने के कुछ दिनों में पेड़ सूख कर मर जाता है. उसके शव को वहां से हटा कर सड़क का विस्तार कर दिया जाता है. रिकार्ड में कहीं दर्ज नही होता कि उस दरख़्त की हत्या की गई. विलासी विकास की विशालकाय सरदार सरोवर परियोजना में लाखों पेड़, जीव जंतु, आदिवासी समाज को डुबो कर हम आनन्द का अनुभव कैसे कर सकते हैं?

सब पिले पड़े हैं कि शिक्षा होना चाहिए. सबको पढ़ना चाहिए, पर क्यों? अपनी शिक्षा यह सीख ही नही पा रही है कि पानी को जमीन में रमने बसने के लिए खुली, भुरभुरी जमीन की दरकार होती है. अपन ने तो सीमेंट, पत्थर, संगमरमर बिछा दिए हैं चारों तरफ. ऐसे में धरती के अंदर बनी धाराओं में पानी कैसे पंहुचेगा? भूजल स्रोत जीवित कैसे रहेंगे? फिर अपन आवेदन लेकर “नरक निगम” जाते हैं कि पानी दो! नरक निगम पानी कहाँ से लाएगा? क्या वह किसी कारखाने से पानी खरीद लाएगा?

वाह! शिक्षा और विकास की सियासत ने अपने को कितना मासूम बना दिया है कि हम अब जानते ही नही हैं कि हम पानी के अपने शहर और अपनी जिंदगी से ही बेदखल नहीं कर रहे हैं. वास्तव में हम मानव सभ्यता के लिए संकट पैदा कर रहे हैं. इस नुकसान कि भरपाई हज़ारों साल में होगी. सिर्फ एक सवाल खुद से तो पूछिये कि पानी आता कहां से है, रहता कहां है और जाता कहां है? यदि अपनी नीति और धर्म इन सवालों को याद नही रख रहा है, तो ही पानी "अ"तिथि" और "बे"तिथि" हो रहा है. अब संभव है कि वह हमारे शहर से गुजरना ही बंद कर दे. तब क्या करेंगे?

अतः जरूरी है कि अपन इससे खुश और संतुष्ट न होने लगें कि बाढ़ आई, सब कुछ डूब रहा था और लोग एक दूसरे की मदद कर रहे थे. मूल प्रश्न यह है कि बाढ़ आ क्यों रही है? सूखा क्यों पड़ रहा है? आपदा में सकारात्मकता मत खोजिए, यह बड़ा अपराध साबित होगा.

हमें अपने विकास की परिभाषा और नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा. हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि योजना आयोग, नीति आयोग और यहां तक कि सरकार भी विकास की नीति के मामले में ईमानदार नहीं हैं. वे समाज के सामने खड़े हो रहे संकटों के कारणों को छिपाना चाहते हैं. उन कारणों को सामने लाने के लिए उन्हें पहल करना होगी, जो इनसे इतर हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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