डिजिटल दुनिया में बच्चों का शोषण; समाज,परिवार के सामने नई चुनौतियां
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डिजिटल दुनिया में बच्चों का शोषण; समाज,परिवार के सामने नई चुनौतियां

एक सर्वे के मुताबिक शहरी भारत के नौ से 17 साल की उम्र के बच्चे औसतन 4 घंटे इंटरनेट के साथ गुजारते हैं.

इस बात को हमें अच्छे से समझ लेना चाहिए कि नए समाज, जिसमें विलासिता, उपभोक्तावाद और हिंसक प्रतिस्पर्धा मुख्य चारित्रिक पहलू हैं. इसने हमें संचार की तकनीक तो दी, किन्तु आपसी संबंधों से दूर भी किया है. उपकरण बढ़े हैं किन्तु अकेलापन उससे कहीं ज्यादा बढ़ा है. बच्चे अकेले हैं, माता-पिता अकेले है, जीवन में कुछ बनने-हासिल करने के लिए मशीनों का महत्व चरम पर है. सीखने का माध्यम संवाद नहीं, तकनीक है. यह तकनीक शोषण का भी जरिया बन गयी है.

अब चूंकि बच्चे परिवार में अकेले हैं और परिवार समाज में अकेला है, इसलिए भीतर ही भीतर सूचना तकनीकें बच्चों पर गहरा असर डालती गयीं और शायद हमें पता भी नहीं चला. समाज को सहूलियत होने लगी है कि चलो बच्चे मोबाइल-कम्यूटर-इंटरनेट में व्यस्त हैं. 

परिवार में यह नहीं सोचा कि आखिर उन्हें यानी बच्चों को क्या सामग्री और सन्देश मिल रहे हैं? आज औसतन 8 साल की उम्र से बच्चे इंटरनेट के संपर्क में आ रहे हैं. वे दिन में 3 घंटे से ज्यादा नयी तकनीकों से साथ गुजार रहे हैं. अध्ययन बता रहे हैं कि 10 में से 7 बच्चे किसी न किसी रूप में आनलाइन शोषण, उत्पीड़न और हिंसा के शिकार होते है. इनमें से ज्यादातर किसी को बता भी नहीं पाते कि उनके साथ क्या हो रहा है?

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हमारी सामाजिक न्याय, कानून-व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह यह भी नहीं समझ पायी है कि इस तथाकथित क्रान्ति की तेज लहरों के बीच खुद को डूबने से कैसे बचाया जाए? यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है क्योंकि एक तरफ तो समाज और परिवार बच्चों से दूर हो रहे हैं,

दूसरी तरफ हमें यह भी अंदाजा नहीं है कि कौन सी व्यवस्था इंटरनेट के जरिये होने वाले बच्चों के शोषण को रोक पाएगी?

इस सन्दर्भ में बच्चों, परिवार, स्कूल, कानूनी व्यवस्था, इंटरनेट सेवा प्रदाता-व्यावसायिक इकाईयों, सामाजिक संस्थाओं और नीति बनाने वाले मंचों के स्तर पर साझा पहल करने की जरूरत है.

बच्चों के शोषण की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि:

एच टी डिजिटल और आई एम आर बी के अध्ययन से पता चला कि शहरी भारत में 93 प्रतिशत स्कूली बच्चों को इंटरनेट तक पंहुच उपलब्ध है. 73 प्रतिशत बच्चे मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. यह अध्ययन दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, पुणे, बेंगलुरु और चेन्नई के 17 से 24 वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों में किया गया.

टेलीनोर इंडिया के वेब वाइस सर्वे (दस शहरों में किया गया) के मुताबिक शहरी भारत के नौ से 17 साल की उम्र के बच्चे औसतन 4 घंटे इंटरनेट के साथ गुजारते हैं. ज्यादातर समय मोबाइल इंटरनेट पर खर्च होता है. वर्ष 2017 के दौरान भारत के 13.4 करोड़ बच्चे ऑनलाइन होंगे. वेब वाइस सर्वे से पता चला कि 54.8 प्रतिशत बच्चे अपने इंटरनेट खातों से जुड़े पासवर्ड दोस्तों से साझा करते हैं. इससे इंटरनेट पर उनके असुरक्षित होने का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है.

35.47 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उनके इंटरनेट खाते (ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन आदि) हैक हुए यानी अनाधिकृत व्यक्ति द्वारा उनके खातों तक पंहुच बनायी गयी और अनाधिकृत उपयोग किया गया. 15.74 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उन्हें इंटरनेट पर अनुचित सन्देश मिले. 15.01 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उन्हें ऑनलाइन प्रताड़ना-धमकी-धौंस का सामना करना पड़ा है. 10.14 प्रतिशत बच्चों को अपमानजनक चित्र या वीडियो सन्देश मिले.

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ज्यादातर बच्चे यह मानते हैं कि इंटरनेट-सायबर अपराध से सम्बंधित किसी घटना की स्थिति में वे अपने माता-पिता या शिक्षकों से सबसे पहले बात करेंगे. वर्ष 2012 से 2017 के बीच 10 करोड़ बच्चे पहली बार इंटरनेट के संपर्क में आये. इनमें से अधिकतर मोबाइल के जरिये इंटरनेट से जुड़े. इंटरनेशनल एसोसियेशन ऑफ हॉटलाइनर्स के मुताबिक वर्ष 2012 से 2014 के बीच ऐसे वेबपृष्ठों की संख्या 147 प्रतिशत बढ़ी हैं, जिनमें लैंगिक उत्पीड़न से सम्बंधित सामग्री में 10 साल या इससे कम उम्र के बच्चों का उपयोग किया गया था.

ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने पुरुषों के ऐसे गिरोह को पकड़ा जो जन्म से ही बच्चों (यानी नवजात शिशुओं का) का लैंगिक शोषण शुरू कर दते थे और उनके चित्र लेते थे. ये चित्र व्यवस्थित ढंग से इंटरनेट तकनीक का इस्तेमाल करके दुनिया भर में “इसमें रुचि रखने वाले अन्य समूहों-लोगों” को भेजे जाते थे. इसके बाद ये शोषक बच्चों को खुद साथ लेकर अन्य देशों को जाते थे, ताकि अन्य लोग भी उनका शोषण कर सकें. इंटरनेट ने दुनिया भर में तकनीक-संपन्न अपराधियों को यौन शोषण, बालश्रम, बंधुआ मजदूरी के लिए बाल-मानव तस्करी को नए रास्ते भी उपलब्ध करवाए हैं.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भारत सरकार ने कहा कि कई कारणों से इंटरनेट के जरिये पोर्नोग्राफी को नहीं रोका जा सकता है. कई वेबसाइट्स के सर्वर देश में हैं ही नहीं. इस सन्दर्भ में भारत सरकार ने 857 ऐसी वेबसाइट्स को प्रतिबंधित करने के आदेश दिए, जो बच्चों के उपयोग वाली पोर्नोग्राफी सामग्री प्रसारित कर रही थी. अभी बहुत से सवाल हैं - मसलन क्या बाल पोर्नोग्राफी को एक अलहदा या अकेला विषय माना जा सकता है? वयस्क यौन व्यवहार के सार्वजनिक प्रदर्शन, हिंसक प्रयोगों और व्यवसायीकरण के लिए जब पोर्नोग्राफी होती रहेगी, तब भी क्या यह बच्चों को प्रभावित नहीं करती रहेगी? 

दूसरी बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार समझौते के बाल वैश्यावृत्ति, बच्चों की खरीद-फरोख्त और बाल पोर्नोग्राफी से सम्बंधित वैकल्पिक प्रावधानों में यह कहा गया है कि दुनिया के देश आपस में मिलकर बच्चों के शोषण को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं बनाएंगे. भारत सरकार को संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार समझौते के अनुच्छेदों के आधार पर अन्य देशों के साथ (जहाँ इस तरह की वेबसाइट्स के सर्वर हैं या जहाँ से ये वेबसाइट्स संचालित होती हैं) जरूरी कदम उठाने चाहिए.

दुनिया में वेबसाइट्स या सामग्री की जितनी भी खोज की जाती है, उसमें से 10 प्रतिशत से ज्यादा पोर्नोग्राफी सामग्री से सम्बंधित होती है. द इकोनोमिस्ट में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक लगभग 7 से 8 करोड़ वेब पृष्ठों पर पोर्न सामग्री उपलब्ध है. इन सामग्रियों के लिए सबसे ज्यादा देखी जाने वाली वेबसाइट का दावा है कि एक साल में उस वेबसाइट पर 80 अरब बार पोर्न वीडियो देखे जाते हैं. आप खुद ही कल्पना कीजिये!

द इकोनोमिस्ट के लेख के मुताबिक इंटरनेट के साथ स्मार्ट फोन, टेबलेट, निजी कम्प्यूटर की सहज उपलब्धता के साथ एक किशोरवय व्यक्ति इतनी पोर्न सामग्री देख चुका होता है, जितनी राजशाही शासन व्यवस्था में किसी सबसे बुरी छवि वाले सुलतान-सम्राट ने अपने पूरे जीवन काल में नहीं देखी होंगी.

एसोसियेशन ऑफ साइट्स एड्वोकेटिंग चाइल्ड प्रोटेक्शन के मुताबिक दुनिया भर में व्यवसाय के रूप में बाल यौन व्यवहार प्रदर्शन करने वाली जितनी भी वेबसाइट्स हैं, उनमें से आधी यानी 50 फीसदी अमेरिका से संचालित होती हैं. अकेले अमेरिका में वर्ष 2014 में पोर्न सामग्री से प्राप्त होने वाले राजस्व की राशि 13 अरब डॉलर थी. वहाँ वर्ष 2014 में केवल बाल पोर्न सामग्री परोसने वाली वेबसाइट्स की संख्या 31266 थी. इनमें सवा सौ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है.दुनिया में हर रोज बच्चों के अश्लील प्रदर्शन, नग्न चित्र, यौनिक वीडियो से सम्बंधित 300 से 600 नयी सामग्रियां इंटरनेट पर आती हैं.

डिजिटलीकरण (डिजिटलाइजेशन)

भारत में बड़े स्तर पर व्यवस्था और व्यवहार के डिजिटलीकरण की पहल हो रही है. सेवाएं लेने से लेकर, शिकायत करने, पैसों का लेन देन करने, सरकारी और गैर-सरकारी कामकाज सूचना तकनीक और तकनीकी उपकरणों, इंटरनेट के जरिये किये जाने की जम कर वकालत हो रही है. स्वाभाविक है कि इस पहल का आधार यह है कि हर कोई सूचना तकनीक, इंटरनेट और मोबाइल-कम्प्यूटर उपकरणों का इस्तेमाल करे. जब यह इस्तेमाल बहुत बढ़ेगा, या कहें कि बढ़ रहा हैय तब बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के पहलू को कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है?

इंटरनेट: घनी असुरक्षा के बीच बच्चे, तकनीकी पहलू

इंटरनेट के सन्दर्भ में बच्चों की असुरक्षा का मतलब आखिर है क्या? इसके लिए हम कुछ तकनीकी पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं.

सुरक्षित इंटरनेट के सन्दर्भ में बच्चे कौन हैं?: यूँ तो फेसबुक कहता है कि 13 साल की उम्र में उसके मंच का उपयोग किया जा सकता है, स्नेप चैट, व्हाट्स एप, वायबर, गूगल प्लस भी यही कहते हैं, किन्तु भारत में नियम अनुसार 18 साल से कम उम्र का कोई भी व्यक्ति “बच्चा” माना जाता है और इससे कम उम्र में इस तरह इंटरनेट के उपयोग की अनुमति नहीं है.

होता क्या है? सच यह है कि कम उम्र के व्व्यक्तियानी बच्चे अपनी उम्र के बारे में गलत जानकारी देकर या झूठ बोलकर इंटरनेट के अलग-अलग मंचों पर खुद को दर्ज करते हैं.

बाल पोर्नोग्राफी, बच्चों का अश्लील चित्रण और यौनिक उपयोग: किसी के भी द्वारा ऐसी सामग्री जिसमें बच्चों का अश्लील, यौनिक चित्रण हो या इस मकसद के लिए बच्चों का उपयोग हो, उसका प्रकाशन और प्रसारण {सूचना प्रोद्योगिकी कानून 2008 की धारा 67बी (ए)}.

जो कोई भी ऐसी सामग्री का निर्माण करता है, सामग्री इकठ्ठा करता है, ऐसे चित्र बनाता है, ऐसे वेबसाईट देखता है-उपयोग करता है, डाउनलोड करता है, प्रोत्साहित करता है, साझा करता है, जिसमें बच्चों का अश्लील, कामुक, यौनिक प्रस्तुतीकरण होता है; {सूचना प्रोद्योगिकी कानून 2008 की धारा 67बी (बी)}. किसी बच्चे को अन्य बच्चों के साथ आनलाइन यौनिक-अश्लील सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित करता है या दबाव डालता है और बच्चों का आनलाइन-इंटरनेट पर शोषण-दुरूपयोग करता है.

इन दशाओं में अपराध साबित होने पर 7 साल ही सजा और 10 लाख रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान है.

पीछा करना और नजर रखना (सायबर स्टाकिंग): जब किसी व्यक्ति का ईमेल या इंटरनेट गतिविधियों/इलेक्ट्रानिक संचार के जरिये लगातार और निरंतरता के साथ पीछा किया जाता है, तो उसे सायबर स्टाकिंग कहा जाता है. ऐसे मामलों में सूचना प्रोद्योगिकी कानून की

धारा 66ए, 66सी और 66ई के साथ साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 506 और 509 लागू होती है.

सायबर बुलिंग - इंटरनेट, ईमेल या अन्य किसी इलेक्ट्रानिक संचार तकनीक का उपयोग करते हुए किसी को प्रताड़ित करना, नीचा दिखाना, उलाहना देना, अपमानित करने या धमकाने जैसे व्यवहार को सायबर बुलिंग कहा जाता है. ऐसे मामलों में सूचना प्रोद्योगिकी कानून की धारा 66ए, 66सी और 66ई के साथ साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 506 और 509 लागू होती है.

अश्लील या पोर्न सामग्री प्रसारित करना: ईमेल, इंटरनेट या सूचना तकनीक के किसी माध्यम से यौन व्यवहार सम्बन्धी चित्र, ध्वनि, कार्टून, एनीमेशन, विडियो समेत कोई भी सन्देश भेजना.

गृह मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा जारी एडवायजरी

भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 4 जनवरी 2012 को बच्चों के खिलाफ होने वाले सायबर अपराधों को रोकने और उनसे निपटने के लिए एडवायजरी जारी की थी. उसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं -

* कानून लागू करने के लिए जिम्मेदार संस्थाओं, मसलन पुलिस, अभियोजन और न्यायपालिका और सामान्य समाज को सूचना प्रोद्योगिकी कानून 2008 के बारे में प्रशिक्षित किये जाने, संवेदनशील बनाए जाने और सक्रीय कार्यवाही के लिए तत्पर बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सेमीनार का आयोजन किया जाना चाहिए. इसमें बच्चों के खिलाफ होने वाले सायबर अपराधों पर मुख्य ध्यान हो.

* किशोर न्याय अधिनियम के तहत बनी विशेष किशोर पुलिस इकाईयों को संवेदनशील बनाने और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए.

* पालकों, शिक्षकों और बच्चों को जागरूक किया जाए कि वे किसी भी तरह के आपत्तिजनक सामग्री-अश्लील प्रस्तुति को बारे में रिपोर्ट करें. बच्चों को सायबर अपराधों के बारे में जानकारी दी जाना चाहिए.

* ऐसी वेबसाईट और शोषण नेटवर्किंग साइट्स की निगरानी की जाना चाहिए, जो अश्लील और बच्चों के आपत्तिजनक चित्रण का प्रसार करती हैं. जरूरी है कि “पालकों की निगरानी-नियंत्रण में इंटरनेट के उपयोग का साफ्टवेयर-पेरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर” का इस्तेमाल हो.

* डिजिटल/तकनीकी सबूतों को इकठ्ठा किये जाने और उनकी सुरक्षा से सम्बंधित प्रशिक्षण हो.

* जिन बच्चों के साथ अपराध या शोषण हुआ हो, उनकी पहचान को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए.

* पुलिस नियंत्रण कक्ष और बच्चों के संरक्षण के लिए संचालित हो रही हेल्पलाइन 1098 के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम होना चाहिए.

* राज्य पुलिस की वेबसाईट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स और विभिन्न वेब ब्राउजर्स पर बच्चों के लिए इंटरनेट के सुरक्षित उपयोग से सम्बंधित सामग्री वाला विशेष कोना होना चाहिए.

* ऐसी व्यवस्था विकसित होना चाहिए, जिससे सायबर कैफे के रिकार्ड्स को एक केन्द्रीय स्थान से जांचा जा सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)

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