जलवायु परिवर्तन: वैश्विक भागीदारी और जिम्मेदारी
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जलवायु परिवर्तन: वैश्विक भागीदारी और जिम्मेदारी

जलवायु परिवर्तन: वैश्विक भागीदारी और जिम्मेदारी

जलवायु परिवर्तन को लेकर वर्तमान समय में चर्चा और तापमान दोनों गर्म है। चर्चा बातों से गर्म हो रही है और तापमान ग्रीन हाउस गैसों से। सभी देशों की जिम्मेदारी बनती है कि दुनिया का अस्तित्व मिटाने वाली इन हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम करें। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि सबसे ज्यादा यह दुर्गंध (ग्रीन हाउस गैस) फैलाई किसने? जाहिर सी बात है कि इस लिस्ट में चीन के साथ ही विकसित देशों ने सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने का काम किया है। जिम्मेदारी भी मुख्य रूप से इन्हीं देशों की बनती है कि वे इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए सभी देशों के साथ आगे की पंक्ति में खड़े हो।

जलवायु परिवर्तन का मतलब मौसम में आने वाले व्यापक बदलाव से है। यह बदलाव ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बेताहाशा वृद्धि के कारण हो रहा है। इसे ग्रीन हाउस इफेक्ट भी कहते हैं। ग्रीन हाउस इफेक्ट वो प्रक्रिया है जिसके तहत धरती का पर्यावरण सूर्य से हासिल होने वाली उर्जा के एक हिस्से को ग्रहण कर लेता है और इससे तापमान में इजाफा होता है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर कोयला, पेट्रोल और प्रकृतिक गैसों को जिम्मेदार माना जाता है। ये सभी वातावरण कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ा देते है। कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने वाले जंगलों की कटाई से भी यह समस्या बढ़ी है। धरती के तापमान में वृद्धि को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो सब तहस-नहस हो जाएगा। धरती की सूरत को बिगाड़ने के लिए दो डिग्री सेल्सियस तापमान ही काफी है और इसी दो डिग्री सेल्सियस को रोकने के लिए दुनिया के तमाम देश साल में एक बार इकट्ठा होते हैं।

जलवायु में होने वाले परिवर्तन को रोकना बेहद जरूरी है, इसके दुष्प्रभावों से पूरी दुनिया जूझ रही है। ग्लेशियर पिघलने से समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हो रही है, जिससे कई देश के दुनिया के नक्शे से गायब होने की प्रक्रिया में है। समुद्री जलस्तर बढ़ने से तटीय जलभंडार को दूषित करेगा। मौसम के स्वरुप में बदलाव खाद्य उत्पादन के लिए चुनौती पैदा कर सकता है और भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा कर सकती है। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में चट्टान और हिम स्खलन की घटनाएं वृहद तौर पर देखने को मिल रही है, जो कि अभी छिटपुट तौर पर देखी जा रही है।

इस तबाही की हालिया मिसाल तमिलनाडु में आई भयंकर बाढ़ के रुप में प्रत्यक्ष रुप से देख सकते हैं। पेरिस में हो रहा ये सम्मेलन उत्तराखंड जैसी तबाही रोकने के लिए है। दुनिया मिलकर कोशिश करने जा रही है कि तबाही के ऐसे सैलाब फिर अस्तित्व को खतरे में ना डाले। लेह में फिर बादल न फटे और आफत की बारिश से धरती के स्वर्ग जम्मू-कश्मीर की सूरत न बिगाड़ दे। फिर से 2005 की तरह मुंबई शहर बारिश के पानी में ना डूब जाए, कुछ घंटों की बारिश सैकड़ों लोगों की जान न ले ले। तबाही की ये तस्वीरें सिर्फ भारत की है। दुनिया के अलग-अलग हिस्से के बढ़ते तापमान में कुछ ऐसी बर्बादी मचाई है।

पिछले 20 वर्षों से ये सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र की अगुआई में होते आ रहे हैं। लेकिन अभी तक कोई मजबूत अंतरराष्ट्रीय संधि पर पूरे तरीके से समझौता नहीं हो पाया है। विकसित और विकासशील देशों के बीच खींचतान चल रही है। ये रस्साकशी इस बात को लेकर है कि विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। वहीं विकासशील देशों का तर्क है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी विकसित देशों की है। उनका कहना है कि अब विकास करने की बारी उनकी है। लिहाजा उन पर बहुत सारी शर्तें न थोपी जाएं। 

यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज यानी यूएनएफसीसीसी संधि पर हस्ताक्षर 1992 से शुरू हुई थी। इसे कॉप के नाम से भी जानते है, कॉप का पहला आयोजन 1995 में बर्लिन में हुआ था। पिछले दो दशकों में पूरा विश्व यह तय करने में लगा है कि उत्सर्जन में कटौती कौन-सा मुल्क करेगा और कितना करेगा। इन सम्मेलनों में बातें खूब हुई लेकिन काम कुछ खास नहीं हुआ है। क्योटो प्रोटोकॉल सहमति बनी लेकिन कमजोर लक्ष्यों और खामियों के साथ। अमेरिका ने कटौती में कोई खास कमी नहीं की। सबसे अधिक संवेदनशील राष्ट्र के लिए वित्तीय पैकेज का जो वादा किया गया था वह भी पूरा नही हो पाया।    

पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 2015 में भारत ने मजबूती से अपनी बात रखी कि ऐतिहासिक जिम्मेदारियों को कम करके या प्रदूषकों और पीड़ितों को समान स्तर पर लाकर पेरिस में कोई स्थाई समझौता तैयार नहीं किया जा सकता। साथ ही भारत ने वित्त संबंधी मुद्दे को निराशाजनक बताया और कहा कि विकसित देश अपनी प्रतिबद्धताएं पूरी करने में असफल रहे हैं और साथ ही वे अपनी जिम्मेदारी को विकसित देशों पर हस्तांतरित करना चाहते हैं।

भारत के विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व को कार्बन क्षेत्र के न्यायसंगत आवंटन पर और विकसित देशों से विकासशील देशों को मिलने वाली आर्थिक और तकनीकी मदद में भारी वृद्धि करने पर सहमत होना चाहिए ताकि यह लक्ष्य हासिल किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र समझौते के मुताबिक यदि एक भी देश अगर असहमत हुआ तो मसौदे को लागू नहीं किया जा सकता है।

- प्रणव पुरुषोत्तम

- pranavpurushottam@gmail.com

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