'बड़े बदलाव' की कांग्रेसी रणनीति!
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'बड़े बदलाव' की कांग्रेसी रणनीति!

लगातार हार का सामना कर रही कांग्रेस ने नेहरू जयंती के एक दिन पहले ही नेहरू जयंती मना ली। गुरुवार को तालकटोरा स्टेडियम में जिस तरह से नेहरू के बहाने मौजूदा सत्ता तन्त्र पर सवाल खड़े किए गए और नेहरू की विचारधारा की प्रासंगिकता को आधुनिकता से जोड़कर दिखाने की कोशिश हुई वो ये बताती है कि कांग्रेस खुद के मेकओवर के लिए एक बार फिर बड़े बदलाव की राह पर चलने को तैयार है।

'बड़े बदलाव' की कांग्रेसी रणनीति!

वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया

लगातार हार का सामना कर रही कांग्रेस ने नेहरू जयंती के एक दिन पहले नेहरू जयंती मना ली। गुरुवार को तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित समारोह में जिस तरह नेहरू के बहाने मौजूदा सत्ता तन्त्र पर सवाल खड़े किए गए और नेहरू की विचारधारा की प्रासंगिकता को आधुनिकता से जोड़कर दिखाने की कोशिश हुई है वो ये बताती है कि कांग्रेस खुद के मेकओवर के लिए एक बार फिर बड़े बदलाव की राह पर चलने को तैयार है। लेकिन सवाल ये कि क्या ये बदलाव वाकई कांग्रेस के लिए सार्थक साबित हो पाएगा?

 
वक्त हमेशा खुद को दोहराता है, इतिहास हमेशा अपनी प्रासंगिकता साबित करता है। तालकटोरा स्टेडियम से कांग्रेसी दिग्गजों ने जिस तरह से नेहरू के योगदान और उनकी विचारधारा को आधुनिक परिवेश से जोड़कर देखने की कोशिश की है, उसने इन दोनों जुमलों को सटीक साबित कर दिया है। कांग्रेस से शीर्ष नेतृत्व के बयान बता रहे थे कि पीछे होने की कसक क्या होती है और आगे बढ़ने के लिए जब रास्ता नहीं मिलता तो छटपटाहट क्या होती है। वो भी ऐसे दौर में जबकि उन प्रतीकों के मायने ही बदल दिए जाएं जिनपर कांग्रेस खुद का एकाधिकार मानती आई है। शायद इसीलिए राहुल गांधी को मोदी का सफाई अभियान फोटो खींचने का अभियान ज्यादा लगने लगा है। जबकि खुद राहुल गांधी के खाते में ऐसी तमाम घटनाओं की  फेहरिस्त जमा है जिसे आधार बनाकर उनके विरोधी लगातार उन्हें पब्लिसिटी का भूखा बताते रहे हैं, और ताजा बयान के बाद भी बता रहे हैं।

खैर ये तो सियासी बाते हैं, असल सवाल ये है कि अब कांग्रेस करने क्या वाली है? क्या अपने आयोजन में सिर्फ मोदी को ना बुलाने भर से कांग्रेस का मकसद पूरा हो जाएगा? या फिर नेहरू का नाम और उनकी विचारधारा का स्वामित्व कायम रहे इसके लिए वो कुछ खास करने जा रही है? क्या कांग्रेस फिर नेहरू के विशेष समाजवाद का दौर वापस लाने की जद्दोजहद में है जिसे वो नब्बे के दशक में उदारीकरण की मजबूरी में गंवा चुकी है? दरअसल फिलहाल कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। मोदी की राजनीतिक चतुराई से निपटने के लिए अब कांग्रेस के पास सिर्फ यही रास्ता है कि वो एक बार फिर उन पुराने मूल्यों की ओर लौटे, ताकि वो कम से कम आर्थिक मोर्चे पर तो मौजूदा सत्तातन्त्र से अलग दिख सके।

दरअसल नब्बे के दौर के बाद देश में उदारीकरण की बयार बही, दुनिया से सीधे जुड़ाव हुआ। पीवी नरसिम्हा राव के वक्त हुई उदारीकरण की आर्थिक क्रांति ने अर्थव्यवस्था पटरी पर ला दी । जिसके बाद गैर कांग्रेसी सरकारें भी उसी राह पर आगे बढ़ीं, और मौजूदा सरकार ने तो इसे लेकर कुछ ज्यादा ही कदम आगे बढ़ा दिए हैं। मोदी की जापान, ब्राजील, अमेरिका, आसियान की तमाम यात्राएं दरअसल इसी कोशिश का हिस्सा हैं। ऐसे में कांग्रेस अगर वापस नेहरू की विचारधारा को मजबूती से जेहन में रखते हुए आगे बढ़ती है तो उसके लिए अपना मेकओवर करने का ये बेहतर मौका साबित हो सकता है।

दरअसल नेहरू की विचारधारा में बहुत कुछ ऐसा है जिसे कांग्रेस वास्तव में आगे बढ़ाए तो उसके लिए ये संजीवनी साबित हो सकता है। नेहरू की विचारधारा में महात्मा गांधी के आदर्शवाद की छाप थी। ये विचारधारा सेकुलरिज्म, वैज्ञानिक सोच, लोकतांत्रिक मूल्य और समाजवाद के ताने बाने से बुनी थी। नेहरू जी कहीं ना कहीं साम्यवाद से भी प्रभावित थे। लेकिन भारतीय अर्थतन्त्र में निजी पूंजी और बाजार का पूरी तरह विरोध नहीं किया। स्थानीय पूंजीपतियों के लिए स्पेस बनाया और आधुनिक भारत की नींव रखी।

हालांकि नेहरू के बाद उनकी बेटी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अलग तरीके से राजनीति की। प्रीवीपर्स को खत्म किया, बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, गरीबी हटाओ का नारा दिया, लेकिन सार्वजनिक और निजी भागीदारी में संतुलन की वकालत की। हालांकि उसी दौरान उनके बेटे संजय गांधी बाजारवाद, पूंजीवाद और अमेरिकावाद की वकालत करते थे। 1977 में करारी हार झेलने के बाद इंदिरा का मोह समाजवादी नारों से भंग हुआ और वो विचारधारा के स्तर पर कुछ कर पातीं कि उनकी 31 अक्टूबर 1984 को  हत्या हो गई।

इंदिरा गांधी के बाद पीएम बने राजीव गांधी आधुनिक माहौल में पढ़े लिखे थे, और प्रगतिशील सोच रखते थे। उन्हें पता था कि देश की तरक्की के लिए पूंजी चाहिए, और तकनीक भी, सत्ता के विकेन्द्रीकरण यानी पंचायतीराज का सपना भी राजीव गांधी का था। टेलीकॉम क्रांति भी राजीव ने ही शुरु की। जिसका असर ये हुआ कि आगे के दिनों में देश के लिए उदारीकरण का रास्ता खुला और नरसिम्हा राव की सरकार आते-आते कांग्रेस ने समाजवादी चोला उतार फेंका। लाइसेंस परमिट राज को खत्म किया गया, देश के दरवाजे खोल दिए गए।,नतीजा ये हुआ कि राजसत्ता नियन्त्रक की जगह रेगुलेटर बन गई ।

हालांकि नरसिम्हा राव के बाद कई सालों तक सत्ता से दूर रहने के बाद कांग्रेस ने सबक लिया और 2004 में बाजारवाद को आम आदमी से जोड़ने की कोशिश की। सूचना का अधिकार कानून बनाया, मनरेगा योजना लेकर आई, कर्जमाफी का ऐलान हुआ। 2009 में इसका फायदा भी उसे मिला, लेकिन भ्रष्टाचार की भूलभुलैया में कांग्रेस इस कदर उलझी की 2014 में वो सबसे बुरे दौर में पहुंच गई।

नेहरू का समाजवाद, इंदिरा-राजीव का मिश्रित समाजवाद, नरसिम्हा राव उदारीकरण  के बाद अब एक बार फिर कांग्रेस के लिए बदलने का वक्त है और इसके लिए नेहरू की विचारधारा उसके लिए गेमचेंजर साबित हो सकती है। लेकिन सवाल ये कि क्या वाकई घड़ी की सुई को उलटा घुमाया जा सकता है? क्योंकि कांग्रेस को भी पता है कि जिस राह पर वो इतना आगे बढ़ चुकी है वहां पीछे लौटने का मतलब है अपना सबकुछ दांव पर लगा देना। जिसके लिए ना केवल बड़ा हौसला चाहिए बल्कि एक ऐसा कुशल नेतृत्व भी जो सर्वस्वीकार्य हो। फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत यही है।

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