गोरों के सामने अब भी सिर उठाने की हिम्मत नहीं....
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गोरों के सामने अब भी सिर उठाने की हिम्मत नहीं....

बात देश को ऑलंपिक में 8 स्वर्ण पदक दिलाने वाले हॉकी खेल की हो तो बरबस ही खेलप्रेमी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं. 

गोरों के सामने अब भी सिर उठाने की हिम्मत नहीं....

भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान सरदार सिंह के अचानक खेल से सन्यास लेने के फैसले से हॉकी प्रेमी सन्न रह गए थे. वे यह जानने के प्रयास में लगे थे कि इतनी शिद्दत से देश के लिए हॉकी खेलने वाले इस जुझारू खिलाडी ने अनायास खेल से सन्यास क्यों के लिया ? उन्होंने क्यों चुपचाप अपनी हॉकी स्टिक खूॅटी पर टॉंग दी ? उनके द्वारा उठाया गया यह कदम किसी के गले नहीं उतर रहा था. क्योंकि सब जानते हैं कि सरदार अभी भी भारतीय हॉकी के श्रेष्ठ खिलाडी हैं. उनका वर्तमान प्रदर्शन भी इस बात को सि़द्ध कर रहा है. बात देश को ऑलंपिक में 8 स्वर्ण पदक दिलाने वाले हॉकी खेल की हो तो बरबस ही खेलप्रेमी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं. 

अंततः बात सरदार सिंह ने साफ कर दी. उन्होंने भारतीय हॉकी टीम के विदेशी कोच और हाई परफारमेंस डायरेक्टर को इसका जिम्मेदार बताया है. उनके इतना कहने के साथ ही जो सवाल उठ रहे थे, अब उनके जवाब हॉकी इंडिया और मैनेजमेंट को देने पडेंगे. आखिरकार, उन्होंने इस प्रकरण में क्या भूमिका निभाई. क्या वे भी यही चाहते थे, कि सरदार सिंह सन्यास ले ले ? या वे विदेशियों के फैसले में उनके साथ थे ? क्या इसे, इतने बडे खिलाडी को टीम से बाहर करने के लिए बनाई गई ’रणनीति’ कहा जाये. इतने बडे स्तर पर भी यदि पारदर्शिता नहीं है, तो फिर पारदर्शिता की बात करना ही बेमानी है.

सब जानते हैं कि सीनियर खिलाडी और टीम मैनेजमेंट का आपसी रिश्ता सबसे करीबी होता है. यह खिलाडी, टीम के अन्य खिलाडियों, मैनेजमेंट, खेल फेडरेशन के बीच एक ’सेतू’ का काम करता है. जिससे सबके मध्य आपसी तालमेल हर पल शक्तिशाली हो सके. वह जानता है कि उसे किस तरह सबके मध्य तालमेल बनाना है, जिससे सबकी सोच सकारात्मक दिशा में जा सके और बेहतर से बेहतर परिणाम टीम को मिल सके. 

लेकिन यहां तो कहानी कुछ और ही हो गई. जैसा सरदार सिंह ने बताया कि उसे किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पडा. वह वाकई ’स्तब्ध’ कर देने वाला था. किस प्रकार 2017 के एशिया कप जीतने के बाद उन्हें महत्वपूर्ण ’कॉमनवेल्थ गेम्स’ की टीम में नहीं चुना गया. जहां कैम्प के बाद, चयनित खिलाडियों की सूची खिलाडियों के रूम के बाहर चिपका दी गई. ऐसा तो शायद पहली ही बार हुआ हो. यह क्या दर्शाता है ? क्या सरदार सिंह जैसे सीनियर खिलाडी को आप बताने में डर रहे हो कि आपने उसे नहीं चुना है. ’यो-यो’ टेस्ट में सबसे आगे रहने वाला खिलाडी और फील्ड पर शानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाडी को बाहर करने का ’कारण’ उसे बताने में हिचक रहे हों ? क्योंकि सबको पता है कि आज भी सरदार सिंह भारतीय हॉकी टीम की रीढ की हड्डी हैं.

आप चार महीने बाद ही फिर से सरदार सिंह को ’एशियन गेम्स’ के लिए चुन लेते हैं. जहां भारत ने रजत पदक जीता. यहां भी सरदार सिंह ने अपने प्रदर्शन के सबको प्रभावित किया. किन्तु फिर एक महीने बाद आयोजित होने वाले एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी के ’संभावितों’ तक में भी सरदार सिंह को नहीं रखा गया. यह तो इस बडे खिलाडी की ’सरासर बेइज्जती’ है. आखिरकार, यह सब क्या हो रहा था उनके साथ. कहीं इस मजबूत खिलाडी को तोडने के लिए, उसके खिलाफ कोई ’साजिश’ तो नहीं हो रही थी. या भारतीय हॉकी टीम के बढते प्रदर्शन को नींचे लाने का कोई षणयंत्र. या हॉकी विश्वकप के ऐन पहले भारतीय हॉकी टीम का ध्यान भटकाने का कोई प्रयास.

हर बात विदेशी हाई परफारमेंस डॉयरेक्टर और विदेशी कोच की ओर ही ईशारा कर रही है. क्या वह इस सीनियर खिलाडी की भावनाओं से खेल रहे हैं या भारतीय हॉकी प्रेमियों की भावनाओं से. इतने बडे खिलाडी के साथ उनके द्वारा किया गया व्यवहार कहीं से भी उचित नजर नहीं आता. लेकिन यह सब हो रहा था और सब ’मूकदर्शक’ बनकर देख रहे थे. ना मीडिया ने हल्ला मचाया ना किसी खिलाडी ने. पूर्व में भी 1998 में जब 32 वर्षों के बाद हमने एशियन गेम्स का स्वर्ण पदक जीता था, तो धनराज पिल्लई सहित 6 प्रमुख टीम के खिलाडियों को हमने अगले की टूर्नामेंट में नहीं भेजा था और कारण बताया था कि उन्हें आराम दिया गया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने बडे बदलाव की सभी ने आलोचना की थी.

हमने पिछले 30 वर्र्षों में कई विदेशी कोचों को बुलाया और हमेशा ही उनके साथ अनुभव कडवे ही रहे हैं. 2004 के एथेंस ऑलंपिक में टीम के कोच गैरार्ड रैक ने किस प्रकार धनराज पिल्लई जैसे महान खिलाडी को बैंच पर बैठाकर उनकी बेइज्जती की थी. और सब अपने मुॅह सिले रहे. क्योंकि गोरे के सामने बोलने की हिम्मत किसी में नही थी. ऐसे कई उदाहरण हैं जब विदेशी कोचों ने हमारे खिलाडियों को अपनी ही लकडी से हाका है. हमारे खिलाडी भी ना जाने किस मिट्टी के बने हैं. सबकुछ सिर झुकार शिरोधार्य कर लेते हैं. वे जानते हैं कि यहां का सिस्टम क्या है. विदेशी के सामने उनकी कोई भी दलील सुनी नहीं जायेगी. खिलाडी खून का घूॅट पीकर रह जाता है और अपने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए गहरी सॉस भरकर बोलता है कि जाने दो यार.........मैं ठीक हूॅं.

हमेशा शान्त चित्त रहने वाले सरदार सिंह के दिल के अंदर दबा गुबार अंततः फूट ही गया. जो बाहर निकलना अवश्यंभावी भी था. जिसके माध्यम से एक बार फिर वो बात हमें याद आ गई कि हम आज भी गोरों के आगे कुछ नहीं हैं. हम आज भी उन्हें अपने से श्रेष्ठ मानते हैं और लोगों को कहते हैं कि इन्हें श्रेष्ठ मानो. सरदार सिंह जैसा जीवट खिलाडी उनमें से नहीं है जो बेवजह कोई बात कहे. 12 साल भारतीय हॉकी टीम की ओर से 314 अंतरराष्ट्रीय मैचों में फील्ड पर रहने वाले भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान ने हमेशा अपने खेल से देश को गर्व दिलाया है. किन्तु जिस खेल ने उन्हें सब कुछ दिया, उससे इस तरह की विदाई लेने का निर्णय लेते समय उनकी आत्मा चित्कार गई होगी. आज फिर गोरे हम पर भारी पड गए. हमारे अपनों ने इस प्रकरण में कुछ नहीं बोलकर हमारे ही खिलाडी को कटघरे में खडा कर दिया. आखिरकार, सीनियर खिलाडी का सम्मान करना हम कब सीखेंगे. 

(लेखक खेल समीक्षक व कमेंटेटर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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