डियर जिंदगी : बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं...
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डियर जिंदगी : बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं...

बच्‍चे कहते रहते हैं कि उन्‍हें समय चाहिए तो हमारा तर्क होता है कि समय के अलावा सबकुछ है. हम बच्‍चों को समय नहीं दे पाते क्‍योंकि समय की कटौती उनके हिस्‍से से ही होती है. उनके लिए सुविधा बढ़ाने के नाम पर होती है.

बच्‍च्‍चों को हम कितना कम सुनते हैं. हम उनके मन की बात समझने की जगह, उन पर वह सलाह लादते दिखते हैं, जो हमें सही लगती हैं.

एक ओर बच्‍चे बता रहे थे कि माता-पिता से उनकी क्‍या शिकायतें हैं. दूसरी ओर माता-पिता भी अपनी पीड़ा साझा कर रहे थे. दोनों कोएक-दूसरे से जितनी शिकायतें हैं, उतना ही प्रेम भी है. लेकिन समय कुछ ऐसा है कि प्रेम को शब्‍द नहीं मिल पा रहे हैं. प्रेम जीवन की भागदौड़, सुविधा के नाम पर बढ़ते तनाव के कठिन रास्‍तों में कहीं भटक गया है. हम उसे दूसरे की ओर भेज रहे हैं, लेकिन बार-बार वह नेटवर्क में फंसकर रह जा रहा है.
   
बच्‍चों का माता-पिता से, माता-पिता का बच्‍चों से रिश्‍ता एकदम सहज, स्‍वाभाविक है. तो इस लिहाज से इस संवाद में नया क्‍या था! यह तो घर-आंगन का संवाद है, इसके लिए इस तरह की बहस की क्‍या जरूरत है!

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इस संवाद में सबसे रुचिकर, सराहनीय पहल है... एक-दूसरे के प्रति प्‍यार, गहरी संवेदना के साथ उन बातों का सामने आना जो सामान्‍यत: सुनने को नहीं मिलतीं. एक-दूसरे ने उन सवालों को 'समय' दिया, जिनके प्रति हम घर पर आमतौर पर ध्‍यान नहीं देते. बच्‍चे कहते रहते हैं कि उन्‍हें समय चाहिए तो हमारा तर्क होता है कि समय के अलावा सबकुछ है. हम बच्‍चों को समय नहीं दे पाते क्‍योंकि समय की कटौती उनके हिस्‍से से ही होती है. उनके लिए सुविधा बढ़ाने के नाम पर होती है.

बच्‍चे स्‍कूल में अच्‍छा कर रहे हैं, स्‍पोर्ट्स में अच्‍छा कर रहे हैं. नाम रोशन कर रहे हैं, तो हम उनके साथ हैं, लेकिन अगर वह कुछ नहीं कर पर रहे हैं तो उनका साथी कौन! बच्‍चे यही सवाल पूछ रहे हैं...

इस विमर्श के सूत्रधार लेखक, पत्रकार पशुपति शर्मा थे. और इसका आधार एक ऐसी घटना थी, जो हर परिवार के लिए खतरे की घंटी है. पंद्रह-सोलह बरस के दो बच्‍चे माता-पिता से इतने नाराज हुए कि उन्‍होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया. समाज, पुलिस की सजगता से बच्‍चे जल्‍दी घर आ गए. लेकिन इस खतरे की रेंज अकेला गाजियाबाद का वह परिवार नहीं है. कैसे धीरे-धीरे जीवन में बढ़ता तनाव डिप्रेशन, आत्‍महत्‍या की ओर खींच रहा है. बच्‍चे माता-पिता से डरकर, नाराज होकर भाग रहे हैं. इस ओर जितनी जल्‍दी हमारा ध्‍यान जाएगा, उतना ही सुरक्षित हमारा परिवार रहेगा.

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इस संवाद सत्र में अनेक विशेषज्ञों ने हिस्‍सा लिया. जिनमें फिजिशियन, मनोचिकत्‍सक, शिक्षक और वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी थे. संवादों की भीड़ में यह बेहद उपयोगी, सार्थक संवाद रहा. इसने एक ऐसे विषय की ओर संकेत किया है, जिस पर अधिकतम संवादों की जरूरत है.

बच्‍च्‍चों को हम कितना कम सुनते हैं. हम उनके मन की बात समझने की जगह, उन पर वह सलाह लादते दिखते हैं, जो हमें सही लगती हैं. हम उन्‍हें समझने, सुनने और प्रेम देने की जगह 'कुछ' बना देने के विचार से भरे हैं. यह भरा होना हमें कई बार आक्रामक बना देता है. हम बच्‍चों के प्रति हिंसक हो उठते हैं. क्‍योंकि वही हमारे लिए सॉफ्ट टारगेट हैं. हम उनके साथ सहजता, प्रेम और आत्‍मीयता की जगह बिजनेसमैन जैसा व्‍यवहार करने लगे हैं.

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बच्‍चा कोई प्रॉपर्टी नहीं है. प्‍लॉट नहीं है. जिस पर अपनी मर्जी से घर, फैक्‍ट्री बनाई जा सके. उस नक्‍शे के हिसाब से जो आपके हिसाब से सर्वोत्‍तम है. बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं. हमें उन्‍हें खड़े होने के लिए हाथ देना है, लेकिन खड़े होने के बाद वह कहां जाना चाहते हैं, यह चुनाव, रास्‍ता पूरी तरह उनका ही होना चाहिए.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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