डियर जिंदगी : सुख और स्मृति का कबाड़
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डियर जिंदगी : सुख और स्मृति का कबाड़

असल में हमें जिंदगी का जो हिस्‍सा पसंद नहीं, वह धीरे-धीरे नापसंद की सूची से खिसकते हुए बदसूरत की ओर बढ़ जाता है. 

डियर जिंदगी : सुख और स्मृति का कबाड़

चंडीगढ़ का एक बेहद खूबसूरत कोना है, नेकचंद जी का रॉक गार्डन. यह जगह असल में हमें दो चीजें एक साथ सिखाती हैं. पहली इस ब्रह्मांड में हर चीज का रचनात्‍मक उपयोग संभव है. दूसरा दुनिया में कुछ भी बदसूरत नहीं है. असल में हमें जिंदगी का जो हिस्‍सा पसंद नहीं, वह धीरे-धीरे नापसंद की सूची से खिसकते हुए बदसूरत की ओर बढ़ जाता है. जबकि नेकचंद जी ने सिखाया था कि हमें चीजों का इस्‍तेमाल कैसे करना है. जिसे हम उपयोग किया हुआ मानकर एक किनारे कर रहे हैं, उससे कैसे सुंदर, सृजनात्‍मक दुनिया रची जा सकती है.

कबाड़ कुछ और नहीं उन यादों\अनुभव का पता है, जो साथ दौड़ने से पीछे रह गईं. मनुष्‍य की सबसे बड़ी चुनौती यह कबाड़ होने वाला है. वह चीजों के कबाड़ को तो किसी तरह संभाल भी लेगा, लेकिन अपने भीतर के खालीपन और कबाड़ को कहां ठिकाने लगाएगा?

रॉक गार्डन में कुछ वक्‍त बिताने के दौरान इस बात का अहसास और मजबूत हुआ कि हम चीजों के बारे में अपने बनाए नजरिए से ही कितने दूर होते जा रहे हैं. हम अपनी स्मृति का कबाड़ जुटाने के काम में इतने मसरूफ हैं कि समझ ही नहीं रहे हैं कि यह काम किसकी कीमत पर हो रहा है.

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क्‍या है, स्मृति का कबाड़! जबसे स्‍मार्टफोन में सेल्‍फी की सुविधा शुरू हुई, इसने एक साथ हमारी सोच-समझ पर एक के बाद एक जोरदार हमले किए. जिनका हमारे पास कोई समाधान नहीं है. एक समाज के रूप में हमारे सोचने-समझने की शक्ति से हर दिन हम दूर जाते नजर आ रहे हैं.

यहां नेकचंद की दुनिया को देखने वालों को हम दो तरह के लोगों में बांट सकते हैं. पहले और बहुत कम वह जो यहां की रचनात्‍मकता को समझने की कोशिश में हैं. इनमें विदेशी पर्यटकों, शोधार्थियों की संख्‍या अधिक है. दूसरे और सबसे अधिक वह हैं, जो हमारे देश के कोने-कोने से यहां आते हैं. इनमें से नब्‍बे प्रतिशत केवल सेल्‍फी में व्‍यस्‍त हैं. मुझे इनकी सेल्‍फी से अधिक संकट इनके रवैए में दिख रहा है.

सेल्‍फी में डूबने वाले केवल युवा नहीं हैं. वह सभी हैं, जिन्‍हें अपने सुख की झूठी ही सही, लेकिन गवाही दूसरों को देनी है. दूसरों को बताना है कि वह कितने सुखी हैं. असल में वही सुखी हैं.

रॉक गार्डन का यह अनुभव अकेला नहीं है. पूरे देश में चीजों को जानने-समझने और देश के प्रति अपनी समझ को विकसित करने की जगह एक भेड़चाल है. मोबाइल में हर दिन कम पड़ता डाटा स्‍टोर इस ओर इशारा कर रहा है कि मोबाइल स्मृति का कबाड़खाना बन गया है. हम किसी पल को महसूस करने, उसे जीने और उसके आनंद को अपने भीतर उतारने की जगह डाटा स्‍टोरज बढ़ाने में लगे हैं.

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एक यात्रा के बाद दूसरी यात्रा जारी है. लेकिन यात्रा का हासिल कहीं नहीं है. सिवाए मोबाइल में जमा अनंत तस्‍वीरों के जो असल में कचरा हैं, अपनी अदा पर मुग्‍ध हमारे समय की. हम आनंद, भावना के प्रवाह को समझने से दूर निकलते हुए केवल तस्‍वीरों में उलझे हुए समाज बनते जा रहे हैं.

समझ से दूर, अपने से निकलते हुए हम तनाव की गहरी खाई की ओर बढ़ रहे हें, जिसमें जीवन का अहसास हमसे ही अनजाने में फि‍सलता जा रहा है. इस फिसलन को रोकने के लिए सबसे जरूरी है, अपनी यात्रा. अंतर्यात्रा. खुद को जानने और समझने की. इसके लिए कितने तैयार हैं, आप!

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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