डियर जिंदगी : फूल-पत्‍तों में उलझे, जड़ों को भूल गए...
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डियर जिंदगी : फूल-पत्‍तों में उलझे, जड़ों को भूल गए...

क्‍या स्‍कूल जाना. अच्‍छे, नहीं खूब अच्‍छे नंबर लाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्‍य है. उसके बाद करियर की तलाश. बढ़िया नौकरी. उसके बाद शादी वगैरह! हमने इसे ही जीवन मान लिया है.

डियर जिंदगी : फूल-पत्‍तों में उलझे, जड़ों को भूल गए...

हमें बचपन से सिखाया गया है कि काम में ध्‍यान दो! जो काम कर रहे हो, उसमें पूरी शक्ति लगा दो. जब तक बच्‍चा छोटा होता है, तब तक यह ठीक चलता है. क्‍योंकि उपदेश का सारा उद्देश्‍य बच्‍चे को स्‍कूल में अधिक से अधिक नंबर दिलाना होता है. इसलिए हम उसे समझाते-बुझाते रहते हैं कि फोकस करो. लेकिन जैसे ही वह स्‍कूल-कॉलेज के बंधनों से पार पाता है. नौकरी के समंदर में झोंक दिया जाता है. वहां भी उससे कहा जाता है कि वह फोकस करे. अपनी सारी ऊर्जा काम को समर्पित कर दे. यह सब 'ऑटो' मोड में होता है. जैसे सबकुछ पहले से स्क्रिप्‍टेड है. तय है, लिखा हुआ. यही करना ही जीवन का लक्ष्‍य है. हम जिस जीवन के लिए इतना सबकुछ कर रहे हैं, उसे ही भुला बैठते हैं.

क्‍या स्‍कूल जाना. अच्‍छे, नहीं खूब अच्‍छे नंबर लाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्‍य है. उसके बाद करियर की तलाश. बढ़िया नौकरी. उसके बाद शादी वगैरह! हमने इसे ही जीवन मान लिया है. इसी गुजर-बसर को हम जिंदगी का एकमात्र उददेश्‍य समझ बैठे हैं. क्‍योंकि बचपन से हमें यही पढ़ाया, सिखाया गया है. वैसे यह कोई अनूठा काम नहीं, क्‍योंकि इससे पहले माता-पिता, दादा-दादी ने भी तो ऐसे ही जीवन जिया है, इसमें अलग क्‍या है!

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और क्‍या है, जो इससे अलग किया जाना चाहिए. एक छोटी सी कहानी है. जो शायद इस बात को समझने में मदद करे कि जीवन है, क्‍या. जिंदगी के मायने क्‍या हैं.

एक छोटे से पहाड़ी कस्‍बे में एक बुजुर्ग दादी अकेली रहतीं थी. उनकी एक बड़ी प्‍यारी फुलवारी थी. फूल, पौधों की बहार थी. एक बार गर्मियों में दादी बहुत बीमार हो गईं. तो वैद्य ने कहा कि अब दस दिन बिस्‍तर से उठना मत. दादी ने कहा, मेरी फुलवारी! तो पड़ोस में रहने वाले एक बच्‍चे ने जो उनके पोते जैसा ही था, उसने कहा, 'मैं हूं न'. मैं हर दिन पानी दूंगा. हर पौधे का ख्‍याल रखूंगा.' दादी कुटिया में आराम करने लगीं. बच्‍चा भी हर दिन नियम से अपना काम करने लगा. एकदम अनुशासन से. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे स्‍कूल जाने वाले बच्‍चे करते हैं. एकदम नियम से स्‍कूल जाना-आना. सबकुछ वैसे ही करना जैसा बताया गया है.

दस दिन बाद दादी उठीं. फुलवारी में पहुंचीं, तो फूट-फूटकर रोने लगीं. उनका रोना सही था. उनकी फुलवारी सूख गई थी. पौधे मर गए थे. सूखकर कांटा हो गए.

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दादी के साथ वह बच्‍चा भी रोने लगा. पास में बाल्‍टी रखी थी, जिसमें पानी रखा था. दादी को कुछ समझ नहीं आया. उन्होंने पूछा बेटा तू पानी तो डालता था न! पोते ने कहा, हां मैं रोज हर पौधे की एक-एक पत्‍ती साफ करता था. पहले धूल पोंछता था, उसके बाद पानी से साफ करता था. दादी को अपनी गलती समझ में आ गई. उन्‍होंने कहा, बेटा मैंने समझा था कि पौधों को पानी देना कौन सा बड़ा काम है. तुम कर ही लोगे. तुम्‍हें बाल्‍टी दे दी, पानी दे दिया. लेकिन यह नहीं बताया कि पानी देना कहां है. गलती तुम्‍हारी नहीं मेरी है.

दादी ने तो गलती मान ली!

लेकिन हम जो जिंदगी के प्रति अपराध सदियों से किए जा रहे हैं, उसके लिए कौन क्षमा मांगेगा. कौन यह बताएगा कि जिंदगी वह गली नहीं है, जिसमें उलझकर हम बचपन से लेकर बुढ़ापे तक खपे रहते हैं. जिंदगी वृक्ष की जड़ों जितनी गहराई में रहती है. हम उस बच्‍चे की तरह हैं, जिसने पत्‍तियों को पानी देने के फेर में जड़ों को भुला दिया. हमारे जीवन पर भी पेड़ की तरह सूख जाने का संकट मंडरा रहा है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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