हम बच्चों को समझे बिना, उनकी क्षमता को जाने बिना उन्हें नंबरों की खतरनाक दुनिया में धकेल रहे हैं. हर दिन यह संकट बढ़ता जा रहा है.
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बच्चों की परीक्षा शुरू हो चुकी है. नर्सरी से लेकर बारहवीं तक के बच्चे एक जैसी भावना से पढ़ रहे हैं. सबको नंबर हासिल करने हैं. सबको नाम 'रोशन' करना है. सबको बड़ा बनना है. मुझे बेटे के स्कूल गेट के बाहर बच्चों को छोड़ने आने वालों की बातें अचरज में डाल देती हैं. खासकर बच्चों की मां गहरी चिंता में नजर आती हैं. चार से छह बरस के वह बच्चे जो पूरी तरह से अपना ख्याल भी नहीं रख पाते. उनके ऊपर सलाहों की बारिश होती है. उनको बार-बार याद दिलाया जाता है, 'पेपर' में पूरे नंबर लाना है'.
मैं यह सब नहीं कह पाता. अधिक से अधिक हुआ तो यही कहता हूं, अपना ख्याल रखना. मैं यह इसलिए भी करता हूं क्योंकि बच्चों के ऊपर पहले से ही भारी तनाव है. स्कूल, ट्यूशन और घर यह तीनों मिलकर बच्चे के लिए परीक्षा के दिनों में चक्रव्यूह रच देते हैं. ऐसा चक्रव्यूह जो बच्चे को डिप्रेशन और कई बार आत्महत्या तक ले जाता है. जैसे गर्मी में माली फूलों का अधिक ध्यान रखते हैं, वैसे ही बच्चों का इन दिनों में अधिक ख्याल रखना सबसे बड़ा काम है.
बच्चों से जुड़े मामलों पर काम करने वाले लेखक, पत्रकार, शोधार्थी राकेश मालवीय कहते हैं, 'शिक्षा व्यवस्था में तमाम विमर्श हैं, लेकिन परीक्षा में असफल हो जाने का विचार तो सबसे क्रूर अवस्था है. यदि यह कारण इतना गंभीर है, जिसकी वजह से हजारों बच्चे अपना जीवन खत्म कर रहे हैं तो सोचिए कि हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं और माहौल कितना बीमार है.'
दुख की बात यह है कि परीक्षा में असफल हो जाने के जिस विचार को राकेश क्रूर व्यवस्था कह रहे हैं, उसे ही समाज ने अपने बच्चों के लिए आदर्श मान लिया है. हमारे यहां सफल और असफल का इतना भयावह मॉडल तैयार हो गया है कि यह बच्चों के जीवन के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है.
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राकेश की बात आंकड़ों की गवाही से और गंभीर हो जाती है. 1970 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की आत्महत्याओं वाली रिपोर्ट में 3.6 प्रतिशत आत्महत्याएं परीक्षा में असफल होने की वजह से हुईं थी और अब 2015 की रिपोर्ट में यह प्रतिशत 6.7 प्रतिशत तक जा पहुंचा है, तकरीबन दोगुना. संख्या में देखें तो 2015 में 18 साल से कम उम्र के 1360 बच्चों ने परीक्षा में फेल हो जाने की वजह से आत्महत्या की, इनमें 697 लड़के और 663 लड़कियां शामिल थीं.
हम बच्चों को समझे बिना, उनकी क्षमता को जाने बिना उन्हें नंबरों की खतरनाक दुनिया में धकेल रहे हैं. हर दिन यह संकट बढ़ता जा रहा है. होता यह है कि जब किसी दिन हमारे ही पड़ोस में कुछ अप्रिय घट जाता है तो हम यह कहते देखे जाते हैं कि अरे! यह कैसे हो गया. उनका बेटा, उसने यह कैसे कर लिया. उसने क्यों कर लिया. वह कैसे कर सकता है. वह तो बड़ा ही समझदार था. उसे देखकर तो यह कभी लगा ही नहीं कि वह कभी ऐसा कर लेगा?
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किसी को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह कब आत्महत्या करेगा? कहना संभव नहीं. लेकिन यह जरूर संभव है कि हम उसकी मन की परतों तक अपनी पहुंच, अपनी संवदेनशीलता, आत्मीयता को बढ़ा लें. बच्चे के मन तक पहुंचने के लिए उतनी ही मासूमियत चाहिए, जितनी उसके मन में है.
इसे ऐसे समझिए कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए पहाड़ पर से ही उसके जैसे मुश्किल रास्तों से गुजरना होता है. ऐसा ही मन के साथ होता है. हर किसी का अपना मन होता है. किसी का सरल, किसी का जटिल और किसी का मासूम. जिसके मन की संरचना जैसी होती है, वह वैसी ही फ्रीक्वेंसी ग्रहण करता है.
इसलिए मेरी गुजारिश है कि इन दिनों बच्चों को प्रेम की खुराक दो नहीं चार गुनी कर दीजिए. उन्हें प्रेम के अतिरिक्त सभी चीजों से मुक्त कर दीजिए. याद रहे, बच्चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं हैं...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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