देश, समाज संक्रमण काल से गुजर रहा है. शहरों के विस्तार के साथ जाति के बंधन टूट रहे हैं, लेकिन अब भी वह पर्याप्त मजबूत हैं.
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वह देश के सबसे अच्छे एमबीए कॉलेज से हैं. कॉलेज के तुरंत बाद अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई. अब नौकरी मिल गई तो जाहिर है, घर-परिवार से 'आगे' के बारे में सोचना शुरू कर दिया. यह आगे की सोच, संवाद की कमी और विचारों की अस्पष्टता के कारण दुविधा में बदल गई. हम शहरों की इमारतों, सड़कों को देखकर अक्सर यह कहते हैं कि देश बदल रहा है. लेकिन कोई देश बिना अपना मन, विचार बदले कैसे बदल सकता है. लड़कियों, जातियों और शादियों को लेकर हमारे दुराग्रह इतने गहरे हैं कि अगले सौ बरस तक इसमें परिवर्तन की उम्मीद झूठी लगती है. हम लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में काफी हद तक आ गए हैं, लेकिन अकेली शिक्षा से क्या होगा. यह तो कुछ यूं होगा कि उड़ने को कह दो लेकिन पंख बंधे हों.
डियर जिंदगी को गुडगांव से एक ईमेल मिला. जिसमें गौतमी भार्गव ने लिखा है कि वह अपने परिवार, रिश्तेदार और 'पसंद' के लड़के के बीच में फंस गई हैं. उन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा. क्योंकि परिवार उस लड़के के पक्ष में नहीं है, जिसे वह पसंद करती हैं. परिवार की पसंद से वह सहमत नहीं हैं.
परिवार का कहना है कि अगर वह अपनी पसंद से शादी करती हैं तो उन्हें परिवार को छोड़ना होगा. दूसरी ओर लड़के के अभिभावकों का कहना है कि अगर परिवार स्वीकार नहीं करता तो वह भी इस शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. इस तरह लड़के की ओर से मंजूरी तो है, लेकिन शर्तों के साथ. गौतमी परिवार, प्रेम और शर्तों के बीच झूल रही हैं.
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गौतमी का परिवार समझ नहीं पा रहा है कि किसी से प्रेम का अर्थ दूसरे को छोड़ना नहीं है. प्रेम में तुलना कहां से आ गई. चयन कहां से आ गया. एक से प्रेम का यह अर्थ तो नहीं कि दूसरे से प्रेम नहीं है. जिसे प्रेम करने की आदत है, वह सबसे प्रेम ही करेगा. एक से प्रेम करने के लिए दूसरे को छोड़ना उसके बस में नहीं.
देश, समाज संक्रमण काल से गुजर रहा है. शहरों के विस्तार के साथ जाति के बंधन टूट रहे हैं, लेकिन अब भी वह पर्याप्त मजबूत हैं. सदियों से गुलामों जैसी जिंदगी के बाद लड़कियों के लिए समाज ने रोशनी के दरवाजे अब जाकर खोले हैं. अब जाकर उन्हें थोड़ी ही सही लेकिन कम से कम अपनी बात कहने की आजादी तो मिल रही है. हम लड़कियों को अपने मन के अनुसार आजादी दे रहे हैं. इस बात की आजादी तो है, लेकिन 'उस' बात की नहीं. ऐसे कपड़े पहनने की स्वतंत्रता तो है, लेकिन 'वैसे' नहीं. उस तरह के लड़कों से शादी तो हो जाएगी लेकिन लड़का 'वैसा' हुआ तो बात बनना मुश्किल है.
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माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे खासकर अगर वह लड़कियां हैं तो पढ़ाई भले अपनी मर्जी से कर लें. लेकिन नौकरी के चयन और शादी उन्हीं रिवाजों के तहत होनी चाहिए, जैसे उन्होंने तय किए हैं. बच्चे कितने भी 'नए' जमाने के क्यों न हों, उनमें अभी भी अपने माता-पिता के लिए पर्याप्त स्नेह है. वह सबसे पहले इसी कोशिश में रहते हैं कि कैसे भी परिवार का दिल न टूटे. इसके बाद भी देखा यही जा रहा है कि मां तो मान जाती है, लेकिन पिता नहीं मानते.
गौतमी ने आगे लिखा है, 'यह पिता क्यों नहीं मानते! मेरी दूसरी सहेलियों के साथ भी यही बातें हुई हैं कि सब ठीक था बस पिता नहीं माने. इस न मानने के पीछे कौन है? पिता को समाज विवश करता है या वह खुद समाज की ओट लिए बैठे रहते हैं. पिता लड़कों के लिए तो बदल भी जाते हैं, लेकिन लड़कियों के मामले में सवाल नाक का क्यों हो जाता है. गौतमी लिखती हैं, 'जब से पापा को यह खबर मिली, बेहद कमजोर हो गए हैं. हर बात पर भावुक हो जाते हैं. अपने प्यार, बच्चों के लिए किए गए त्याग की कहानी सुनाने/गिनाने लगते हैं. पिता ऐसे क्यों होते हैं. वह समाज का सामना क्यों नहीं करना चाहते, क्यों उनके लिए बेटी की शादी 'दूसरे' समाज में होना प्रतिष्ठा, 'नाक' का प्रश्न है!'
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इस बहादुर लड़की ने लिखा है कि एक बार तो उसके मन में आत्महत्या का ख्याल भी आया! क्योंकि वह बेतुके तर्क, आधार से परेशान हो गई है, लेकिन अब उसने तय किया है कि वह दूसरों के विचारों को अपनी जिंदगी पर हावी नहीं होने देंगी. उन्होंने तनाव, आत्महत्या और डिप्रेशन के विरुद्ध 'डियर जिंदगी' के प्रयासों की भी सराहना की है.
यह हौसला ही जीवन का सबसे विशेष गुण है. हमें हर हाल में इस गुण को बनाए रखना है. जीवन सबसे मूल्यवान है. उससे बढ़कर कुछ भी नहीं. इसलिए राह में कितने ही कांटे बिखरे हों, उनमें से जीवन के फूल को हर हाल में चुनना है, बचाना है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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