सच्चे दोस्त छोटी खुशी को दोगुना, पहाड़ से भारी दुख को छटांक भर कर सकते हैं. जबकि शुभचिंतक ऐसी चीटियों सरीखे हैं, जो केवल चीनी की बोरी लेकर चलते हैं. वह यात्रा में केवल वहां तक चलते हैं, जहां तक शुभ -लाभ का बैनर उन्हें स्पष्ट दिखाई देता है.
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ऐसा कौन है, जो मित्रों का साथ नहीं चाहता. कौन है, जिसे दोस्तों की महफिल प्रिय नहीं. दोस्त सबको चाहिए. खुद को अभिव्यक्त करने, सुख को सहेजने और दर्द को साझा करने जैसे काम मित्रों के बिना संभव नहीं. लेकिन बीते पच्चीस बरस में दुनिया के साथ भारत का घर-आंगन, सोचने समझने के तौर-तरीके सब बदल रहे हैं. रिश्ते भी उतने ही बदल रहे हैं. दोस्त भी. और दोस्तों को परखने की हमारी समझ भी. दोस्त और शुभचिंतक को लेकर दुविधा बढ़ती जा रही है.
सच्चे दोस्त हमारी छोटी से छोटी खुशी को दोगुना और पहाड़ से भारी दुख को छटांक भर कर सकते हैं. जबकि शुभचिंतक ऐसी चीटियों सरीखे हैं, जो केवल चीनी की बोरी लेकर चलते हैं. वह यात्रा में केवल वहां तक चलते हैं, जहां तक शुभ-लाभ का बैनर उन्हें स्पष्ट दिखाई देता है.
आप जितना भरोसा दूसरों पर पहले कर रहे थे, उसमें कुछ कमी आई है! जितना दुनिया आप पर भरोसा कर रही थी, उसमें कुछ कमी है! पहले के मुकाबले एक-दूसरे की परवाह कम हो रही है. एक-दूसरे को कहे, सुने का अर्थ कम हो रहा है. 'कह' दिया माने हो जाएगा वाली बात अब हर दिन कम हो रही है. जो सुख के साथी हैं, दुख में मैदान छोड़कर वही भागते नजर आते हैं. मजे की बात देखिए कि जो दूसरों के बारे में शिकायत करते नहीं थकते वह खुद अपने सोशल ऑडिट में नीरव मोदी जैसे घोटालेबाज पाए जाते हैं.
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घोटाला, भ्रष्टाचार केवल धन का नहीं होता. धन के धोखे से कहीं अधिक खतरनाक है, मन के धोखे. मित्रों को दिए गए वचन से फिरने वाले छल. जरूरत के वक्त मुंह फेर लेने वाला आचरण कहीं अधिक हानिकारक है. अगर आपके साथ ऐसा बार-बार हो रहा है तो यह भी समझना होगा कि आपका खुद का व्यवहार दूसरों के साथ कैसा रहा है. ऐन वक्त पर काम आने की आपकी आदत कितनी बार परख की कसौटी पर खरी उतरी है.
मुश्किल की 'नदी' के दिनों में कश्ती को किनारे पर पहुंचाने वाले दोस्त ही होते हैं. लेकिन सुख के समंदर में पहुंचते ही सबसे पहले उन्हें 'किनारे' लगाया जाता है. मित्र की जगह 'शुभचिंतक' सेना लेकर नई मंजिल खोजना अब फैशन है.
आप सोचेंगे कि शुभचिंतक निगेटिव कैसे हो गए. क्योंकि बचपन से हमें शुभचिंतक का सकारात्मक अर्थ ही सिखाया गया है. लेकिन ऐसा है नहीं, असल जिंदगी में शुभचिंतक के मायने कुछ और हैं.
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जिंदगी का सबक और दुनिया के व्यवहार का अध्ययन बताता है कि शुभचिंतक असल में वह है, जो हमारी चिंता केवल शुभ के समय करता है. शुभचिंतक वह नहीं, जो हमारा शुभ चाहता है. बल्कि वह है जो शुभ होते रहने पर ही हमारे साथ होता है. जिंदगी की दौड़ में जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं अक्सर दोस्तों से दूर और शुभचिंतकों से घिरते जाते हैं. ऐसे लोग जो आपका 'शुभ' होने के दौरान आपके समीप होते हैं, अपने आप शुभचिंतकों में जुड़ जाते हैं. वह दोस्त नहीं होते. वह मित्र नहीं होते, क्योंकि मित्र अवसरों के जंगल में पैदा नहीं होते. वह संघर्ष की चक्की में साथ पिसने वाले हमसफर होते हैं. जिनके अक्सर आपका गियर बदलने के बाद छूट जाने का डर बना रहता है.
इसलिए जितना हो सके, मित्रों के पास, उनके साथ रहें. उनका हाथ कभी गलती से छूट भी जाए तो उसे पकड़ने की ईमानदार कोशिश करें. जिंदगी को संघर्ष के चक्रव्यूह से निकालने के लिए शुभचिंतक नहीं मित्रों की जरूरत होती है. इसलिए मित्रों में निवेश करिए. नए मित्र बनाना जरूरी है लेकिन उससे कहीं अधिक ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि पुराने दोस्तों का साथ बना रहे. इनकी छाया जिंदगी पर तनाव के ग्रहण को सबसे अधिक कम करती है. इसलिए आप कितने ही व्यस्त क्यों न हों नई कहानी लिखने में, लेकिन जिंदगी की स्क्रिप्ट में इनके साथ की बात लिखना मत भूलिएगा.
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बच्चों, परिवार और समाज पर तनाव की गहरी छाया के उपाय हमारे आंगन में आने वाले स्नेह की धूप में छिपे हैं. इस धूप का रास्ता कभी-कभी गलतफहमी, संवादहीनता के बादल रोक लेते हैं, लेकिन सूरज और आशा का रास्ता हमेशा के लिए रोक सकें, ऐसे बादल कहीं नहीं बनते. दोस्तों के साथ रहिए, उनका ख्याल रखिए और शुभचिंतकों से उचित दूरी बनाए रखिए...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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