बच्चे रात-रात भर सो नहीं पाते. वह परीक्षा के दिनों में हर एक घंटे में क्या पढ़ रहे हैं, कहां तक पढ़ लिया, उसके अपडेट सोशल मीडिया पर डालते रहते हैं. कई बार तो वह अपनी तैयारी को जानबूझकर दूसरों से अलग दिखाते हैं. ताकि दूसरे बच्चे तनाव में आ जाएं कि वह कितने पीछे हैं.
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अगर कोई एक शब्द अचानक से अपना अर्थ खो बैठा है, तो वह है, 'फोकस'. हम इस समय जिस एक चीज से सबसे ज्यादा परेशान हो रहे हैं, वह है, ध्यान केंद्रित करने की घटती क्षमता. कुछ बरस पहले हमारी जिंदगी में एक नया शब्द दाखिल हुआ, 'मल्टीटॉस्कर'. एक साथ कई काम करने वाले. इसने हमारी सोचने, समझने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सबसे बड़ा असर डाला. हम एक साथ कई काम तो छोड़िए, एक के बाद दूसरा काम तक करने के लायक नहीं दिख रहे. हमारे ध्यान का विस्तार होने की जगह संकुचन हो गया. हमने अपने 'फोकस' यानी ध्यान को खो दिया.
ध्यान का अर्थ किए जा रहे काम में सौ प्रतिशत प्रयास से है. संपूर्ण मानसिक क्षमता के साथ. किए जा रहे काम में खुद को केंद्रित कर देना. स्कूल, शिक्षक, अभिभावक बता रहे हैं कि बच्चों का ध्यान भटक गया है. वह फोकस नहीं कर पा रहे. बच्चे किसी भी चीज़ पर फोकस नहीं कर पा रहे हैं. उनका ध्यान जितना अपनी पढ़ाई से भटका है, उतना ही उन रुचियों से भी जो उनकी उम्र में होनी चाहिए. वह पढ़ने से दूर हो रहे हैं. खेलने से दूर हो रहे हैं. लेकिन इससे कहीं अधिक खतरनाक है, उनका अपने ही घर में संवाद से दूर रहना. वह संवाद की जगह शोर से अधिक जुड़ गए हैं.
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उनका ध्यान किसने भटकाया. उस तकनीक ने जिस पर हम फिदा हुए जा रहे हैं. मोबाइल, गैजेट्स और सोशल मीडिया. यह बच्चों को स्मार्ट बनाने की जगह 'उल्लू' बनाने का काम कर रहे हैं. फेसबुक जैसी कंपनियां हमें जोड़ने के दावे की आड़ में हमारी जासूसी कर रही हैं. वह अपने एजेंडे 'समाज' से बहुत आगे निकल गई हैं. टेक्नालॉजी के नाम पर मोबाइल और गैजेट्स हमारे घर के आंगन से होते हुए मन और आत्मा तक पहुंच गए हैं. अब आए दिन ऐसी तस्वीरें हमारे सामने आ रही हैं, जिनमें घर के पांच लोग गुमसुम बैठे हैं. कोई बात नहीं हो रही. सबके सब अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त हैं. यह व्यस्तता जो अपनों के बीच संवादहीनता खड़ी कर रही है, वह हमें जोड़ने का काम तो नहीं कर सकती.
'डियर जिंदगी' के पाठक राजेश वर्मा ने लिखा है, 'बच्चे रात-रात भर सो नहीं पाते. वह परीक्षा के दिनों में हर एक घंटे में क्या पढ़ रहे हैं, कहां तक पढ़ लिया, उसके अपडेट सोशल मीडिया पर डालते रहते हैं. कई बार तो वह अपनी तैयारी को जानबूझकर दूसरों से अलग दिखाते हैं. ताकि दूसरे बच्चे तनाव में आ जाएं कि वह कितने पीछे हैं. इससे बच्चों की जीवनशैली, सोचने-समझने की क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है.'
मेरे एक मित्र ने कल बताया, 'अब कुछ दिनों से घर में टीवी एकदम गुमसुम है. क्योंकि दो नए फोन समेत घर के दो बच्चों के बीच तीन स्मार्टफोन हैं. सारे फीचर्स से लैस. कार्टून से लेकर. दोनों बच्चे डिजिटल हो चले हैं. दोनों बच्चों की उम्र सात बरस से भी कम है.' बच्चे किताब के साथ दोस्त, समाज से दूर हो रहे हैं. लेकिन इससे भी कहीं खतरनाक है, अपने ही घर में संवाद से दूरी. वह संवाद से अधिक 'नकली' दुनिया की ओर झुक रहे हैं. वह दिखावे के शोर की ओर निकल पड़े हैं.
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मैं एक छोटी सी कहानी के साथ आपको छोड़े जा रहा हूं. यह एक पुरानी कहानी है. कई बार सुनी होगी. इस बार इसे फोकस और जीवन में ध्यान के नजरिए से समझिए.
दो व्यापारी भाई एक बार किसी काम से नदी पार करके दूसरे शहर पहुंचे. देर हो गई थी तो सबने समझाया, यहीं रुक जाओ. लेकिन वह जरूरी काम की बात कहकर वहां से निकल आए. नदी किनारे पहुंचे तो नाविक मिला नहीं. कोहरे के कारण कुछ नजर भी नहीं आ रहा था. लेकिन किसी तरह वहां एक नाव दिख गई, जिससे इमरजेंसी में दूसरे पार पहुंचा जा सकता था. भाई बेहद थके थे, तुरंत नाव में बैठे. रातभर नाव खेते रहे. सुबह जब कोहरा छंटा तो उन्हें लगा कि चलो किसी तरह रात बीती. लेकिन यह क्या, नाव तो वहीं थी, जहां से चले थे.
असल में वह कहीं पहुंचे ही नहीं. वह थकान, जल्दबाजी और दिमागी उधेड़बुन के बीच नाव की रस्सी किनारे से खोलना भूल गए. वह रातभर चप्पू चलाते रहे, लेकिन कहीं पहुंचे नहीं. उनका ध्यान कहीं और था.
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हमारी कहानी भी इन भाइयों से बहुत अलग नहीं है. हम जो कर रहे हैं, असल में उससे ही दूर होते हैं. मन, विचार और काम का तालमेल तो बहुत दूर की बात है. हम वर्तमान की नदी में तैरना तो चाहते हैं लेकिन अतीत की परछाई, दूर और पीड़ा से मुक्त हुए बिना. यह कैसे संभव है. कैसे संभव है, उस ध्यान को पाना, जिसके बिना जीवन में कुछ भी साध पाना संभव नहीं.
कुछ घंटे पहले ओलंपिक पदक विजेता कर्णम मल्लेश्वरी से मिलना हुआ. उन्होंने लाख टके की बात कही, 'मुझे होटल का खाना पंसद नहीं. वहां जाती नहीं. फिल्म देखती नहीं. बच्चे पूछते हैं, मां तुम यह कैसे करती हो. मैं कहती हूं, ध्यान ही नहीं रहता, मेरे ध्यान में बस वेटलिफ्टिंग रहती है.'
आपका ध्यान कहां है...
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