डियर जिंदगी : स्‍कूल खत्‍म करने का समय आ रहा है...
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डियर जिंदगी : स्‍कूल खत्‍म करने का समय आ रहा है...

बच्‍चों को स्‍कूल से अच्‍छी शिक्षा मिलने की आस वैसे ही है, जैसे अपनी सब्‍जियां, सामान देकर 'बाहर' से स्‍वादिष्‍ट, सेहतमंद व्‍यंजन की उम्‍मीद करना. क्‍या मोटी फीस 'सही' होने की गारंटी है. दुर्भाग्‍य से सब यही मान बैठे हैं.

बच्‍चे को हर सुबह हम कितनी जतन, प्रेम और विश्‍वास से स्‍कूल की चाहरदीवार में सौंपते हैं. इस उम्‍मीद से कि उन्‍हें कोमलता, प्रेम और अनुशासन के साथ शिक्षा मिले.

स्‍कूल क्‍या कर रहे हैं. वह बच्‍चों के साथ कैसे पेश आ रहे हैं. अब यह सबके सामने है. स्‍कूल, सरकार और समाज के त्र‍िकोण में बच्‍चे कहीं नहीं हैं. बस फीस, भ्रष्‍टाचार और प्रतिष्‍ठा का लालच है.
 
आखिर स्‍कूल किसलिए हैं. हमें यह बताने के लिए कि किताब में क्‍या लिखा है. जो लिखा है, कैसे रटा जाना है. स्‍कूल इसलिए हैं, क्‍योंकि माता-पिता बच्‍चों को पढ़ा नहीं सकते. वह अशिक्षित हैं! इसलिए, क्‍योंकि उनके पास समय नहीं है.

बच्‍चों को स्‍कूल से अच्‍छी शिक्षा मिलने की आस वैसे ही है, जैसे अपनी सब्‍जियां, सामान देकर 'बाहर' से स्‍वादिष्‍ट, सेहतमंद व्‍यंजन की उम्‍मीद करना. क्‍या मोटी फीस 'सही' होने की गारंटी है. दुर्भाग्‍य से सब यही मान बैठे हैं. और जब मान बैठे हैं, तो बस जीवन इसी हिसाब से चल रहा है.

कुछ मित्रों ने मुझे देश के कुछ ऐसे परिवारों के बारे में बताया जो बच्‍चों को स्‍कूल ही नहीं भेज रहे. घर पर ही पढ़ा रहे हैं. ऐसे परिवारों की संख्‍या पचास हजार से अधिक बताई जा रही है. मैं ऐसे परिवारों से संवाद, संपर्क की कोशिश में हूं. उनके अनुभव जानना चाहता हूं. उनके साहस को सलाम. यह अपने बच्‍चे और खुद पर बेशुमार यकीन का नतीजा है. यह असल में आस्‍था का मामला है.

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आखिर स्‍कूल बच्‍चों को क्‍या सिखा रहे हैं. हम उनसे सवाल नहीं कर सकते. वह हमें बता नहीं सकते. बस, फीस जमा नहीं करने, हर बार उसे बढ़ाने का नोटिस ही स्‍कूलों के चरित्र की एकमात्र स्‍थायी विशेषता है. आखिर स्‍कूलों का हासिल क्‍या है. किसलिए स्‍कूल बनाए गए होंगे, और वह क्‍या हो गए हैं.

स्‍कूल बस साक्षरता के लिए नहीं थे. स्‍कूल बच्‍चों, समाज को समावेशी बनाने के लिए बने थे. बच्‍चों को नैतिक शिक्षा, सवाल पूछने की आदत को विकसित करने के लिए बने थे.
 
स्‍कूल इसलिए थे, ताकि कोई द्रोणाचार्य गुरुकुल की फीस के नाम पर एकलव्‍य का अंगूठा न काट ले. लेकिन अंगूठा तो दूर स्‍कूल एकलव्‍य को ही निगल गए.

बच्‍चे को हर सुबह हम कितनी जतन, प्रेम और विश्‍वास से स्‍कूल की चाहरदीवार में सौंपते हैं. इस उम्‍मीद से कि उन्‍हें कोमलता, प्रेम और अनुशासन के साथ शिक्षा मिले. वह समाज, जीवन के संस्‍कार सीखेंगे. लेकिन हमारी आशा निरर्थक है.

शिक्षक क्‍या सिखा रहे हैं! यह कौन है! सरकार, शिक्षकों से गाय, भैंस गिनने से लेकर चप्‍पलें तक गिनवाने का काम कर रही है. देश के अधिकांश राज्‍य शिक्षकों का जीवन तबाह कर चुके हैं. और जो तबाह हो रहे हैं, उनके हाथ ही निर्माण की जिम्‍मेदारी है. निजी स्‍कूल के अधिकांश शिक्षक भी शिक्षा के बारे में बहुत कम जानते हैं. हां, वह थोड़ा, गणित, विज्ञान रटे हुए लोग हैं.

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हम कभी नहीं पूछते, स्‍कूल से. शिक्षकों की योग्‍यता क्‍या है. कौन हैं, जिसे आपने मेरे बच्‍चे की फ्रेंचाइजी दे रखी है. जो बच्‍चे के कोमल दिमाग की स्‍लेट पर हस्‍ताक्षर कर रहा है. शिक्षकों के पास पढ़ाने के अनुभव से अधिक जरूरी है, उसकी अपनी शिक्षा, जीवन के प्रति समझ. उसके भीतर जीवन कितना धड़कता है, वह बच्‍चे को कितना रचनात्‍मक, जिज्ञासु बना रहा है.

हम कुछ नहीं पूछ रहे. बस, बच्‍चे के नंबर देख रहे हैं. हमारी नजर बच्‍चे के स्‍कोरकार्ड पर अधिक, उसके मन पर बहुत कम है. हो सकता है, आज यह सवाल आपको परेशान करे, अजीब और बेतुका लगे. लेकिन यकीन मानिए, स्‍कूल निरंतर बेमतलब होते जाएंगे, अगर ऐसे ही वह रहे (जिसकी आशंका है).

स्‍कूल, मुश्किल से बस दस से पंद्रह बरस के मेहमान हैं. जैसे-जैसे समाज में वैज्ञानिक सोच और सवाल करने की क्षमता, खुद पर यकीन बढ़ेगा, स्‍कूल नहीं बचेंगे. बशर्ते हम खुद ही स्‍कूल के रक्षा कवच न बन जाएं, जैसे आज बने हुए हैं.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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