जैसे ही जीवन में कुछ ऐसा होता है, जो आपको सुख की ओर ले जाने वाला है, हम उसे तुलना के जाल में उलझा लेते हैं. हमें कुछ मिला तो तुरंत नजर उनकी ओर चली जाती है, जिनके साथ हम एक ही 'नदी' में तैर रहे हैं.
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अरे! तुम्हें तो मनचाहा ऑफर मिला है, फिर भी तुम खुश नजर नहीं आ रहे! इतनी कम उम्र में इतना बड़ा मकान पर तुम खुश नहीं लगे रहे. मनचाहा जीवनसाथी उसके बाद भी दंपति संतुष्ट नहीं दिखते. इन सभी स्थितियों में जब हम संबंधित पक्ष से पूछते हैं कि क्या हुआ, जिंदगी मजे में क्यों नहीं चल रही, तो यही जवाब सुनने को मिलता है, 'अरे! इतने से क्या होगा. घर तो ले लिया, लेकिन ईएमआई का टेंशन है. मनचाही शादी तो हो गई, लेकिन ठीक नहीं हुआ, इससे अच्छा तो यही होता कि घर वालों की बात मान ली जाती. तो घर में हर दिन का तनाव नहीं होता.'
यह कैसा मनोविज्ञान है. जब हम खुद सबकुछ जानते हुए निर्णय लेते हैं, तो उसके लिए कोई दूसरा कैसे जिम्मेदार हो सकता है? हम नई नौकरी से सुखी नहीं हो सकते, क्योंकि जैसे ही ऑफर मिलता है, अगले ही पल हम तुलना में चले जाते हैं. ऑफर की खुशी मिलते ही उसके सुख को महसूस करने की जगह हम नई चुनौती का बोझ ओढ़ लेते हैं. ऐसा भी हो जाता है कि उसी समय हमारे किसी मित्र को ऑफर मिल जाता है तो हमारा पूरा फोकस उधर चला जाता है. हम इस उधेड़बुन में फंस जाते हैं कि हमें भी थोड़ा और मिल जाता तो मज़ा ही आ जाता.
यही बात इन दिनों घर खरीदने वालों में देखी जा रही है. पहले घर खरीदते ही वहां एक किस्म की 'पॉजिटिव' एनर्जी देखी जाती थी. यहां इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि पहले भी आर्थिक संकट उतना ही था, जितना आज है. लेकिन पहले वर्तमान में जीने का जो सुख था, अब वह कहीं छिटक गया है.
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हम एक स्थिति से दूसरी में पहुंचते ही वहां ठहरने का सुख महसूस करने की जगह अगले ही पल भविष्य में चले जाते हैं. सुख को मन में थामने का जो सुख जीवन को मिलना चाहिए था, हम उससे हर दिन दूर हो रहे हैं.
यही कारण है कि हमने सुख को एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां से वह हमारी रेंज में कभी आ ही नहीं सकता. असल में इसके पीछे मूल वजह कुछ और है. हम मौटे तौर पर दुख की तलाश में रहने वाले लोग हैं. हम अपने साथ अपने सबसे बड़े दुश्मन 'अपेक्षा, तुलना और 'थोड़ा और' को हमेशा लादे फिरते रहते हैं.
जैसे ही जीवन में कुछ ऐसा होता है, जो आपको सुख की ओर ले जाने वाला है, हम उसे तुलना के जाल में उलझा लेते हैं. हमें कुछ मिला तो तुरंत नजर उनकी ओर चली जाती है, जिनके साथ हम एक ही नदी में तैर रहे हैं. हम विविधता को स्वीकार करने की जगह तरक्की को तुलना के चक्रव्यूह में उलझा देते हैं. उसे मिला तो मुझे क्यों नहीं? यह एक किस्म का 'सिंड्रोम' है. अपने आसपास उन लोगों पर नजर डालिए जो आपको खुश नजर आते हैं तो आप पाएंगे कि यह वही लोग हैं, जिन्होंने खुद को तुलना से दूर रखा.
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यही बात अपेक्षा पर लागू होती है. संबंध बने नहीं कि अपेक्षा का जाल घेर लेता है. हम सामने वाले से यही चाहते हैं कि उसे हमारी बात माननी ही होगी. यह बात सबसे अधिक मित्रों और बच्चों के साथ संबंधों में लागू होती है. हम सुखी कैसे होते हैं. किनसे होते हैं? अपने परिजन, मित्र और बच्चों के साथ रहते हुए ऐसे में अगरइनके पीछे आपने अपेक्षा को दौड़ा दिया तो सुख को हमारा ठिया छोड़कर कहीं और जाना ही होगा.
सुख का आखिरी और तीसरा सबसे बड़ा शत्रु है, 'थोड़ा और'. कितना भी मिल जाए, मिला हुआ सारा तब तक बेकार है, जब तक हमें अपने मन के अनुसार थोड़ा और न मिले. इस 'थोड़े और' की कोई सीमा नहीं है. कोई छोर नहीं है. इसलिए जिंदगी के प्रति अपने नजरिए को ठीक करिए, सुख के लिए किसी और की नहीं, बल्कि केवल अपने सुखी मन की दरकार है. जो आपके पास पहले से ही है, हां, यह जरूर है कि यह बात आपको पता नहीं है!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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