मज़दूर दिवस पर विशेष: बेरोज़गारी बनाम श्रम के घंटे
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मज़दूर दिवस पर विशेष: बेरोज़गारी बनाम श्रम के घंटे

यह स्थिति वाकई नाज़ुक है. जहां श्रम के मूल्य का ही निर्धारण न हो पा रहा हो वहां असंगठित क्षेत्र में मजदूरी के घंटे तय करना वाकई मुश्किल काम है.

मज़दूर दिवस पर विशेष: बेरोज़गारी बनाम श्रम के घंटे

अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर मज़दूरों की बातें की जाती हैं. कुछ साल से आज के दिन को मनाने के लिए एक विषय भी घोषित किया जाने लगा था. लेकिन हर साल यह विषय घोषित हो नहीं पाता. इस साल भी कोई विषय घोषित नही हुआ. वैसे 2013 में मजदूर दिवस की थीम थी बेरोज़गारों को पूंजी की मदद ताकि वे अपना काम शुरू कर सकें. लगभग ऐसी ही थीम 2012 की थी. इसमें रोज़गार बढ़ाने के लिए संभावित युवा उद्यमियों को मदद करने का नारा था. बहरहाल, इस दिवस को मनाने के लिए विश्व में कोई औपचारिक व्यवस्था अभी बनी नहीं है. दुनिया के मजदूर संगठन अपने अपने स्तर पर यह दिन मना लेते हैं. 

अब तक कैसे मनता रहा यह दिवस 
इतिहास देखें तो इस दिवस को मनाने की शुरुआत मजदूर आंदोलनों के कारण हुई. दरअसल 4 मई 1886 को शिकागो में मजदूर आंदोलनकारियों पर बम फेंकने और भीड़ पर पुलिस की कार्रवाई में मजदूरों की मौतों के शोक में यह दिवस मनाया जाना शुरू हुआ. बाद में विश्व के मजदूर संगठन उस संघर्ष  की याद में इसे अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाने लगे. आज कोई अस्सी देशों में यह दिवस मनाया जाता है. कई देशों में आज के दिन सरकारी छुट्टी घोषित है. इस दिन ट्रेड यूनियनें या मज़दूर संगठन अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए रैलियां और दूसरे तरह के आयोजन करते हैं. अपने देश में यह दिवस एक मई 1923 से मनाया जाना शुरू हुआ. उस दिन भारत में पहला अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मद्रास यानी आज के चेनई में मना था. भारतीय मज़दूर किसान पार्टी के नेता सिंगरावेलु चेट्टियार की अगुआई में भारत में इसकी शुरुआत मद्रास दिवस के रूप हुई थी. बाद में आम सहमति से तय हुआ कि इस दिवस को भारत में मजदूर दिवस के रूप में ही मनाया जाए.

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मुद्दा क्या था मई 1886 के उस प्रदर्शन का 
मजदूर कार्यस्थल की अमानवीय स्थितियों को सुधारने और  काम के घटों को निश्चित करने की मांग कर रहे थे. इन प्रदर्शनकारियों पर कैसी हिंसा हुई? क्यों हुई? इसका ब्योरा  सवा सौ साल बाद बार बार देना उतने महत्व का नहीं बचा. लेकिन उस आंदोलन के मुद्दे आज भी प्रासंगिक लग रहे हैं. आंदोलन की मुख्य मांग थी कि काम का समय आठ घंटे से ज्यादा न हो. बाद में कई साल तक एक दिन में श्रम के घंटे निर्धारित करने को लेकर दुनियाभर में सोच विचार होता रहा. आज संगठित क्षेत्र में खासतौर पर सरकारी क्षेत्र में कामगारों के लिए अधिकतम घंटों की जो व्यवस्था है उसे उस आंदोलन का हासिल माना जाना चाहिए. 

निजी क्षेत्र में श्रम के घंटों की स्थिति 
यह स्थिति वाकई नाज़ुक है. जहां श्रम के मूल्य का ही निर्धारण न हो पा रहा हो वहां असंगठित क्षेत्र में मजदूरी के घंटे तय करना वाकई मुश्किल काम है. सरकारें श्रम सुधारों के नाम पर यह व्यवस्था बनाने की कोशिशें करती जरूर हैं, लेकिन निजी क्षेत्र में लाभ लागत का हिसाब बताते हुए कामगारों से लंबे समय तक काम करवाने का चलन आज भी है. लगभग हर देश इस समस्या से जूझता दिखाई देता है. मानव संसाधन विकास के विशेषज्ञ आजकल निर्धारित समय से ज्यादा काम करवाने के नुकसान बताते जरूर हैं, लेकिन प्रतिष्ठान के मालिकों को यह सुझाव ठीक नहीं लगता. वैसे बात यहीं तक सीमित नहीं है.

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भयावह बेरोज़गारी के दौर में एक कामगार से ज्यादा समय काम करवाने का तुक 
जो दस या बारह घंटे काम करता है वह एक बेरोज़गार के एवज़ में ज्यादा काम करता है. अगर अधिकतम आठ घंटे का नियम हो तो दो की बजाए कम से कम तीन कर्मचारियों की जरूरत पड़ेगी. यानी रोज़गार के ज्यादा मौके बनेंगे. लेकिन चक्कर तीसरे कर्मचारी को वेतन का आएगा. यह वेतन प्रतिष्ठान अपना मुनाफा काटकर देना नहीं चाहेगा. वह चाहेगा कि जो कर्मचारी ज्यादा घंटे काम कर रहा था अब उसके घंटे घटाने के बाद उसे उतना ही कम वेतन दिया जाए. यह कहते ही वर्तमान मजदूर में अंसतोष पैदा हो जाएगा. फिलहाल इसका काट नहीं सूझता. लेकिन क्या आगे की व्यवस्था ऐसी नहीं बनाई जा सकती कि भविष्य के कामगारों से निर्धारित घंटों तक ही काम करवाया जाए और उनके वेतन उसी हिसाब से तय हों. किसी से भी ओवर टाइम करवाने की छूट न हो. प्रबंधन प्रौद्योगिकी के नवीनतम ज्ञान के मुताबिक मानवीयता का पक्ष और भयावह बेरोज़गारी से निपटने के उपाय के तौर पर श्रम सुधारकों को इस मामले में सोच विचार करने में हर्ज क्या है?

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(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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