चुनावी रण में नेताओं से समझिए राजनीतिक संबंधों और कसमे-वादों का कितना मोल है!
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चुनावी रण में नेताओं से समझिए राजनीतिक संबंधों और कसमे-वादों का कितना मोल है!

40-50 साल तक पार्टी को 'मां' कहने वाले लोग टिकट कटते ही नई 'मां' के गले लग रहे हैं. अगर एक लाइन में कहना हो, तो कह सकते है कि एक सुपरहिट हिंदी फिल्म बनाने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब मध्य प्रदेश के चुनावी रण में है.

चुनावी रण में नेताओं से समझिए राजनीतिक संबंधों और कसमे-वादों का कितना मोल है!

संतोष मानव : मध्य प्रदेश के चुनावी महाभारत में आंसू हैं, क्रोध है, हास्य है, अलगाव है, विलाप है, विद्रोह है, जुड़ाव है, गठबंधन है. साथ ही है भयंकर भयादोहन, मोलभाव. जातिवाद है, पुत्र-परिवारवाद भी कम नहीं है. संतान के आगे पार्टी फेल है. नहीं है तो आदर्श, प्रेमबंधन, सिद्धांत. 40-50 साल तक पार्टी को 'मां' कहने वाले लोग टिकट कटते ही नई 'मां' के गले लग रहे हैं. अगर एक लाइन में कहना हो, तो कह सकते है कि एक सुपरहिट हिंदी फिल्म बनाने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब मध्य प्रदेश के चुनावी रण में है.


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प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और भाजपा ने सारे टिकट बांट दिए हैं. अधिकतर प्रत्याशियों ने नामांकन भी भर दिए. प्रचार जारी है. परिणाम में देर है. परिणाम से पहले मतदान जो होना है. वैसे, परिणाम जानना हो, तो कह सकते हैं कि कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर है. कांग्रेस 229 सीटों पर लड़ रही है. उसने जतारा सीट शरद यादव की लोकतांत्रिक जनता दल के लिए छोड़ी है. जयस नामक आदिवासी युवकों का संगठन कांग्रेस के आगे सरेंडर कर चुका है, सरेंडर इसलिए कि पहले इसने 90 सीटों पर लड़ने की बात की थी. अब इसके अध्यक्ष कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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भाजपा सभी 230 सीटों पर लड़ रही है. उसने 230 में से एक यानी उत्तर भोपाल सीट से एक मुस्लिम महिला को टिकट दिया. नाम है फातिमा रसूल सिद्दकी. इनके पिता कभी प्रदेश की सरकार में मंत्री थे. आप, बसपा, सपा-गोंडवाना गणतंत्र पार्टी आदि के उम्मीदवार भी मैदान में हैं क्षेत्रबदल और दलबदल की कहानियां राजनीतिक गलियारों में सुनी और सुनाई जा रही हैं. प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव खरगोन से दूर बुदनी में प्रकट हुए हैं. वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनौती दे रहे हैं. वे प्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के पुत्र और पूर्व मंत्री भी हैं. संदेश साफ है कि शिवराज सिंह चौहान को उनके ही क्षेत्र में घेर कर रखो. दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि बुदनी में शिवराज से नाराजगी है, अरुण जीतेंगे. और अरुण कह रहे हैं, नर्मदा के अवैध उत्खनन के एक-एक कण का हिसाब लूंगा.

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दलबदल की सैकड़ों कहानियां हैं. अब असरदार सरदार सरताज सिंह को ही देखिए. 78 साल की उम्र. 40 साल से भाजपा के वफादार सिपाही थे. विधायक रहे. प्रदेश, केंद्र में मंत्री रहे. होशंगाबाद लोकसभा क्षेत्र से कभी अर्जुन सिंह को पराजित करने का श्रेय इनके खाते में है. जीते तो पार्टी ने 13 दिन की वाजपेयी सरकार में मंत्री बनाया. प्रदेश में भी वर्षों मंत्री रहे. इस बार टिकट कट गया, तो 40 साल का संबंध तोड़ दिया. रातोंरात कट्टर भाजपाई से कांग्रेसी हो गए. सरताज की लोकप्रियता भुनाने में कांग्रेस ने तनिक भी देर नहीं की. उन्हें उनकी विधानसभा सीट सिवनी-मालवा के पास वाली होशंगाबाद से उम्मीदवार बना दिया. अब वे विधानसभा अध्यक्ष और भाजपा उम्मीदवार सीताशरण शर्मा से दो-दो हाथ करेंगे. सरताज सिंह से समझिए कि राजनीतिक संबंध और कसमें-वादों का कितना मोल है!

सरताज सिंह ही क्यों, बाबूलाल गौर भी राजनीतिक संबंधों, तौर-तरीकों का महत्व, उसकी क्षणभंगुरता, मोलभाव बखूबी सिखा रहे हैं. बाबूलाल छुटपन में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से भोपाल आए. भोपाल के फुटपाथ पर चना-फुटाना बेचा. भेल में नौकरी की. भारतीय मजदूर संध के जरिए भारतीय जनता पार्टी में आए. नौ बार विधानसभा का चुनाव जीते. कभी हारे नहीं. प्रदेश में विपक्ष के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री रहे. इस बार टिकट कटने की नौबत आई, तो बागी होने की राह पर चल पड़े. निर्दलीय चुनाव लड़ने की धमकी दे दी. पार्टी को झुकना पड़ा. संघ से भाजपा में आए प्रदेश महामंत्री वीडी शर्मा और मुख्यमंत्री के मित्र आलोक शर्मा देखते रह गए. गौर की धमकी काम आ गई. गौर की बहू और पूर्व महापौर कृष्णा गौर टिकट पा गईं. उसी गोविंदपुरा सीट से, जहां से बाबूलाल जीतते रहे. गौर सिखा गए, राजनीति में मोलभाव अहम है. मैं नहीं तो मेरा परिवार है न!

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भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेता भी वर्तमान राजनीति का पाठ पढ़ा रहे हैं. अब सत्यव्रत चतुर्वेदी को ही लीजिए. राजनीतिक परिवार से आते हैं. खुद बुंदेलखंड के बड़े नेता हैं. लोकसभा, राज्यसभा के सदस्य रहे. बेटे नितिन चतुर्वेदी को टिकट नहीं दिलवा पाए, तो समाजवादी पार्टी से बेटे के लिए टिकट ले आए. अब कह रहे हैं, छिपकर नहीं, छाती ठोंककर करूंगा बेटे का प्रचार. सत्यव्रत चतुर्वेदी सिखाते हैं कि बेटे के आगे पार्टी तुच्छ है. बेटा, भाई प्रेम की कहानी दिग्विजय सिंह और भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी कह रहे हैं. दिग्गी राजा विधायक पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़, भाई और पूर्व लोकसभा सदस्य लक्ष्मण सिंह को चाचौड़ा तो भतीजे को खिलचीपुर से टिकट दिलवाने में कामयाब रहे. कैलाश विजयवर्गीय खुद चुनाव के मैदान में नहीं हैं पर बेटे आकाश के लिए टिकट ले ही आए . हां, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन अपने बेटे मंदार के लिए टिकट नहीं जुगाड़ पाईं.

गौरीशंकर शेजवार भाजपा के बड़े नेता. सालो-साल मंत्री रहे. कई दफा मुख्यमंत्री बनते- बनते रह गए. वे भी इस बार घर बिठा दिए गए, लेकिन पुत्र मुदित को उत्तराधिकारी बनाकर ही माने. उनकी सीट से अब सुपुत्र मुदित भाजपा के उम्मीदवार हैं. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के पुत्र और मंत्री हर्ष सिंह बीमार, असमर्थ हैं, तो उनके पुत्र विक्रम सिंह को टिकट मिल गया. लेकिन, प्रदेश की दो महिला मंत्री कुसुम महदेले और माया सिंह को यह सौभाग्य नहीं मिला.

धन भी तो एक बल है. अब धनबल की कुछ कहानियां. संजय शर्मा की घोषित संपत्ति 65 करोड़ है. टिकट के लिए कांग्रेस से भाजपा में आए थे. तेंदूखेड़ा से विधायक भी बन गए. इस बार टिकट पर संकट था, तो फिर कांग्रेस में चले गए, टिकट भी पा गए. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पत्नी साधना सिंह के सगे भाई संजय सिंह भी धनबली हैं. जीजाजी से नाराज होकर कांग्रेस में चले गए. बालाघाट जिले की बारासिवनी से टिकट भी पा गए. कांग्रेस से सांसद, विधायक रहे बली प्रेमचंद गुड्डू भाजपा में चले गए, खुद न सही बेटे के लिए टिकट ले ही आए.

अब कुछ ही दिनों का शोर है. फिर धनबल, संपर्क बलियों, जाति बलियों का राज आएगा. जनता का राज? वह तो सपना है हुजूर...

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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