स्वामी साणंद जैसे समर्पित लोगों का बलिदान ज़ाया नहीं जाना चाहिए
Advertisement

स्वामी साणंद जैसे समर्पित लोगों का बलिदान ज़ाया नहीं जाना चाहिए

जब स्वामी ज्ञानस्वरूप साणंद की मौत की खबर सुनी तो उनके यही वाक्य मेरे कान में गूंज गए जो उन्होंने उस दौरान हमसे कहे थे कि अब वो चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी बस प्राण निकलें.

स्वामी साणंद जैसे समर्पित लोगों का बलिदान ज़ाया नहीं जाना चाहिए

पिछले महीने के आखिरी सप्ताह में ही उनसे मिलना हुआ था. तब इस बात की उम्मीद भी नहीं थी कि ये सब इतना जल्दी हो जाएगा. जल्दी वैसे नहीं, क्योंकि पिछले 112 दिनों से वो भूख हड़ताल पर बैठे थे. स्वामी ज्ञानस्वरूप साणंदयानि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल जी से जब मिलने पहुंचे तो पहले तो उन्होंने इशारे से बैठने को कहा और शांति से किसी शून्य में देखने लगे. हम भी चुप थे और वो भी चुप थे, लेकिन इस चुप्पी में शायद एक बहुत बड़ी चीख थी. एक नैराश्य का वार्तालाप था. जब हमने उनसे कहा कि लोग समर्थन में बात कर रहे हैं जल्दी ही कुछ हल निकलना चाहिए तो उन्होंने बड़ी ही तल्खी के साथ कह दिया था कि ‘अब मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है. आने वाली 9 तारीख को नवरात्र शुरू होते ही मैं पानी भी त्याग दूंगा. अब मैं बस यही चाहता हूं कि ये प्राण निकलें. जब जिंदगी नहीं रहती है तो सारे प्रश्न खत्म हो जाएंगे.’

वो इस कदर घोर निऱाशा से गुज़र रहे थे कि किसी तरह की कोई भी सांत्वना उन्हें और चिढ़ा देती थी. वो कहते हैं कि आपको अच्छा लगता होगा कि आप मुझे समर्थन की सांत्वना दे रहे हैं, लेकिन इससे मुझे और दुख ही होता है औऱ अब मेरा इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं किसी तरह की कोई चर्चा कर सकूं. मुझे नहीं लगता कि इस सरकार को या किसी को भी गंगा की कोई चिंता है. नहीं है तो कोई बात नहीं. 

ये भी पढ़ें- ‘बधाई हो गणेश हुआ है’

इतना कहकर वो फिर शांत होकर बैठ गए. जब मेरे साथी ने उनसे कहा कि समर्थन तो बहुत है, लेकिन कोई आंदोलन को लेकर चलने वाला नज़र नहीं आता है. इस पर वो बहुत गंभीरता और दृढ़ता के साथ बोले, ऐसा नहीं है, नेतृत्व ऐसे ही बनता है. दरअसल मैं अपने चारों तरफ कंपीटेंट (योग्य) लोग तो बहुत देखता हूं, लेकिन लोगों में कमिटमेंट (समर्पण) की कमी है.

जब उनकी मौत की खबर सुनी तो उनके यही वाक्य मेरे कान में गूंज गए जो उन्होंने उस दौरान हमसे कहे थे कि अब वो चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी बस प्राण निकलें.  

विश्वास कीजिए मेरे साथ बहुत कम होता है कि जल्दी भावुक हो जाऊं, लेकिन पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि जब तक उनके साथ बैठा रहा मेरी आंखें नम ही थी. यहां तक कि मैंने अपने आंसुओं को जैसे तैसे रोका था. जब उनसे मिलकर बाहर निकला तो काफी देर तक किसी से बात करने का मन तक नहीं हुआ. यहां तक कि घर से फोन आने पर भी उनकी ही बात करता रहा, जबकि मैं जानता था कि दूसरी तरफ फोन पर सुनने वाले को शायद मेरी प्रतिक्रिया अतिरेक लग रही हो, क्योंकि मैंने कभी उनके साथ अपने जुड़ाव के बारे में कोई बात भी नहीं की. सच कहूं तो ऐसा कोई जुड़ाव था भी नहीं. जुड़ाव बस इतना था कि वो जिस प्रकृति के लिए लड़ रहे हैं मैं भी उसकी ही चिंता कर रहा हूं. मुझे तो उनके बारे में जानकारी भी मेरे साथी जो गंगा मामले में ज्यादा सक्रिय हैं उनसे मिलती थी. हालांकि मैं उन्हें आज से नहीं जानता हूं. गंगा यात्रा के दौरान जब पहली बार निकले थे, तब टिहरी बांध पर जब पहुंचे तो पहली बार उनका नाम सुनने को मिला था. उसके बाद जितनी बार वो हड़ताल पर बैठे हर बार किसी ना किसी तरह से उनके आंदोलन का समर्थन किया. एक बार उनके समर्थन में जंतर-मंतर पर परिवारजनों औऱ कुछ छात्रों के साथ मिलकर कैंडल मार्च भी निकाला था, लेकिन पता नहीं क्या था कि इस बार जब मैं उनसे मिला तो मैं खुद को भावुक होने से रोक नहीं पाया. 

ये भी पढ़ें- स्वार्थ के आगे बौनी है पर्यावरण की चिंता

आप सोचिए कोई आदमी भूखा-प्यासा लड़ रहा हो, उसकी कोई सुध भी नहीं ले रहा हो. वो जिनके हित के लिए बात कर रहा हो वो मुंह छिपाकर बैठे हों. वो सरकार जो गंगा का गान गाकर सत्ता में आई हो वो चुप्पी साधकर बैठ गई हो, क्योंकि उसका अहं बड़ा है. क्योंकि सत्ता जानती है कि स्वामी की बात मान ली तो हम हार जाएंगे, हम छोटे हो जाएंगे. स्वामी जी को यश मिलेगा औऱ श्रेय लूटना तो हमारा अधिकार है.

ऐसे थोथे औऱ छिछले लोगों के लिए जो आदमी 112 दिनों से भूखा था. वो निराश नहीं होता तो क्या होता. जो आदमी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टिकोण से देख सकता था. औऱ जो देख पा रहा था कि गंगा का या किसी भी नदी का बच पाना अब मुमकिन नहीं लगता है. जिन नदियों को उनके मुहाने पर बांध में कैद कर दिया गया हो, जिन नदियों को आज़ाद देश की प्रजातांत्रिक सरकारों ने स्वार्थ के चलते बेड़ियों में कैद कर दिया हो. जहां की जनता ये सोचकर बैठी है कि अपनी तो कट जाए, भविष्य किसने देखा है. जो रोज़ नदियों को तिल-तिल करके मार रहे हैं. उस देश के लिए, उस प्रकृति के लिए स्वामी जी ने अपनी जान दे दी. लेकिन हमें अभी भी समझ नहीं आएगा. 

ये भी पढ़ें- खुशियों का पीरियड

प्रसिद्ध प्रकृतिविद सोपान जोशी ने अपनी किताब जल, थल, मल में जिस तरह से बताया है कि धरती पर जीवन कभी भी खत्म नहीं होता है. बस किसी जीवन की जगह किसी दूसरे का जीवन ले लेता है. जैसे शुरुआती दौर में इस धरती पर साइनोबैक्टीरिया थे. उस दौरान धरती पर कार्बन डाइऑक्साइड थी. वो कार्बन डाइऑक्साइड लेते थे और ऑक्सीजन छोड़ते थे. धीरे-धीरे धरती पर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गई और साइनोबैक्टीरिया खुद को बचाकर नहीं रख सके. इसी ऑक्सीजन ने हम जैसे जीवों को विकसित किया. 

अब हम अपने लिए कब्र खोद रहे हैं. जल्दी ही वो वक्त आएगा जब हम नहीं रहेंगे औऱ हमारी जगह कोई विषाणु ले लेंगे. हमने नदियों को लील लिया है. हवा हम जहर बना चुके हैं. ग्लोबल वार्मिंग के ज़रिये आग लग ही रही है. 

ये भी पढ़ें- आजादी के 71 साल: 'खड़िया के घेरे' में हैं इंसान की आजादी

बस स्वामी जी जैसे कुछ लोग औऱ बचे हैं जो आंदोलन करते रहेंगे औऱ जाते जाएंगे. सरकारें चलती रहेंगी. आप और हम कुछ दिन औऱ रह लेंगे, लेकिन विश्वास कीजिए जिस दिन प्रलय होगी वो ऐसी नहीं होगी कि एक दिन में सर्वनाश कर दे. वो जब आएगी तो उतना ही तिल-तिल करके मारेगी, जितना इस प्रकृति के साथ हमने किया है. उस वक्त सोचने का मौका भी नहीं होगा. इसलिए वक्त आ गया है कि हमें अपने स्तर पर खड़ा होना होगा औऱ चिंता करनी होगी. स्वामी साणंदजैसे समर्पित लोगों का बलिदान ज़ाया नहीं जाना चाहिए.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news