Opinion : क्या ‘शिक्षा बनाम रोजगार’ की लड़ाई लड़ रहे हैं यह याचिकाकर्ता?
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Opinion : क्या ‘शिक्षा बनाम रोजगार’ की लड़ाई लड़ रहे हैं यह याचिकाकर्ता?

जिस देश में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक छात्र और छात्राएं मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय परिवारों से आते हों, वहां पर जल्द से जल्द नौकरी प्राप्त करने का भारी दबाव रहता है...

Opinion : क्या ‘शिक्षा बनाम रोजगार’ की लड़ाई लड़ रहे हैं यह याचिकाकर्ता?

पूरी दुनिया में यदि इस समय सबसे बड़ी बहस और चिंता का कोई मुद्दा है तो वह है रोजगार. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का पूरा चुनाव कैंपेन हो या प्रधानमंत्री मोदी के ऊपर विपक्ष का सबसे बड़ा हमला, सब युवाओं को रोजगार प्रदान करने को लेकर ही है. वर्तमान समय में आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस (AI), ऑटोमेशन और रोबोटिक्स आदि बदलावों ने रोजगार प्रणाली और व्यवस्था दोनों को बदलकर रख दिया है. ऐसे में रोजगार के अवसर भी कम हो रहे हैं, जिससे सरकारों के ऊपर यह दबाव बन रहा है कि वह रोजगार के नए साधन खोजें. शिक्षा-प्रणाली में भी आमूलचूल परिवर्तन की मांग हो रही है ताकि शिक्षित युवा डिग्रियों के साथ-साथ पर्याप्त कौशल (skill) भी प्राप्त कर सकें, जो उन्हें गरिमापूर्ण जीविका प्राप्त करने लायक बना सके, यानी वह पूरी तरह से रोजगार के योग्य हों.

आमतौर पर माना जाता है कि शिक्षा से ही ठीक-ठाक रोजगार प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए सभी को अच्छी और सस्ती शिक्षा दी जानी चाहिए. इसी सिलसिले में एक नई तरह की बहस इस समय देश के सर्वोच्च विश्वविद्यालय में देखने को मिल रही है. यह बहस कहीं न कहीं ‘शिक्षा बनाम रोजगार’ की है. क्या शिक्षा ग्रहण करते समय छात्रों को रोजगार प्राप्त करने का अधिकार है? कम से कम दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र का तो यही मानना है. दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले एल.एल.एम. (L.L.M.) के एक छात्र ने दिल्ली उच्च न्यायालय में छात्रों के ऊपर विधि संकाय (फैकल्टी ऑफ़ लॉ) एवं दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा लगाए गए उस नियम के विरुद्ध एक याचिका दाखिल की है जिसके तहत विश्वविद्यालय एवं विधि संकाय छात्रों को कानून की प्रैक्टिस और आय के स्रोत वाले अन्य सभी कार्यों को करने से रोकता है. यह याचिका विधि संकाय छात्रसंघ (LLMSU) के अध्यक्ष पीयूष पुष्कर ठाकुर के द्वारा दाखिल की गई है. पीयूष ने दिल्ली विश्वविद्यालय के 2015 के अध्यादेश और विधि संकाय के 2017 के नोटिफिकेशन को चुनौती दी है जिसकी याचिका को न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर की पीठ ने स्वीकार करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय और विधि संकाय को नोटिस भेजकर जवाब भी मांगा है. इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख 12 अप्रैल, 2018 है.

पीयूष कहते हैं कि यह नियम छात्रों को न सिर्फ आर्थिक तौर पर पंगु बना रहा है बल्कि इस नियम के कारण एल.एल.एम. का कोर्स सिर्फ पैसे वालों का कोर्स बनकर रह गया है. बकौल पीयूष, यह लड़ाई न सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून के छात्रों की है, बल्कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्र से आने वाले गरीब और सामाजिक रूप से वंचित छात्रों की भी है, जो आगे पढ़ना तो चाहते है परंतु इस तरह के नियम उसके मार्ग में बाधा बन रहे हैं. पीयूष का यह भी कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय के अलावा यह नियम अन्य किसी विश्वविद्यालय में नही है और बार कौंसिल ऑफ इंडिया (BCI), जो अधिवक्ताओं की प्रैक्टिस को विनियमित करती है, उसने भी इस तरह की कोई रोक नही लगाई है. जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय ने भी हाल के अपने एक आदेश में कहा है कि एल.एल.एम. करते हुए व्यतीत किया हुआ समय कार्य-अनुभव (work-experience) में गिना जाएगा. साथ ही पीयूष ने यह भी बताया कि इस तरह का नियम संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(g) और 21 का उल्लंघन है. छात्रसंघ अध्यक्ष पीयूष के अनुसार कोर्स में प्रवेश लेने के बाद उनसे और अन्य छात्रों से विधि संकाय ने कोई भी लाभ का कार्य नहीं करने का शपथ पत्र लिया है.

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पीयूष पुष्कर का यह कहना है कि वे फुल टाइम जॉब की बात नहीं कर रहे है. बल्कि खाली समय में पार्ट-टाइम जॉब का छात्रों का अधिकार मांग रहे हैं जिससे वो अपने जरूरत का खर्च निकाल सके. पुष्कर के अनुसार छात्र अपने खाली समय में क्या करेगा इसको विश्वविद्यलाय या विधि संकाय विनियमित नही कर सकता है.

इस मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन का पक्ष सुनना अभी बाकी है और बिना उसको जाने किसी भी निर्णय पर पहुंचना उचित नहीं होगा. लेकिन इस मुकदमे ने भारत की शिक्षा प्रणाली को कठघरे में लाकर जरूर खड़ा कर दिया है. शिक्षा किसी भी समाज में चेतना और सशक्तिकरण का सबसे शक्तिशाली हथियार होता है. पर यदि शिक्षा प्रणाली के ऊपर ही न्यायालयों में सवाल उठाए जाने लगें तो निश्चित तौर पर उसमें व्यापक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है. जिस देश में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक छात्र और छात्राएं मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय परिवारों से आते हों, वहां पर जल्द से जल्द नौकरी प्राप्त करने का भारी दबाव रहता है, उनको शिक्षा ग्रहण करते समय रोजगार करने से रोकना कहां तक न्यायसंगत और तर्कसंगत है इसके ऊपर राष्ट्रीय स्तर पर बहस होनी ही चाहिए. उच्च-शिक्षा में तो यह मामला और भी पेचीदा हो जाता है जहां एम.फिल./पीएचडी करते समय छात्रों की जो आयु हो जाती है उसमें उनके ऊपर पैसा कमाने का भारी दबाव रहता है, जिससे उसकी शोध काफी प्रभावित होती है. इसी कारण भारत में शोध का स्तर बहुत अच्छा नहीं है और एशिया लेवल पर भी भारत बहुत अधिक स्कॉलर नहीं पैदा कर पाया है.

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यदि इस समस्या से निजात पानी है तो, या तो सरकार को पर्याप्त मात्रा में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा में, छात्रवृत्ति का प्रबंध करना पड़ेगा, फिर चाहे वो साइंस में हो, कॉमर्स में, लॉ में, या सोशल साइंस में. या फिर इतनी नौकरियों का इंतजाम करना होगा जिससे ये सभी लोग इस बात के लिए आश्वस्त हो सकें कि अपनी शिक्षा पूरी करते ही इनके पास उचित रोजगार होगा और इसलिए शिक्षा के दौरान इन्हें रोजगार की आवश्कता नहीं है. वैसे भूमंडलीकरण और आर्थिक सुधारों के इस दौर में यह कार्य बहुत ही मुश्किल दिखाई देता है.

यदि भारत सरकार उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में चीन से मुकाबला करना चाहती है तो उसको अपने पुराने ढर्रे की नीतियों में बदलाव लाने होंगे. ‘शिक्षा और रोजगार’ को ‘शिक्षा बनाम रोजगार’ में नहीं बदलने देना है. पीयूष पुष्कर द्वारा दायर याचिका का परिणाम भारत की शिक्षा-प्रणाली में सुधार की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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