पीडीपी-बीजेपी: असमंजस और सियासी खींचतान
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पीडीपी-बीजेपी: असमंजस और सियासी खींचतान

पीडीपी-बीजेपी: असमंजस और सियासी खींचतान

मरहूम मुफ्ती साहब कश्मीर की सियासत में एकबार फिर याद किये जाने लगे है। सन 2002 में जब पहली बार पीडीपी की सरकार कश्मीर में बनी तो लोग मेहबूबा की जगह मुफ़्ती साहब को बजीरे आला देखकर हैरान थे क्योंकि कश्मीर में लोगों ने मेहबूबा की पीडीपी को वोट दिया था। लेकिन कांग्रेस की जिद के कारण मेहबूबा मुफ़्ती के बजाय मुफ़्ती साहब को कोएलिशन हुकूमत की कमान मिली। लम्बे अरसे के बाद या यूँ कहे कि कश्मीर में यह पहला मौका था जब लोगों का भरोसा चुनावी प्रक्रिया में लौटी थी। अटल जी ने चुनाव को फ्री और फेयर करबा कर पीडीपी को नेशनल कांफ्रेंस के अल्टेरनेट खड़ा कर दिया था वही मुफ़्ती साहब वह पहले सीएम थे जिन्होंने हीलिंग टच पॉलिसी अपनाकर न केवल लोगों का दिल जीता बल्कि कश्मीर की सियासत में अपने को स्थापित किया था। बीजेपी आज वाजपेयी के दौर से आगे  निकल चुकी है तो पीडीपी में रियासत से ज्यादा चिंता इस बात को लेकर है कि पार्टी की हालात अगले चुनाव में कैसी होगी?

आतंकवाद प्रभावित जम्मू कश्मीर आज खबर से बाहर है। जुम्मे के रोज आईएस या पाकिस्तानी झंडे लहराने की खबर को अनदेखी कर दे तो नेशनल न्यूज़ के टेस्ट में यहां की कोई खबर जगह नहीं बना पाती है। ये उस कश्मीर की हालत है जो तक़रीबन हर दिन खबरों की सुर्ख़ियों में होती थी। तो क्या कश्मीर ने सियासी तौर पर ज्यादा संजीदगी का एहसास कराया है या फिर लोगों ने सियासतदानों को एहसास कराया है कि अब बस करो! लेकिन सियासी लीडर बस! कहने को तैयार नहीं है 10 महीने चली पीडीपी-बीजेपी हुकूमत मुफ़्ती साहब के बाद क्यों नहीं चल पा रही है ये एक बड़ा सवाल है, या यूँ कहे कि बीजेपी बनाम पीडीपी को जम्मू बनाम कश्मीर में तब्दील करने की कोशिश हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले साठ वर्षो के कश्मीर केंद्रित सियासत को जम्मू रीजन से चुनौती मिली है, लेकिन यह भी सच है कि रियासत के उपेक्षित समुदाय इस दौर में सियासी तौर पर मजबूत हुए है। लेकिन आम लोगों की परेशानी इससे काम नहीं हुई है सियासतदानों ने इसे अपना वोट बैंक मानकर हर समय इलेक्शन को लेकर तैयार बैठे हैं। मेहबूबा मुफ़्ती अगले पांच साल एक बेहतर कश्मीर का मॉडल प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन उसकी चिंता कश्मीर कम चुनाव ज्यादा है।

साबिक बजीरेआला ओमर अब्दुल्लाह कहते है कि कश्मीर में विकास कोई एजेंडा नहीं हो सकता ,इकनोमिक पैकैज बेमानी है तो मेहबूबा मुफ़्ती यह मान बैठी है कि सॉफ्ट सेप्रेटिजम ही उसकी पहचान है। यानी बीजेपी के साथ सरकार बनाने या साथ चलने की बात पीडीपी के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है फिर जम्मू और लद्दाख के लोग मेहबूबा मुफ़्ती की हुकूमत पर कैसे यकीन करें, यह भी सवाल है। सवाल यह भी है कि धारा 370 या एक देश एक विधान  लेकर बीजेपी कश्मीर के आम और खास में कैसे भरोसा पैदा कर सकती है। पीडीपी हुकूमत में अपने पॉपुलर पॉलिसी के जरिये मुफ़्ती सईद ने हुर्रियत के लीडरो को अपनी ज़मीन तलाशने पर मजबूर कर दिया था। कश्मीर की सियासत में अपनी चमक खो चुके जज्बात की नुमाइंदगी करने वाले लोग सामाजिक मुद्दों को लेकर गाँव गाँव घूमने लगे थे। उनकी हैसियत समाज में पाकिस्तान के एजेंट के तौर पर रह गयी थी। लेकिन ओमर अब्दुल्लाह के दौर में उन्हें कई ऐसे मौके मिले जिसमे उन्होंने दुबारा अपने को स्थापित किया। यानी कश्मीर में जम्हूरियत मजबूत होगी संवैधानिक शासन का जोर होगा तो अलगाववाद कमजोर होगा, जो प्रयोग मुफ़्ती साहब ने कर दिखाया था। ओमर अब्दुल्लाह में यह साहस नहीं था जिसके कारण पंचायत के चुने हुए 36000 जनप्रतिनिधि अपनी कोई सामाजिक भूमिका नहीं बना सके। यही साहस का आभाव मेहबूबा में भी है या उसे अपनी लोकप्रियता का गलत अंदाज़ा है कि पिछले एक महीने से यह निर्णय नहीं कर पा रही है कि सरकार में रहे या विपक्ष में। लेकिन सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह है कि मोदी सरकार वर्षो पुराने के एक चापलूस नौकरशाह के जरिये रियासत को चलना चाहती है। आम लोगों के लिए कश्मीर का मसला पाकिस्तान से जुड़ा नहीं है यह प्रधानमंत्री मोदी को समझना होगा। पाकिस्तान को लेकर उनके पालिसी को सराहा जा सकता है लेकिन कश्मीर को लेकर उनकी ख़ामोशी और यथास्थिति बनाये रखने की कोशिश मुल्क को महगा साबित हो सकती है।

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