अमृतसर रेल हादसाः पटरी पर शहर और बेपटरी देश
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अमृतसर रेल हादसाः पटरी पर शहर और बेपटरी देश

इस दुर्घटना ने मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया है. असल में यह एक ऐसी दुर्घटना है जो हमारे उस मूल चरित्र की बानगी है, जिसमें हमारे दिमाग में इंसानी जीवन का मूल्य बहुत कम हो गया है.

अमृतसर रेल हादसाः पटरी पर शहर और बेपटरी देश

अमृतसर रेल हादसे की खबर कल शाम को जब टीवी पर फ्लैश हुई तभी से यह समझने में मुश्किल आ रही थी कि आखिर यह हुआ कैसे. पहले कहा गया कि रेलवे ट्रैक पर रावण जल रहा था, वहां भीड़ जमा थी. सरसराती ट्रेन लोगों को कुचलते निकल गई. फिर बताया गया रेल पटरी के पास रावण जल रहा था और लोग पटरी पर खड़े रावण दहन देख रहे थे. अब तस्वीरें आई हैं कि रेल पटरी के पास एक मैदान है. मैदान चहारदीवारी से घिरा है. उसके अंदर रावण जल रहा था. उसे दूर से देखने के लिए पटरी और आसपास लोग खड़े थे. वहां रेलवे फाटक भी था जो बंद था.

यानी बात अब इस तरफ जा रही है कि स्थानीय प्रशासन ने अगर एक बंद मैदान में कार्यक्रम होने दिया तो आश्चर्य की बात नहीं है. अगर रेलवे ने फाटक बंद कर दिया तो भी आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि लोग इतने व्यस्त रेलवे ट्रैक पर खड़े क्यों हो गए.

अभी इस बारे में और भी तथ्य आएंगे और उनके हिसाब से अंतिम निष्कर्ष में संशोधन या बदलाव की गुंजाइश बनी रहेगी, लेकिन इस दुर्घटना ने मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया है. असल में यह एक ऐसी दुर्घटना है जो हमारे उस मूल चरित्र की बानगी है, जिसमें हमारे दिमाग में इंसानी जीवन का मूल्य बहुत कम हो गया है.

हम इस रेल हादसे की बात करें, उससे पहले जरा याद करें कि इस देश में अभी भी गर्मी, सर्दी और बाढ़ की खबर तापमान के उठने गिरने, या पानी के चढ़ने उतरने से ज्यादा, इस रूप में समझी जाती है कि शीत लहर से, लू से, या फिर बाढ़ से कितने लोगों की मौत हो गई. सड़क दुर्घटनाओं, पुल गिरने या अन्य किसी तरह की मानव निर्मित दुर्घटनाओं में भी घटना का बड़ा या छोटा होना इसी बात पर निर्भर करता है कि उसमें कितने लोग मारे गए और कितने जख्मी हुए.

यह निश्चित तौर पर एक पिछड़े हुए मुल्क की नुमाइश है. हम देख रहे हैं कि एक पत्रकार की हत्या को लेकर अमेरिका का राष्ट्रपति सऊदी अरब को घेरे हुए हैं. यानी वहां इंसानी जिंदगी की कीमत है, लेकिन हमें इस तरह जिंदगी की कीमत करनी नहीं आती. हम तो बड़े फख्र से सीमा और देश के भीतर चरमपंथ से लड़ते हुए शहीद होने वाले सैनिकों के शवों की भी गिनती करते रहते हैं.

अपनी इस निर्दयी मानसिकता को समझने के बाद अब हम वापस रेलवे ट्रैक पर चलते हैं. अगर आप गौर से अपने शहरों को देखें तो पाएंगे कि जब वहां पहली बार रेल पटरी या रेलवे स्टेशन बनाए गए थे तो वे शहर से काफी दूर थे. वे आबादी से दूर इसलिए बनाए गए थे ताकि जानमाल की क्षति होने का कम से कम अंदेशा रहे, लेकिन बिना प्लानिंग के बढ़ते शहरों में रेलवे स्टेशन शहरों के बीच में आ गए हैं. हममें से जो भी भारतीय रेलों में नियमित सफर करता है, उसने देखा होगा कि शहर का रेलवे स्टेशन आने से दो 3 किलोमीटर पहले से रेलवे ट्रैक के दोनों तरफ मकान दिखाई देने लगते हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में दोनों तरफ झोपड़ियां बनी होती हैं. रेलवे ट्रैक और इन झुग्गियों के बीच में अनिवार्य रूप से गंदा पानी भरा रहता है और शहर आने के ठीक पहले कूड़े के बड़े-बड़े ढेर ट्रेन का स्वागत करते हैं.

इस तरह बढ़ते-बढ़ते शहर रेलवे ट्रैक पर पहुंच गए. जो लोग वहां रह रहे हैं, वह बहुत खुशी से नहीं रह रहे हैं. वह इसलिए रह रहे हैं कि उस शहर में उनके रहने के लिए और कोई जगह है ही नहीं. इन लोगों की यह भी मजबूरी है कि वह नित्य क्रिया के लिए भी रेलवे ट्रैक पर ही जाएं. दरअसल, रेलवे ट्रैक उनके इतने करीब है और वह भी उसके इतने करीब हैं कि फर्राटे से निकलती ट्रेनों के साफ-साफ खतरे के बावजूद वे रेल ट्रैक को अपने आंगन की तरह महसूस करने लगे हैं.

जो लोग रेल ट्रैक के अपने इसी आभासी आंगन में खड़े होकर रावण दहन को देख रहे थे, असल में अपनी समझ में कोई गलती नहीं कर रहे थे. वह तो सिर्फ उसी मानसिकता के गुलाम थे. उसी निर्दयी मानसिकता के जो इंसान की जान की कीमत को बहुत कम आंकती है. वह एक घनघोर लापरवाही का शिकार हुए और थोक के भाव मारे गए, लेकिन यह लापरवाही सिर्फ उनकी अकेले की नहीं है. उन परिस्थितियों से पैदा हुई हैं, उस गरीबी से पैदा हुई है, उस अव्यवस्था से पैदा हुई है, उस शहर प्‍लानिंग से पैदा हुई हैं, जो इंसान को जानवरों से भी बुरे हालात में रहने को मजबूर करती हैं. जहां एक छोटा सा तमाशा देखने के लिए वे अपनी जिंदगियों की परवाह भूल जाते हैं. यह हादसा बाकी हादसों की तरह हमें फिर याद दिलाता है कि हम परिस्थितियों को ऐसे बदलें कि इंसानी जान की कुछ कीमत हो सके, क्योंकि अगर इंसान की कीमत नहीं है तो किस बात का लोकतंत्र और किस बात का राष्ट्र.

(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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